गुरुवार, दिसंबर 30, 2010

ग़ज़ल

हिन्दी के महान लेखक रघुवीर सहाय को हम उनके ग़ज़लों के लिए नहीं याद करते। आज उनकी बींसवी बरसी पर अमरबेल आपसे एक ग़ज़ल साझा करता है ----------

खोल दो अब द्वार प्रेयसि, प्रात का
मुक्त हो बन्दी अभागिन रात का।
जानता हूं किस लिए बिखरा तिमिर
क्योंकि खिलता था ह्रदय जलजात का।
तप्त है ज्वर से उजाले का बदन
उष्ण है स्पर्श तेरे गात का।
प्रीत की वह रीत पिछ्ली भूल जा
यह नहीं अवसर निठुर आघात का।
कौन कहता है कहानी प्यार की,
यह तुम्हें उत्तर तुम्हारी बात का।

मंगलवार, अक्तूबर 19, 2010

हिन्दी की राजनीति, राजनीति की हिन्दी

  इस बार हिंदी दिवस पर फिर यही समाचार हिंदी के विभिन्न पत्रों में पढ़ने को मिला कि हिंदी के एक अंग के भाषाकर्मी दूसरों पर कमान ताने खड़े है और उनकी बंजरता एवं दुर्बलता को प्रहसित करने में सबलतापूर्वक जुटे हुए हैं | यह हिंदी दिवस के स्थायी रंगों में से एक है | हिंदी दिवस कि कोई खबर बिना शिकायत के पूरी नहीं होती | वास्तव में यह हिंदी के विकास की ख़बरों में हिंदी की नहीं राजभाषा की खबर होती है | इस अर्थ में इस स्थापना से इनकार नहीं किया जा सकता कि यहाँ पर ‘हिंदी दिवस’ में हिंदी का अर्थ राजभाषा तक संकुचित होकर रह जाता है | इस प्रकार चौदह सितम्बर का दिन या उससे जुड़ा पखवाड़ा ‘हिंदी दिवस’ या ‘हिंदी पखवाड़ा’ न होकर ‘राजभाषा दिवस’ या ‘राजभाषा पखवाड़ा’ हो जाता है |
  हमेशा की तरह या कहें कि अनंतकाल तक राजभाषा के क्षेत्र में हिंदी अधिकारियों, मंत्रालयों तथा संस्थाओं से शिकायत का यह रवैया पत्रमान हो जाता है और उन्हें सदा की तरह अछूतों सा अलगाव बाकी के हिंदी संसार से महसूस कराया जाता है | इस समूची प्रक्रिया में हिंदी अधिकारी या अनुवादक हिंदी संसार का समान सहकर्मी या मित्र न होकर उस कटघरे का कैदी हो जाता है, जो कि शेष हिंदी वालों द्वारा ही तैयार किया जाता है | यहाँ कहने का अर्थ यह नहीं है कि हिंदी अधिकारी की गलती या लापरवाही को नज़रंदाज़ किया जाए, अपितु समस्या की जड़ में जाकर समाधान तलाशने के आवश्यक प्रयास किये जायें| अगर एक बार दिवस की अछूत मानसिकता से उसे निजात दिलाकर उसे यह सन्देश देने का रवैया अपनाया जाए कि हिंदी के लिए वह एक महत्वपूर्ण और ज़िम्मेदार भाषाकर्मी है तो संभव है कि न केवल यह राजभाषा, हिंदी के विकास और प्रचार-प्रसार के ध्येय को प्रासंगिक बना दे अपितु उसे सांस्कृतिक बदलाव के चिह्न के रूप में भी पल्लवित कर दे | यह भी स्पष्ट है कि धीरे-धीरे सकारात्मक रवैया बनाने का यह कार्य वहीँ संभव हो सकता है जहाँ थामस अल्वा एडीसन जैसे धैर्यवान, प्रयोगधर्मी तथा लक्ष्यदर्शी व्यक्तित्व हों |
  इस सन्दर्भ में यदि अल्पावलोकन भी किया जाए तो यह पता चलता है कि किसी मंत्रालय द्वारा हिंदी के अपमान पर सिंहनाद की एक परम्परा है, जहाँ सारा आक्रोश अधिकारियों पर मढ़ देने मात्र के उपरान्त किसी भी प्रकार की नीति न बनाते हुए अपनी ज़िम्मेदारी की इतिश्री कर ली जाती है | इसका सटीक उदाहरण अभी हाल में ही हुए हिंदी पखवाड़े के दौरान लोक कार्मिक व पेंशन मंत्रालय की राजभाषा समिति की बैठक के रूप में देखा जा सकता है | समाचारों के अनुसार इस मंत्रालय की राजभाषा समिति की बैठक में पैंतीस से अधिक सांसद मौजूद थे| इस बैठक में जो प्रतिवेदन प्रस्तुत किया गया, वह हिंदी में न होकर आंग्ल भाषा में था| इस बात पर जब सदस्यों ने आपत्ति जतायी तो मंत्रालय के अधिकारियों ने हिंदी में प्रतिवेदन प्रस्तुत करने पर अपनी असमर्थता प्रकट की| इसका कारण उन्होंने यह बताया कि उनके विभाग में अनुवादकों की कमी है | यह बात सामने आने पर एक सांसद ने दस्तावेज़ फाड़ दिया तथा बैठक छोड़कर गुस्से में चल दिया|
  इनके साथ ही इन्हीं की पार्टी के अन्य सांसदों ने भी यही रवैया अपनाया | रिपोर्ट अंग्रेजी में दिए जाने की सूचना भी इन्ही में से एक सांसद ने सार्वजनिक की जिसके कारण दैनिकों में यह समाचार पढ़ने को मिला| परन्तु गृहमंत्री की अनुपस्थिति में बैठक की अध्यक्षता करने वाले सज्जन का यह कहना था कि सांसद महोदय ने रिपोर्ट सार्वजनिक करके अनुचित किया क्योंकि नियम यह है कि जब तक रिपोर्ट पटल पर रख नहीं दी जाती तब तक उसे या उससे सम्बंधित कोई भी सूचना गोपनीय होती है| अध्यक्ष महोदय का यह रवैया यहाँ पारंपरिक, संविधानसम्मत तथा अवश्यम्भावी है, लेकिन सांसदों तथा अन्य सदस्यों का यह रुख धर्मान्धता सहोदर अति नाटकीय और अतार्किक है| इस बात पर क्रोधित होना, विरोध करना या आपत्ति उठाना गलत नहीं है, लेकिन      आश्चर्य इस बात का है कि ये सदस्य समूचे सत्र भर क्या करते रहे जो इन्हें इसकी जानकारी भी नहीं थी कि उनके मंत्रालय के राजभाषा विभाग में अनुवादक नहीं हैं|
  क्या यह घटना सांसदों एवं समिति के सदस्यों के गैर-जिम्मेदाराना रवैये का सबूत नहीं है कि जब समय था तब उन्हें सुध लेकर कार्य की प्रगति जाननी चाहिए थी और ऐन बैठक के समय वे ऐसे बिफर पड़े जैसे कि बिना हिंदी के उन्हें कुछ समझ आ ही नहीं सकता| भाषा नीति के प्रति सांसदों और समिति-सदस्यों का इस प्रकार का रवैया समस्या को किसी निदान कि ओर नहीं ले जाता अपितु यह लोगों को भावनात्मक बनाकर ठीक वैसे ही ध्रुवित करता है जैसे पुरातनपंथी राजनीतिक दल सत्ता के लिए धर्मान्धता को आधार बनाते हैं| इससे जहाँ हम समस्या के मूल प्रश्न से भटकते हैं,वहीँ हम राजनीतिक दुरूपयोग के लिए धर्म की ही तरह भाषा की पहचान हथियार के रूप में नहीं कर पाते|    
  इस सन्दर्भ में यह समझ विकसित करना आवश्यक है कि मंत्रालयों के राजभाषा विभाग के अधिकारी अन्य व्यावसायिकों की तरह ही होते हैं| जिस प्रकार अन्य क्षेत्र के कर्मियों से अपने काम में त्रुटियों की संभावना होती है, ये लोग भी उसका अपवाद नहीं हैं| बल्कि सूक्ष्मता से अध्ययन किया जाए तो इन लोगों का काम भी कभी धन्यवाद पाने वालों की सूची में नहीं होता है| मीडिया तथा पत्र-पत्रिकाओं में कही भूल से भी इन लोगों की उपलब्धियों अथवा विभागीय पुरस्कारों से सम्बंधित समाचार नहीं होते| यहाँ तक कि सरकारी माध्यमों में भी इनकी ख़बरें पखवाड़ों तक ही सीमित कर दी जाती है| यह स्थिति तब है, जबकि कई मंत्रालयों के राजभाषा विभागों की अपनी पत्रिकाएँ प्रकाशित होती हैं | हिंदी के विद्यार्थियों तथा अनुसंधानकर्ताओं से यदि साहित्य की पत्रिकाओं के नाम पूछे जाते हैं, तो वे अपनी अद्यतन जानकारी का परिचय देते हुए उनके संपादकों के नाम भी तपाक से बता देते हैं, और उनमें प्रकाशित होने के लिए सोत्साह रचनाशील भी होते हैं | लेकिन यह भरपूर आश्वासन के साथ कहा जा सकता है कि यदि उनसे किसी एक भी ऐसी पत्रिका का नाम पूछा जाए जो किसी मंत्रालय के राजभाषा विभाग द्वारा प्रकाशित की जाती है,तो वे निश्चय ही अवाक रह जायेंगे| इसका कारण केवल अबोधता ही नहीं है, बल्कि वह नकारात्मकता भी है जो हमारे भाषिक वातावरण में अतिव्याप्त है| जो स्थिति क्रीड़ाजगत में क्रिकेट के बरक्स अन्य खेलों की है। लगभग वही हिंदी में साहित्यिक पत्रिकाओं और राजभाषा तथा हिंदी प्रचार-प्रसार पत्रिकाओं की है| हम यह जानते हैं कि हिंदी का पहला कवि, कथाकार, महाकाव्य आदि कौन हैं, यहाँ तक कि पहली पत्रिका, पत्रकार और ब्लॉगर कौन हैं या हो सकतें हैं, लेकिन शायद ही किसी को यह ज्ञात हो कि हमारे देश में हिंदी अथवा राजभाषा का पहला अधिकारी कौन था और उसकी कार्यपद्धति क्या थी? संभवतः यह उसी की देन हो कि आज हम कॉमनवेल्थ गेम्स को भी राष्ट्रमंडल खेल की संज्ञा, अपनी भाषा में दे सकते हैं |
  यह सब लिखने का तात्पर्य यही है कि यदि हम राजभाषा और उसके कार्यान्वयन को आज निकृष्टता से इस हद तक देखते हैं कि समिति के गैर सरकारी सदस्य भी इसे मुहावरे का स्वरुप देनें लगें तो यह समझना कठिन नहीं है कि वास्तव में इस विषय पर आवश्यक सकारात्मक कदम तथा सूक्ष्म पर्यवेक्षण दृष्टि की उपेक्षा हो रही है | इस निष्कर्ष पर तो हिंदीवाले ही वर्षों से पहुँचते आये हैं। हिंदी का सर्वाधिक अहित हिंदीवाले ही करते हैं और इस हद तक करते हैं कि उससे संसद, संविधान और स्वयं भाषा का अभूतपूर्व अपमान होता है| इसके साथ ही यह नसीहत भी अक्सर दी जाती है कि ऐसे पाखण्डों को तुरंत बंद कर देना चाहिए| एक ऐसी बैठक में, जिसमें स्वयं मंत्री महोदय अति व्यस्तताओं के कारण अनुपलब्ध हों और यह सारी घटना होने के बाद पाखण्ड उजागर करने तथा ‘जनता’ द्वारा सीधी कार्रवाई पर पर उतारू हो जाने की चेतावनी देनेवाले सदस्य यदि वास्तव में लज्जित और जागरूक महसूस कर रहें हैं तो क्यों नहीं अपनी सदस्यता से त्यागपत्र देकर रोष व्यक्त करतें हैं और जनता में शामिल होते हैं ! इस प्रकार उनकी असहमति और नाराज़गी दोनों ही ऐतिहासिक हो जायेंगे |
   परन्तु इससे भी कारगर विकल्प यह हो सकता है कि सही मायने में राजभाषा और उसकी परम्पराओं का प्रामाणिक अध्ययन किया जाए और यह मूल्यांकित किया जाए कि वास्तव में हिंदी के प्रचार-प्रसार तथा उसके कार्यान्वयन में कौन सी उपलब्धियाँ रही हैं और आज से उनका क्या सम्बन्ध है अथवा हो सकता है? इसके लिए आवश्यक है कि राजभाषा विभागों तथा अधिकारियों से मूलत: मित्रवत व्यवहार किया जाए, उन्हें यह विश्वास दिलाया जाए कि वे हिंदी को मुख्यधारा ही नहीं अपितु धाराओं में विकसित करने की क्षमता अर्जित कर सकते हैं तथा उन्हें राजभाषा की परम्परा के समृद्ध तथ्यों से भी अवगत कराया जाए या याद दिलाया जाए | यह समझना कठिन नहीं है कि इसके लिए ‘दिवस’ की मानसिकता से उबरना होगा और उसे सहज रूप से दैनंदिन कार्यवाही के उपयोग में लाना होगा | तभी एक सार्थक संवाद की पहल हो सकती है | प्रसंगवश, यह सूचित करते हुए अपार हर्ष का अनुभव हो रहा है कि अपने शोध-कार्य के दौरान एक साप्ताहिक पत्रिका के अंक में दो मंत्रालयों के राजभाषा विभाग के ऐसे विज्ञापन देखने को मिले जिनसे यह प्रमाणित होता है कि हिंदी और जनता के संबंधों को प्रोत्साहित करने में इस विभाग द्वारा महत्वपूर्ण काम किये गए हैं | पहला विज्ञापन पर्यावरण और वन मंत्रालय का था जिसमें पर्यावरण से सम्बंधित विषयों पर हिंदी में आलेख लिखने पर दस हज़ार रूपये का प्रथम पुरस्कार, सात हज़ार रूपये का द्वितीय पुरस्कार, पाँच हज़ार रूपये का तृतीय पुरस्कार तथा दो हज़ार रूपये के सांत्वना पुरस्कार देने की बात लिखी गयी थी | इसमें लेखकों से यह अपील की गयी थी कि वे प्रदूषण नियंत्रण, पुनर्जनन एवं विकास, वन्यजीव, पर्यावरण शिक्षा आदि विषयों पर लिख सकते हैं | इसी के साथ परमाणु ऊर्जा विभाग द्वारा परमाणु ऊर्जा पर हिंदी में लिखी गयी साल की सर्वश्रेष्ठ पुस्तक को “डॉ. होमी जहाँगीर भाभा पुरस्कार” प्रदान करने की सूचना एक अन्य विज्ञापन के माध्यम से मिली| इस योजना के अंतर्गत भी प्रथम पुरस्कार पन्द्रह हज़ार रूपये, द्वितीय दस हज़ार रूपये और तृतीय पचहत्तर सौ रूपये के लिए निर्धारित किये गए थे| ध्यातव्य है कि ये विज्ञापन सन् 1988 में प्रकाशित हुए थे और यह कहने की आवश्यकता नहीं है कि उस समय इस धनराशि का मूल्य निर्विवाद रूप से संतुष्टिजनक और सम्मानदायक रहा होगा| हाँ, इन विज्ञापनों में “कैलेंडर ईयर” के लिए कैलेंडर वर्ष शब्द का उपयोग किया गया है, जबकि इसकी जगह “तिथिपत्र वर्ष” अथवा “पंचांग वर्ष” शब्दों का उपयोग भी प्रचलन-प्रयोग के लिए किया जा सकता था | फिर भी, इससे यह स्पष्ट होता है कि हिंदी में लेखन को प्रोत्साहित करने के लिए सरकारें पूर्व नियोजित ढंग से नीतियों का निर्धारण और उनका पालन करती रही हैं| यदि आज से इस स्थिति की तुलना की जाए तो यह स्पष्ट होता है कि अब ऐसी योजनाएं लुप्तप्रायः हैं और दूसरा यह कि राजभाषा का पत्र-पत्रिकाओं से पहले जो सुद्ढ़ सम्बन्ध था वह अब नदारद है| इससे भी महत्वपूर्ण बात यह समझ आती है कि उक्त मंत्रालय अपने विषयों के अनुकूल हिंदी को विकसित करने और लोकव्यापी बनाने की सदेच्छा रखते थे| अन्य शब्दों में यह जनता की भाषा में नये विषयों को प्रस्तुत करने की वह प्रस्तावना थी जिससे शिक्षा में भी नवीन संस्कृतियों को संचारित करने की पहल की जा सके या कम से कम उसके  सशक्त आधार के निर्माण की नींव रखी जा सके | यहीं पर राजभाषा विभागों की यह सार्थकता समझ आती है कि वे विषय तथा पाठकों के बीच एक सम्प्रेषण - अभियंत्र का कार्य कर सकते हैं |  
                     (अरुणाकर पाण्डेय)
           

शनिवार, अक्तूबर 09, 2010

अपनी शिकस्त की आवाज

    हिन्दी सिनेमा के इतिहास में मीना कुमारी की छवि बेहद लोकप्रिय अभिनेत्री की है। अभिनय के क्षेत्र में जब कभी भी शिरमौर अभिनेत्री मधुबाला और नर्गिस का जिक्र होता है साथ में मीना कुमारी को याद किया जाता है। सिनेमा में स्त्री चरित्र को इन तीनों ने अपनी अभिनय क्षमता से अलग-अलग कोण और आयाम दिए। मीना कुमारी को तो सिनेमा ने ‘ट्रेजडी क्वीन’ के अलंकार से नवाजा। जितना दर्द उन्होंने फिल्मी किरेदार में उठाया उतना ही जीवन के यथार्थ में।
    मीना कुमारी के नज्मों में भी दर्द का यह दरिया बहता है। गुलजार कि माने तो वे फिल्मी चरित्रों के दर्द को भी ओढ़ लेती थी। यानी ‘एक अकेली मीना – मीना कुमारी। और उस अकेली शख्सियत में और कितनी सारी शख्सियतें, कितने सारे चेहरे ! जो चरित्र फिल्मों में अभिनीत किए, उनके चेहरे भी हमेशा के लिए ओढ़ लिए। फिर उन्हें उतारा नहीं। फिल्में खत्म हो गईं, लेकिन वे चरित्र हमेशा उनके साथ जिंदा रहे। कुछ चुने – चुनाए चेहरे आखिर तक उनके साथ थे’। मसलन बीबी, साहबजान, दीदी, मंजू, जानम, महजबीं आदि। यह कोई अनूठी विशेषता नहीं थी बल्कि मीना कुमारी की ट्रेजडी को अभिव्यक्त करती है। ये चरित्र उनके अकेलेपन के भीतर समा जाती थी। फिर वे उसे शायरी की शक्ल देती थी।
    फिल्मकार गुलजार द्वारा चयनित और संपादित पुस्तक ‘मीना कुमारी की शायरी’ का स्थायी भाव अकेलापन ही है। फिल्मी जीवन में अपार लोकप्रियता के बाद भी उनके निजी जीवन में बेहद अकेलापन था। कमाल अमरोही के साथ संबंध विच्छेद और प्रेम की रिक्तियां तथा असाध्य बीमारियों ने उन्हें घोर निराशा, उदासी, मायूसी और अकेलेपन की ओर ढकेल दिया। यह अकेलापन उनके नज्म, शेर, गजल और कतओं में सैलाब की तरह उमङते हैं। मसलन, ‘अकेलेपन के अंधेरे में दूर – दूर तलक / यह एक खौफ जी पे धुआं बनके छाया है...शाम का यह उदास सन्नाटा / धुंधलका, देख, बढ़ता जाता है’ या ‘न इंतजार, न आहट, न तमन्ना, न उम्मीद / जिन्दगी है कि यूं बेहिस हुई जाती है’।
   इस संग्रह में तन्हाई और मीना कुमारी पर्यायवाची की तरह इस्तेमाल हुए हैं। जीवन का यह यथार्थ लिपटा चला आया है। ‘जिस्म तन्हा है और जां तन्हा’। यहां तक कि हमसफर के साथ चलते हुए भी तन्हाई है। डर है कि कहीं प्रेम में मात न खा जाएं। यही तन्हाई बेचैनी के कारण बने हुए हैं। और, तङपता हुआ दिल जीवन का मेटाफर बन आया है। इसलिए ‘उदासियों ने मेरी आत्मा को घेरा है / रुपहली चांदनी है और चुप अंधेरा है’। अंधेरा और रात बार- बार दुख को घना करने आते हैं। लेकिन दर्द का सितम उफान पर आते ही रात तार – तार हो जाती है। ‘टुकङे – टुकङे दिन बीता / धज्जी – धज्जी रात मिली’।
   मीना कुमारी का दर्द लावारिशों, यतीमों की तरह भटकता रहा। जमाने से उन्हें नकली हमदर्दी और गम के सिवा कुछ न मिला। ‘खुदा के वास्ते गम को भी तुम न बहलाओ / इसे तो रहने दो, मेरा, यही तो मेरा है’। वे जमाने की वादाखिलाफी, फरेबी और तंगदिली को कुछ यों व्यक्त करती हैं – ‘रोते दिल हंसते चेहरों को कोई भी न देख सका / आंसू पी लेने का वादा, हां सबने हर बार किया’। उन्हें इस बात का भी मलाल है कि किसी की जिन्दगी बर्बाद हो जाती है, दिल तोङ दिया जाता है और कहीं से कोई आवाज नहीं उठती है। जमाने को कोई फर्क नहीं पङता है – ‘दिन डूबे हैं या डूबी बारात लिए कश्ती / साहिल पे मगर कोई कोहराम नहीं होता’। और तो और ‘किसी का दिल न टूटे और कोई आवाज न चटखे / मेरी यह बेकसी यारब, कयामत होती जाती है’।
   कई फिल्मकारों का निजी जीवन बेहद अकेलेपन में और गुमनाम बीता है। तालियों की गङगङाहट और ढलान के दिनों में अपने शरीर की छाया भी उन्हें भार मालूम पङने लगी थी। मीना कुमारी भी उन्हीं में से एक थी। ‘गम की तलाश’ में लिखती हैं – ‘यह सामने / गम ही का साया तो है / यह गम के कदमों की ही चाप है / जो चुपके – चुपके साथ चल रहा है’। कई बार उन्हें लगता है कि सब साथ छोङ गये मगर अपना साया ही है जो पहले भी साथ था अब भी है।
मीना कुमारी ने एक जीवन के भीतर कई जीवन जिया था। कई परतों में पसरा था उनका जीवन। ‘टूटे रिश्ते झूठे नाते’ में उसकी एक झलक यूं दिखती है – ‘इस दुनिया में कौन किसी का / झूठे सारे नाते / बस चलता तो / हम पहले ही इस दिल को समझाते / हम भी न समझे दिल भी न समझा / कैसी ठोकर खाई / अब हम हैं और जीते जी की / दर्द भरी तन्हाई’ तो दूसरी यूं – ‘मेरी रूह भी जला – ए – वतन हो गई / जिस्म सारा मेरा इक सेहन हो गया / कितना हलका सा, हलका – सा तन हो गया / जैसे शीशे का सारा बदन हो गया’।
  मीना कुमारी अपनी रचनाओं से अपना नया अक्सं छोङ जाती हैं। अपनी फिल्मी छवि से अलग छवि और पहचान बनाती हैं। पाठकों के लिए मीना कुमारी की यह दुनिया नई है। जिसमें ‘हर नुक्ते का सीना छलनी / हर लम्हे को जीना मरना’ है। अपनी ही ख्यालों के कैद में बंधी मीना कुमारी इस ख्वाहिश को बेपर्दा करती हैं कि ‘तू जो आ जाए तो इन जलती हुई आंखों को / तेरे होंठों के तले ढेर – सा आराम मिले’।
   प्यार की तलाश में भटकती ये रचनाएं दुखों का ऐसा महाख्यान रचती है जिसमें जीवन का अहसास, माजी का हाल, ख्बाबों की उङान और तितली की तरह फुर्र से उङते सुख, न कटने वाली अंधेरी रातें और जमाने की फरेबी चालें हैं, जो नियति की तरह जीवन के अंकुर पर कुंडली मार कर बैठ गई है।  
आइये उनकी कुछ रचनाओं से रु – ब – रु होते हैं –
                        ग़ज़ल
      टुकङे – टुकङे दिन बीता, धज्जी – धज्जी रात मिली
      जितना – जितना आंचल था, उतनी ही सौगात मिली
     
रिमझिम – रिमझिम बूंदों में, ज़हर भी है और अमृत भी
      आंखें हंस दी दिल रोया, यह अच्छी बरसात मिली

      जब चाहा दिल को समझें, हंसने की आवाज़ सुनी
      जैसे कोई कहता हो, ले फिर तुझको मात मिली

      मातें कैसी घातें क्या, चलते रहना आठ पहर
      दिल – सा साथी जब पाया, बेचैनी भी साथ मिली
      होंठों तक आते – आते, जाने कितने रूप भरे
जलती – बुझती आंखों में, सादा – सी जो बात मिली
 2
उदासियों ने मेरी आत्मा को घेरा है
रुपहली चांदनी है और धुप अंधेरा है
कहीं – कहीं कोई तारा कहीं – कहीं जुगनू
जो मेरी रात थी वह आपका सवेरा है

क़दम – क़दम पे बबूलों को तोङने जाएं
इधर से गुजरेगा तू, रास्ता यह तेरा है

उफ़क़ के पार जो देखी है रौशनी तुमने
वह रौशनी है ख़ुदा जाने या अंधेरा है

सहर से शाम हुई, शाम को यह रात मिली
हर एक रंग समय का बहुत घनेरा है 

ख़ुदा के वास्ते ग़म को भी तुम न बहलाओ
इसे तो रहने दो, मेरा, यही तो मेरा है 
             3
कोई चाहत है न ज़रुरत है
मौत क्या इतनी ख़ूबसूरत है

मौत की गोद मिल रही हो अगर
जागे रहने की क्या जरुरत है

ज़िन्दगी गढ़ के देख ली हमने
मिट्टी गारे की एक मूरत है

सारे चेहरे जमा हैं माज़ी के
मौत क्या दुल्हिनों के सूरत है
          4
साथी तेरा नाम अलग है
साथ हैं दोनों, साथ अलग हैं

आंख होंठ की बात समझ लो
दिन से जैसे रात अलग है

मुद्दत हो गई अब तो रोए
बरसों से बरसात अलग है  
पुस्तक – मीना कुमारी की शायरी
संपादक – गुलजार
प्रकाशक – हिन्द पाकेट बुक्स
दिल्ली – 3
मूल्य- 150 रुपये

                     (राजकुमार)



बुधवार, अक्तूबर 06, 2010

‘अधूरा इतिहास’

       अरुणाकर पाण्डेय युवा लेखक एवं समीक्षक हैं। गंभीरता के साथ – साथ भाषायी खिलंदङेपन में आपको महारत हासिल है। नयी विचार शैली और भाषा के नये प्रत्ययों का इस्तेमाल इनकी लेखनी में आसानी से पकङा जा सकता है। आपने पहले भी ‘अमरबेल’ के लिए कई रचनाएं भेजी हैं। इस बार ‘अधूरा इतिहास’ कविता----------

दो पुस्तकों के बीच
द्वन्द्वात्मक होता समय
बहता है कुछ इस तरह
कि साइबेरिया के पंछी
मौसम लौटने पर वापस न आयें
और हम सोचते रहें
उनके विस्थापन पर बार-बार !

हाथ में चाय का गिलास लिए
पूछते हैं पूर्वजों के संगी
चाँद से,
जो नहीं लगता बादशाह की
अंगूठी का नगीना
याकि सुलगती बीड़ी के आखिरी कश सरीखा

किन्तु लौट जाता है
वह भी
आज के दोस्त की तरह
अनुत्तरित
रोज़ सबेरे |
                                        


मंगलवार, अक्तूबर 05, 2010

“कुत्ता – 1”


पूर्व प्रधानमंत्री राजीव गांधी और तीन बार से लगातार किसी विरोध के कांग्रेस अध्यक्ष बन रही सोनिया गांधी  के सुपुत्र तथा राष्ट्रीय महासचिव राहुल गांधी ने मध्यप्रदेश में युवाओं को नसीहत देते हुए कहा है कि वे चमचागीरी छोङ दें साथ ही भाई – भतीजावाद भी। नेहरु खानदान के नये वारिश के मुंह से यह सुनकर आपको भी उतना ही अटपटा लगेगा, जितना मुझे। चमचागीरी और भाई – भतीजावाद तो कांग्रेस के पोर – पोर में लहू बनकर  तब से दौङ रहा है जब राष्ट्रपिता जिंदा थे। राष्ट्रपिता ने भले ही भाई – भतीजावाद नहीं किया लेकिन इतिहास बताता है कि इनकी वजह से उनके भी दामन पर झींटे पङे। आज जब वे जब चमचागीरी और भाई – भतीजावाद छोङने की बात कर रहे हैं तो ये शब्द बेहद शर्मिंदा महसूस कर रहे हैं। सच्चाई यह है कि कांग्रेस चमचों का वह अखाङा है जो रचनात्मकता की दृष्टि से मुर्दों का टीला नजर आता है। मंत्री से लेकर छुटभैये तक 10 जनपथ की चमचागीरी की प्रतिस्पर्धा में चारणों को मात कर रहे हैं। अगर राहुल गांधी चमचागीरी से इतने ही त्रस्त हैं तो होना यह चाहिए कि चमचागीरी का विरोध न कर चमचागीरी के स्रोत को बंद करें। उन तमाम रास्तों को भी जहां से चमचागीरी पनपती है। यह बात इंदिरा गांधी के शासनकाल में सर्वेश्वरदयाल सक्सेना ने “कुत्ता – 1” कविता में पहले ही संकेत कर दिया था। आप भी उसकी बानगी अमरबेल पर देखिए ---               

“कुत्ता – 1”

कुत्ते की दुम काट दो
दुम हिलाने का भाव
नहीं जाएगा ।

सभी कुत्तों की दुम काट दो
फिर भी
दुम हिलाने का भाव
नहीं जाएगा ।

क्योंकि कुत्ता
आदत से टुकङखोर है
तुम्हें टुकङखोरी के रास्ते
बंद करने होंगे ।    

रविवार, अक्तूबर 03, 2010

“राग डींग कल्याण”

      आज दिल्ली में कॉमनवेल्थ गेम का शुभारंभ हो रहा है। इस अवसर पर अमरबेल सर्वेश्वरदयाल सक्सेना की कविता “राग डींग कल्याण” पेश करता है-  


तेरी भैंस को डण्डा कब मारा
मैंने भैंस को डण्डा कब मारा!
     तेरी भैंस है प्रज्ञा पारमिता
     उसने मेरी खेती खाई थी।
     तेरी भैंस है जनता की प्रतिनिधि
     उसने मेरी छान गिरायी थी।
     तेरी भैंस ने खाया कामसूत्र
     तेरी भैंस ने खा डाली गीता
     तेरी भैंस से अब क्या शेष रहा
     तेरी भैंस से ही यह युग बीता
तेरी भैंस के संग सब भैंस हुए
तेरी भैंस के होवे पौबारा।
तेरी भैंस को डण्डा कब मारा?
मैंने भैंस को डण्डा कब मारा?
     तेरी भैंस का होगा अभिनन्दन
     तेरी भैंस का मैं करता वन्दन
     तेरी भैंस शांति की सूत्रधार
     तेरी भैंस आत्मा की क्रन्दन
     तेरी भैंस के पागुर में भविष्य
     तेरी भैंस के पागुर में अतीत
तेरी भैंस के आगे शीश झुका
तेरी भैंस सभी से रही जीत!
तेरी भैंस ही है मेरा जीवन
तेरी भैंस ही है मेरा नारा!
तेरी भैंस को डण्डा कब मारा?
मैंने भैंस को डण्डा कब मारा?
     तेरी भैंस के आगे बीन बजी
तेरी भैंस के आगे शहनाई
तेरी भैंस घुस गई संसद में
सब संविधान चट कर आयी
तेरी भैंस के भैंस में भैंस रहे
तेरी भैंस के भैंस में भैंस बहे
तेरी भैंस करे जो जी चाहे
तेरी भैंस से अब क्या कौन कहे?
तेरी भैंस मेरे सिर - माथे पर
तेरी भैंस पे यह तन – मन वारा!
तेरी भैंस को डण्डा कब मारा?
मैंने भैंस को डण्डा कब मारा?