शनिवार, दिसंबर 17, 2011

प्रागैतिहासिक उपनिवेशीकरण की दास्तां के बहाने

           
आधुनिक सभ्यता के विकास की गाथा लिखना एक तरह से साभ्यतिक इतिहास की बर्बर कथाओं को दोहराना है। सर्वशक्तिमान सत्तामूलक सांस्कृतिक हमलों के भीतर पैठ कर उसे उकेरना है। उन अनुभवों में लौटना है जो रक्तरंजित हैं। बर्बर हिंसा और खून के छींटें से भरे हैं। लैटिन अमेरिकी लेखकों में शुमार जानेमाने लेखक और नोबेल पुरस्कार से सम्मानित मारियो वार्गास ल्योसा ने इस किस्म का साहस किया है। उनने एल आब्लादोर / (द स्टोरीटेलर) / (किस्सागो) नामक अपने उपन्यास में न सिर्फ सिविलाइजेशन से संबंधित बहसों को नये ढंग से जन्म दिया है बल्कि पेरू के मूल और प्राचीन रहवासी माचीग्वेंगा आदिवासियों के बहाने वैश्विक सभ्यता की समीक्षा कर दी है।
आर्यों और अनार्यों की बहसें हमारे प्राचीन इतिहास के केंद्र में काफी जगहें घेरती है। जैसे आर्यों ने यहां के मूल निवासियों को बर्बर तरीके से कुचल कर एक  एक नयी सभ्यता की नींव रखी और आदिवासियों को हाशिए पर ढकेल दिया वैसे ही पेरू में सबकुछ घटित हुआ। मूल निवासियों की भाषा, संस्कृति, जीवन शैली, गीत – संगीत, धार्मिक और आस्थामूलक मान्यताओं, पुरातन तौर – तरीकों, प्रकृति के साथ सहकार जीवन आदि को कूचल कर नयी सभ्यता विकसित की गई।
मारियो वार्गास ल्योसा इस उपन्यास के बहाने परंपरा और आधुनिकता के द्वंद्व, सभ्य और असभ्य की वर्चस्वकारी सत्तामूलक संस्कृति, विकास बनाम पिछङापन का ज्वलंत वैश्विक सवाल उठाते हैं। सामाजिक गैर – बराबरी का प्रश्न भी। उनके जेहन में यह सवाल जिंदा हो उठी कि संस्कृति क्या है? क्या सभ्य बनाने के लिए परंपरागत संस्कृति को नष्ट कर देना जरुरी है? बर्बर कौन है? उपवनिवेशिकरण ने हमारे अस्तित्व के वजूद को कैसे निगल लिया है? क्या पिछङापन का सवाल गुलाम बनाने की रणनीति है? क्या मनुष्य को अधिकार है कि वे अपनी जरुरतों को के लिए प्रकृति का मनमाने तरीके से दोहन करें? आदिम सभ्यताओं को नष्ट करने में मिशनरियों, भाषाविदों, नृविज्ञानियों, नृतत्त्वशास्त्रियों, बुद्धिजीवियों आदि की भूमिका भी उतनी ही महत्वपूर्ण रही है जितनी सौदागरों और पूंजीपतियों की?
लैटिन अमेरिका ही नहीं अफ्रीका और एशियाई समाजों में भी जंगलों और प्रकृति की गोद में बसने वाले आदिवासियों को शताब्दियों से उजाङा जा रहा है। आज इसकी गति तेज हो गयी है। आधुनिक विकास, पश्चिम आधारित उत्तेजक जीवन शैली और अबाध गति से बहता विनाशाकारी चक्रवर्ती पूंजीवाद ने उनके अस्तित्व को ही खतरे में डाल दिया है। आदिम, बर्बर, असभ्य, जंगली, पिछङा कह कर इनकी आलोचना की जा रही है। भारत में उन्हें लगभग माओवादी करार दिया गया है। बंगाल, उङीसा, झारखंड, छतीसगढ़, मध्यप्रदेश एवं दक्षिण के राज्यों में इनसे जंगल और जमीन का हक विकास और प्रगति के नाम पर छीना जा रहा है। तथाकथित मुख्यधारा में जोङने के छलावे के नाम पर उन्हें अपनी संस्कृति और भाषा से अलग कर देने की साजिश रची जा रही है। शिक्षा और विकास के नाम पर उन्हें अपने जैसा बनने के लिए बाध्य किया जा रहा है। दुनिया के बङे – बङे कारपोरेट घराने, बहुराष्ट्रीय कंपनियों और सत्ता की दलाली करने वाले अंतर्राष्ट्रीय नेताओं और सौदागरों की मिलीभगत और लूटखसोट की वजह से विकास के बहाने जंगल और भूमि अधिग्रहण को अंजाम दिया जा रहा है। यह सब बेशकीमती उपजाऊ जमीनों को हङपने, इमारती लकङियों और प्राकृतिक खनिज पदार्थों को लूटने का उपक्रम है। आज भारत में टाटा के सिंगुर से लेकर पास्को, वेदांत आदि के विवाद को इस संदर्भ में देखा जा सकता है।
पिछले तीन दशकों में जब से आर्थिक उदारीकरण और मुक्त व्यापार का दौर शुरू हुआ, अफ्रीका और लैटिन अमेरिकी समाजों को तो लगभग नींबू की तरह निचोङ दिया गया। 80 का दशक तो अफ्रीका के इतिहास में बर्बादी के दशक के रूप में याद किया जाएगा। इसकी छवि तो ‘भूख से मरते लोगों के महाद्वीप’ के रूप में बन गयी है। व्यापारियों और कंपनियों को प्रोटेक्ट करनेवाली सरकारें (जो इस मुनाफाखोरी के हिस्सेदार है) यह सब इस दलील देकर कर रही है कि भूख और कुपोषण से मरने वाले बच्चों की संख्या सबसे ज्यादा आदिवासी और  पिछङे समाजों में है। शिक्षा न्यून स्तर पर है। स्वास्थ्य और प्रति व्यक्ति आय की स्थिति दयनीय है। लैटिन अमेरिकी समाजों में बेरोजगारी के आंकङे निर्रथक हो चुके हैं। उसे तो लगभग ‘चौथी दुनिया’ में तब्दील कर दिया गया है। यह सब एक साजिश के तहत उनके द्वारा हुआ, जो आरामदेह लक्जरी कारों और जहाजों में सैर करते हैं, टेनिस और रग्बी खेलते हैं, इंटरनेट इस्तेमाल करते हैं, मंहगी शराब और कोक पीते, हैमबर्गर और पिज्जा खाते हुए थ्री डी स्क्रीन पर कुपोषित बच्चे और जवान आदिवासी स्त्रियों के खुले वक्षस्थल देख खिलखिलाते हैं। पेरूवासियों की नजर में आदिवासी सामाजिक विद्रूप थे।
मारियो वार्गास ल्योसा ने लैटिन अमेरिकी देश पेरु के एक आदिवासी समूह माचीग्वेंगा को प्रातिनिधिकता देकर जो सवाल उठाये हैं वे बेहद महत्वपूर्ण हैं। ऐसा नहीं है कि आदिवासी समाज के भीतर मौजूद अंधविश्वास, टोने टोटके आदि को न्यायसंगत ही ठहराते हैं, दोषपूर्ण और विकलांग बच्चों को मार देने को जायज। लेकिन वे इस बात के पक्ष में नहीं हैं कि विकास और औद्योगिकरण के नाम पर उन्हें विस्थापित कर दिया जाए, उससे उसकी भाषा और संस्कृति छीन ली जाए। प्रकृति, पहाङ, जंगल और जमीन से उन्हें खदेङ दिया जाए। लेकिन ये सब पूरी दुनिया में हो रहा है। ल्योसा का यह उपन्यास बर्बाद हो चुके इन आदिवासी समाजों या कहें मिटने की दहलीज पर खङे लोगों के आर्त्तनाद को आवाज देने की कोशिश है। हाशिए पर खङे लोगों को सहानुभूति प्रदान करने की एक कोशिश है।
ल्योसा ने पूरा उपन्यास माचीग्वेंगा आदिवासियों के किस्सागो या कथावाचक (आब्लादोर) के माध्यम से कही है, जो लेखक की कल्पनाशीलता का जबरदस्त नमूना है। यह और बात है कि उपन्यास में शोध और अनुसंधान की महत्वपूर्ण भूमिका है। मिथक और प्रागैतिहासिकता आपस में घुले मिले हैं लेकिन 1950 के बाद के पेरू का यथार्थ ज्यादा भयावह रूप में उभरे हुए हैं। समसामयिक पूंजीवाद का विकृत चेहरा ही माचीग्वेंगा या कहें आदिवासियों की त्रासदी को ज्यादा गाढ़ा रंग देते हैं। यह उपन्यास कई स्तरों पर चलता है। लेखक खुद भी बतौर पात्र मौजूद है। वह अपने मित्र साउल सूयतास आब्लादोर से यूनिवर्सिटी में माचीग्वेंगा के अदभुत किस्से – कहानियां सुनाता है। ये कहानियां कई बार मार्केस की जादुई यथार्थ की याद दिला देते हैं। चांद - सूरज, जीवन - मरण, आस्था- विश्वास, रीति – रिवाज, प्रकृति – उत्पत्ति आदि की रहस्यात्मक – रोमांचकारी, अप्राकृतिक, अवास्तविक और अविश्वसनीय कथाओं की लयबद्ध शृंखलाएं भरी पङी है। कई बार ये कथाएं सहज और सरल लगती हैं हैं तो कई बार हॉरर क्रिएट करती चलती हैं।
पर्यावरण के साथ छेङछाङ का मुद्दा भी ल्योसा ने बहुत ही गंभीरता से उठाया है और वे कहीं भी फील नहीं होने देते की समसामयिक समस्याओं की तरफ सचेत कर रहे हैं। सबकुछ मिथकीय अंदाज में घटित होता है लेकिन प्रकृति की प्रतिक्रिया की भयावता और उसका कहर इशारे में सब कह जाता है। आदिम समाज के लोगों ने प्रकृति को उपनिवेश नहीं बनाया था। वे प्रकृति का दोहन नहीं करते थे। उसकी अनिवार्यता को समझते थे। उनमें सहजीवन का भाव था। जो लोग ऐसा करते थे उन्हें सजा दी जाती थी या जब कभी प्रकृति अपना रौद्र रूप धारण करती थी तो वे उससे सीख लेते थे और जीवन फिर संतुलन की राह पर दौङता था। लेकिन आज प्रकृति और पर्यावरण की बगैर परवाह किए उसका दोहन किया जा रहा है। उसे उपनिवेश बना लिया गया है जिससे उत्पन्न होने वाले खतरे और परिणाम बीच – बीच में कथावाचक और लेखक के संवाद में झांकता है।  
मारिया वार्गास ल्योसा का यह उपन्यास आदिवासी समाज के बहाने हाशिए के लोगों के साथ किए जाने वाले सामाजिक गैर बराबरी, शोषण, उत्पीङन के साथ – साथ भूमि अधिग्रहण, पर्यावरण के संकट को उठा वर्त्तमान दौर में अपनी प्रासंगिकता एवं महत्व को सिद्ध करता है। खासकर वर्त्तमान हिन्दुस्तान में।        
पुस्तक – किस्सागो
लेखक – मारियो वार्गास ल्योसा
अनुवाद – शंपा शाह
प्रकाशक – राजकमल प्रकाशन, दिल्ली
मूल्य – 195 रुपये

  



जातिवाद के उलझे सवाल

      कुलदीप कुमार का लेख “जात ही पूछो साधु की” (जनसता, 6 नवम्बर, 2011) कई चुनौतिपूर्ण सवालों, निष्कर्षों के अलावा बेहद भ्रामक और अतार्किक हैं। उन्होंने कई सवाल उठाये हैं जिनमें से कुछ सवाल यहां रखे जा रहे हैं। पहला, क्या नाम के साथ जातिसूचक पद इस्तेमाल से कोई जातिवादी हो जाता है? दूसरा, प्रेमचंद के लेखन या कहें लेखक की जाति और उसकी रचना के बीच कोई संबंध नहीं है। तीसरा, आजादी के बाद दलित – पिछङे नेताओं ने जाति की समस्या को सुलझाया नहीं। चौथा, जाति (वाद) के प्रश्न को सामाजिक न्याय से न जोङा जाए। पांचवा, दलित समस्या और स्वअर्जित संवेदना को वही समझते हैं इसलिए दलित नेता और बुद्धिजीवियों की जिम्मेदारी है कि वही इसे सुलझाएं या आक्रोश को दिशा दें।
कुलदीप कुमार द्वारा उठाये गये तमाम सवालों का यहां जबाब देना मुश्किल है लेकिन जिन अनिवार्य प्रश्नों को उन्होंने उलझा छोङा है उस पर विचार करना जरूरी है, क्योंकि आये दिन दलित – आदिवासी और पिछङी जातियां न सिर्फ उस अपमान को जीते और बर्दाशत करते हैं - जो लोकतांत्रिक और सामाजिक पद्धितियों - संस्थाओं में घटित होते हैं बल्कि उन अवसरों से भी वंचित हो जाते हैं जिन्हें वे श्रम और मेधा से हासिल कर सकते थे। दूसरे, वे आरक्षण के सवाल पर बिल्कुल खामोश हैं, जिसे सामाजिक न्याय के रूप में सामने रखा गया है। और पिछले कुछ वर्षों में हमारी सामाजिक – राजनीतिक और न्यायायिक व्यवस्था इससे टकराती रही है। कुलदीप कुमार के लिए सामाजिक न्याय का अर्थ सिर्फ ‘जाति तोङो’ से है, और जाति के आधार पर सामाजिक - राजनीतिक - आर्थिक फैसले न लेने से है। निश्चय ही यह आदर्शवादी – नैतिक सुझाव है। लेकिन उनके इस ‘आदर्शवादी – नैतिक’ सुझाव की धज्जियां उनके ही उदाहरण उङाते हैं। मद्रास हाईकोर्ट के न्यायाधीश सीएस करणन ने एस सी / एस टी आयोग को शिकायत की है कि दलित होने के कारण उनके और उन जैसे अन्य न्यायाधीश के साथ सवर्ण न्यायाधीश अपमानजनक व्यवहार करते हैं। अब कुलदीप कुमार से पूछा जा सकता है कि क्या इसका समाधान सिर्फ कानूनी होगा या सामाजिक – राजनीतिक भी? यूं तो संवैधानिक – कानूनी संस्थाओं का निर्माण भी सामाजिक - राजनीतिक फैसलों के आधार पर हुए हैं। कानूनविदों की कमी देश में तब भी कम नहीं थी लेकिन आम्बेडकर को संविधान निर्माण का जिम्मा इसलिए दिया गया था क्योंकि वे दलितों – वंचितों के साथ ज्यादा न्याय कर सकते थे, उनकी तुलना में जिसने जातिगत अपमान को न सहा हो।
फर्ज करें अपमान करने वाले उच्च जाति से संबंधित वे न्यायाधीश सर्वोच्चय न्यायालय में नियुक्ति के लिए साक्षात्कार लें रहे हों। क्या उस स्थिति में सीएस करणन या उन जैसे दलित जाति से आने वाले न्यायाधीश का चुनाव होगा? क्या साक्षात्कार निष्पक्ष तरीके से लिया जायेगा? क्या दलित जाति से आने वाले प्रत्याशियों को साक्षात्कार में अपमान किया जायेगा या नहीं? योग्यता के पैमाने जातियां बनेंगी या नहीं? ऐसी अन्यायपूर्ण सामाजिक व्यवस्था में आरक्षण को सामाजिक न्याय क्यों नहीं माना जाए। क्या जाति व्यवस्था को तोङना इतना आसान है? जैसा कि कुलदीप कुमार परिभाषित कर रहे हैं अगर यह नहीं टूटा तो हमारे समाज और देश में सामाजिक न्याय आयेगा ही नहीं? हजारों वर्षों में यह नहीं टूटा, इसका यह मतलब तो नहीं कि लोकतांत्रिक व्यवस्था ने दलितों – पिछ्ङों को सामाजिक न्याय के नाम पर कुछ दिया ही नहीं? या जो कुछ उन्हें मिला या सुविधाएं दी गई उसे जातिवादी कहना कहां तक उचित है? आरक्षण सामाजिक न्याय नहीं है तो भला क्या है?
दूसरी बात, जातिवादी मानसिकता से ग्रस्त वे न्यायाधीश जो अपने सहयोगियों को अपमानित करते हैं - न्यायायिक फैसले में जातिवादी पूर्वाग्रह से काम नहीं चलाते होंगे इसकी क्या गारंटी है? आखिर इसकी जांच पङताल कैसे संभव होगी? क्या उन न्यायाधीशों के संदर्भ में कहा जा सकता है – ‘जाति न पूछो साधु की’? क्या यह मसला सिर्फ एस.सी. / एस.टी आयोग का है या भारतीय सामाजिक व्यवस्था के भीतर निरंतरता में जीवित जातिवादी अत्याचार और दुर्दांत दमनकारी हॉररकी की? क्या यह ट्रीटमेंट न्यायाधीश करणन या उन जैसों के आत्मसम्मान और स्वाभिमान को ठेस पहुंचाना नहीं है? मानवीय गरिमा और मनुष्यता के अपहरण का नहीं है? उनके समूचे सामाजिक – सांस्कृतिक – शैक्षणिक अस्तित्व को नकारना नहीं है? क्या इसे सामाजिक - राजनीतिक – कानूनी दबाब के बगैर ठीक किया जा सकता है? ऐसा नहीं है कि यह एकमात्र उदाहरण है, बल्कि पूरी भारतीय लोकतांत्रिक व्यवस्था एवं सामाजिक संरचना में पसरी पङी है। इतनी गंभीर और जटिल समस्यामूलक स्थिति में कुलदीप कुमार का यह सुझाव कि दलित नेताओं को अपने आक्रोश सही दिशा में लगाना हास्यास्पद और अतार्किक नहीं तो क्या हैं? हमें यह ध्यान रखना चाहिए कि अधिनायकवादी - वर्चस्वकारी शक्ति – समुच्चयों के द्वारा लिए लिये गये सामाजिक – आर्थिक – राजनीतिक वर्णगत / जातिगत फैसले जातिवादी और अन्यायकारी हो सकते हैं लेकिन दबे – कुचले, अपमानित और हाशिये पर फेंक दिये गये लोगों के लिए जाति के आधार पर लिये गये फैसले न्यायसंगत, मंगलकारी, अवसरौचित्यता को ठहराने वाले हो सकते हैं।
जातिसूचक संज्ञाओं के हटाने से जातिवाद समाप्त नहीं होगा। यह तर्क बहुत पुराना और बासी हो चुका है। इन तर्कों के सहारे वे कोई नई बात भी नहीं कह रहे। प्रेमचंद से लेकर लोहिया तक ने इस बारे में सुझाव दिया था। यहां तक कि लोहिया – जेपी से प्रभावित दर्जनों लेखकों – चिंतकों - पत्रकारों – समाजसेवियों ने अपने नाम के साथ जातिसूचक संज्ञाओं को हटाया। लेकिन इससे न तो जातिवाद मिटा, न ही उस आंदोलन का कोई व्यापक असर समाज पर पङा। आजादी पूर्व (और बाद में भी) यह प्रयोग दूसरे रूप में अपनाया गया। दलित और पिछङी जाति के लोगों ने सवर्ण जाति के साथ लगने वाले जातिसूचक संज्ञाओं को अपने नाम के साथ जोङ लिया। ताकि वे रोजमर्रा के जातिगत अपमान से बच सकें। लेकिन क्या इससे उनके जीवन और समाज पर फर्क क्या पङा? कंफूजन क्रिएट करना जातिवाद को तोङना नहीं है। न ही यह प्रगतिशीलता की निशानी है। उससे उस स्वाभिमान को भी हासिल नहीं किया जा सकता जो उच्च वर्ग को सुलभ है। मस्तराम कपूर ने भी इस आलेख के प्रतिउत्तर में (8 नवम्बर, 2011 जनसत्ता) चौपाल में लिखा है – ‘नाम के साथ जातिवाचक शब्द न जोङना महत्वहीन है। बल्कि सवर्णों के नाम के साथ जातिवाचक शब्द न जोङना पाखंड ही बन जाता है, क्योंकि यह समाज में सवर्णों के वर्चस्व के सच पर परदा डालने की कोशिश होता है’।
जातिप्रथा के विनाश पर पहले ही बहुत लिखा जा चुका है। कुलदीप कुमार का यह कहना कि जाति के आधार पर किसी को श्रेष्ठतर और हीनतर न मानना जातिवाद तोङना है। बहुत ही उचित है। लेकिन क्या यह एक सिद्धांत कथन से ज्यादा है? जब कभी भी हम जातिवाद पर बहस करते हैं ऐसी बातों को दोहराते हैं, लेकिन व्यवहारिक स्तर पर यह छोटा साबित हो जाता है। गांधी, आम्बेडकर, लोहिया आदि ने कई रास्ते सुझाए हैं जिनमें अंतर्जातीय भोज, अंतर्जातीय विवाह, जमीन का उचित बंटवारा, समाज का वर्गीय आधार तय करना, जातिवार जनगणना आदि हैं। गांधी का कहना था कि उच्च जाति के लोगों को दलित बस्तियों में जाकर जीवनयापन करना चाहिए ताकि उनके दुख, दर्द, पीङा, अपमान और अभाव को अनुभूत कर सकें और सच्चे मन से उसे सुलझा सकें। यही रास्ता उन्हें संवेदनशील और करुणा संपन्न बनाता और यही जातिविनाशक रास्ता बनता। यूं तो ‘आदर्शवादी कायांतरण’ के इस सिद्धांत पर आम्बेडकर को भी संदेह था लेकिन आजादी के बाद तत्कालीन सरकार और उसकी नीतियों ने इसे आदर्शवादी सिद्धांत कथन साबित कर दिया। आंकङे और सामाजिक अनुभव बताते हैं कि जितने भी सामूहिक अंतर्जातीय भोज संपन्न कराये गए वे उच्च जातियों की तरफ से आयोजित थे और दलित उसमें शामिल थे। आदर्श स्थिति तब मानी जाती जब दलितों के द्वारा आयोजित भोज में उच्च जाति के लोग शामिल होते। या मलिन बस्ती में उनके साथ रात गुजारते। लेकिन यह व्यवहारिक स्तर पर घटित नहीं हुआ। और तो और आये दिन दिखाई – सुनाई पङता है कि स्कूलों में दलितों के द्वारा खाना बनाने पर उसे उत्पीङित किया गया या सामूहिक बहिष्कार। ऐसी तमाम तरह की सामाजिक समस्या को सुलझाने की जबाबदेही सिर्फ दलित नेताओं और बुद्धिजीवियों की ही नहीं बल्कि समाज के सभी तबकों का है। चाहे वह किसी वर्ग या जाति से आता हो।
रेणु ने मैला आंचल में बहुत ही यथार्थ कथन किया है – “जात - पात नहीं मानने वालों की भी जाति होती है”। जातिसूचक संज्ञा पांडे, चतुर्वेदी, सिंह, शर्मा, अग्रवाल, गुप्ता, यादव, पटेल आदि लगायें या हटायें यह उतना महत्वपूर्ण नहीं है जितना व्यवहारिक स्तर पर जातिवादी मानसिकता, दुर्भावना आदि से काम न करना और लोहिया की तर्ज पर कहें तो दलितों के साथ ‘रोटी – बेटी’ का संबंध जोङना। कुछ अपवादों को छोङ व्यापक समाजिक दायरे में ऐसा घटित होता नहीं है। बुद्धिजीवियों के भीतर व्याप्त इस छदम को रघुवीर सहाय ने पकङ लिया था - “...बनिया बनिया रहे / बाम्हन बाम्हन और कायथ कायथ रहे / पर जब कविता लिखे तो आधुनिक / हो जाए...”। हमें और हमारे समाज को इन्हीं दुचित्तापन से बचने और बचाने की जरुरत है। अन्यथा हम जातिवाद के सवाल से लङ नहीं सकेंगें। 

भारतीयता को समृद्ध करते शोध

                
भारतीय समाज कई विदेशी हमलों से लहूलुहान हुआ। राजनीतिक और सैनिक हमलों के अलावा इसने सांस्कृतिक हमले को भी सहा। प्रतिरोध और सांस्कृतिक समन्वय का क्रम भी हमेशा चलता रहा है। उसमें मुस्लिम आक्रांताओं के हमले भी शामिल रहे हैं। लेकिन हजार वर्ष बाद अब भी भारत में मुसलमानों के आगमन और स्थायित्व को लेकर जब – तब कुछ राजनीतिक पार्टियां या ग्रूप की दृष्टि संदेहास्पद बनी रही है। क्षेत्र विशेष में तनाव, सांप्रदायिक दंगे, धार्मिक अलगाव और सामाजिक जीवन में उनसे दूरी के इतिहास भी इस बात की पुष्टि करते हैं। ऐसे राजनीतिक वक्तव्य भी सार्वजनिक जीवन में जब – तब सुनाई पङते रहते हैं कि ये विदेशी हमलावर हैं। राष्ट्रदोही हैं। हजार वर्ष पूर्व की इन घटनाओं और सच्चाईयों को इतिहास अनदेखा नहीं करता है, लेकिन समस्या तब उत्पन्न होती है जब उनकी राष्ट्रीयता, मातृभक्ति और सामाजिक – धार्मिक जीवनशैली को संदेह की दृष्टि से देखा जाता है। उनकी ‘भारतीयता’ पर प्रश्नचिह्न लगाये जाते हैं। भिन्नता प्रदर्शित करते हुए उन्हें दूसरे दर्जे का नागरिक साबित करने की छलपूर्ण रणनीतिक प्रयास किये जाते हैं। उनके अवदानों को विस्मृत करने और धूंधलके में ढकेलने के लिए ढ़ोंगपूर्ण नटशैली अपनायी जाती है तथा भारतीयता को ऐसे परिभाषित किया जाता है जैसे उसकी एकरेखिय अविच्छिन्न परंपरा रही हो। उसमें कभी टूट पैदा नहीं हुई। टूट की जबाबदेही तो मुसलमानों के मथ्थे मढ़ा जाता है लेकिन उनके अवदानों, सांस्कृतिक बहुलता, बहुवचनता को हाशिए पर ढकेल दिया जाता है।
ऐसे में इन बिन्दुओं पर विचार – पुनर्विचार की जरुरत पङती रहती है। जाफ़र रज़ा की शोधात्मक पुस्तक “भारतीय साहित्य में मुसलमानों का अवदान” एक किस्म से सांस्कृतिक पहलुओं पर पुनर्विचार ही हैं। यहां इतिहासकार ताराचंद को याद करना बेहद जरुरी लगता है जिनका ‘इंफ्लूएंस ऑफ इस्लाम ऑन इंडियन कल्चर’ इतिहास ग्रंथ अब भी मील का पत्थर माना जाता है। हालांकि इस दिशा में और भी गंभीर और उल्लेखनीय काम हुए हैं। लेकिन इससे रज़ा की इस पुस्तक का मह्त्व कम नहीं हो जाता। इन्होंने यह काम अपने हाथ में तब लिया जब बाबरी ध्वंस के बाद अवाम सांप्रदायिक दंगों की चपेट में झुलस रहा था।
यह पुस्तक भारतीयता – राष्ट्रीयता की संकीर्ण सोच के खिलाफ एक सांस्कृतिक प्रतिरोध की तरह है। छह अध्यायों में विभक्त शोध ग्रंथ हिन्दुस्तान की तमाम क्लासिकल और प्रांतीय भाषाओं में मुसलमानों के उल्लेखनीय अवदानों की चर्चा करता है। भाषा और लिपि की समस्याओं एवं ऐतिहासिक चरणों व विवादों से भी रु-ब-रु होने की कोशिश करता है। लेकिन विषय की जटिलता और व्यापकता ही पुस्तक की कमजोरी बनती है। अंतत: पुस्तक सूचनाओं और नामोल्लेख का मलबा साबित होता है। विवेचन, विश्लेषण एवं ठोस आलोचनात्मक स्थितियों का सामना लेखक नहीं करता है, लेकिन बिल्कुल अभाव भी नहीं कहा जा सकता है।
जाफ़र रज़ा संकेत करते हैं कि भारतीय मुसलमान इस्लामी कानून और शरीअत के मुताबिक ही जीवन नहीं जीता है। वह मुस्लिम शासकों और आक्रांताओं का अनुयायी नहीं है। इस्लामी साम्राज्यवाद के आधार पर न तो इसे समझा जा सकता है न परिभाषित किया जा सकता है। आम भारतीय मुसलमानों के व्यक्तित्व और व्यवहार को उसके साथ जोङकर देखना असंगत है। उन्हें लगता है कि जब कभी भी उनकी उपलब्धियों की चर्चा की जाती है सूफ़ियों और शियों को अलगा दिया जाता है। सब सुन्नियों के खाते में डाल दिया जाता है। बेहतर होता कि इनके साथ वहाबियों, देवबंदियों, बरौलियों, मुक़ल्लिदों आदि समूहों की चर्चा भी की जाती। उसके भीतर – बाहर आये परिवर्त्तनों से बनने वाले मानस का उल्लेख किया जाना जरुरी है। वे मानते हैं कि भारतीय जनमानस का शिक्षा, वातावरण, संस्कार सब एक है। अशोक से लेकर अकबर तक के साम्राज्य टूटते – बनते रहे हैं इसलिए भारतीयता की कोई एक निश्चित परिभाषा नहीं गढ़ी जा सकती। “विभिन्न धार्मिक विश्वास, विभिन्न सांस्कृतिक कार्य – कलाप को मिलाकर जो वस्तु बनी है, उसको भारतीयता माननी चाहिए”।
हिन्दी – उर्दू भाषा के उदगम एवं विकास की चर्चा करते हुए कहते हैं कि भारत में मुसलमान मात्र शासक के रूप में नहीं थे। वह भारतीय जीवन में इस प्रकार रच बस गये थे कि भारतीय जीवन – पद्धति, परंपरा एवं विश्वास, रस्म रिवाज सभी में भागीदार थे। इसलिए जब आक्रमणों एवं युद्धों की धूल छंटी, तो ह्रदय में स्नेह – स्त्रोत बह निकला, जिसका प्रभाव ललित कलाओं के विभिन्न क्षेत्रों में स्पष्ट दिखाई देता था। दिलबर बेसुवा भारतीय चौसर खेलती है। ‘मजहबे इश्क’ में ब्राह्मण तथा सिंह की कथा पंचतंत्र से उद्धृत है। ‘गुलबकावली’ में शिखंडी का जिक्र है। वे अरबी- फारसी शब्दों से निर्मित होने वाले हिन्दी व्याकरण की चर्चा ही नहीं करते बल्कि उदाहरणों से दिखाते हैं कि हिन्दू – मुस्लिम भाषा और संस्कृति मिलकर एक नया व्याकरण ही खङा कर देते हैं। शब्द संपदा को समृद्ध कर देते हैं। ध्वनियों में परिवर्त्तन उपस्थित कर देते हैं। शब्दों और विन्यासों की एक रोचक दुनिया रच देते हैं। क्या यह सांस्कृतिक समन्वय और आपसी मेलजोल के बगैर संभव था? भाषिक आधार पर तो बिल्कुल ही भेदभाव नहीं था। यह और बात है कि शुद्धता के आग्रही तो हर दौर में रहे हैं। हालांकि हिन्दी में सर्वाधिक शब्द अरबी – फारसी के हैं।
रज़ा हिन्दी, उर्दू, कश्मीरी, बलती, शीना, ब्रोशस्की, खोवार, डोगरी, नेपाली, तमिल, तेलुगू, कन्नङ, मलयालम, बंगला, उङिया, असमिया, मणिपुरी, पंजाबी, सिन्धी, हिन्दको, बलूची, सरायकी, पश्तो, कोंकणी, मराठी, गुजराती के अलावा क्लासिकी भाषाएं संस्कृत, अरबी, फारसी में मुसलमान कवियों, लेखकों आदि की महत्वपूर्ण और उल्लेखनीय रचनाओं का जिक्र करते हैं। हिन्दी कवियों - संतों में हमीउद्दीन नगौरी, अब्दूल रहमान, अमीर खुसरो, कबीर, जायसी से लेकर आज के लेखक असगर वजाहत, अब्दुल बिस्मिल्लाह, मंजूर एहतेशाम, नासिरा शर्मा आदि का भी जिक्र करते हैं। बंगला में नजरुल को पुनर्जागरण के प्रणेता पुरुष के तौर पर याद करते हैं। उर्दू साहित्य का पूरा भंडार ही मुस्लिम कवियों से भरा है।
भारतीय भाषाओं में मुसलमान कवियों – लेखकों के अपार योगदान ने देश की न सिर्फ भौगोलिक सीमाओं को मिटा दिया है बल्कि सांस्कृतिक विविधता, एकता और बहुरंगिनियों की छटाओं से समृद्ध किया है। रज़ा की पुस्तक इन विशेषताओं के उदघाटन के अलावा आगामी शोध के लिए संदर्भ ग्रंथ के रूप में भी स्थान पाएगी।       
पुस्तक – भारतीय साहित्य में मुसलमानों का अवदान
लेखक – जाफ़र रज़ा
प्रकाशक – लोकभारती प्रकाशन, इलाहाबाद
मूल्य – 375 रुपये

    

शनिवार, अगस्त 13, 2011

जादुई यथार्थ का महानायक

      अपने जादुई यथार्थवाद से चमत्कृत करने वाले नोबेल पुरस्कार से सम्मानित विश्व प्रसिद्ध लेखक गाब्रिएल गार्सीया मार्केस हिन्दी पाठकों के लिए अनजान नहीं हैं। लेकिन हिन्दी में उनकी रचनाओं या उन पर लिखी आलोचनात्मक पुस्तकों का अभाव सा रहा है। तब जबकि दुनिया की अन्य भाषाओं में मार्केस की रचनाओं का अनुवाद एक आंदोलन की तरह प्रकाशित की जाती रही है। प्रभात रंजन ने मार्केस की रचनात्मक उपस्थिति, यायावरी जीवन संघर्ष, पत्रकारीय जीवन के साथ – साथ लगभग उनकी जीवनी का बहुलांश ही ‘मार्केस की कहानी’ में लिख दिया है।
मार्केस से संदर्भित हिन्दी में यह एक ऐसी मुक्कमल पुस्तक है, जो न सिर्फ उसके लेखन को समेटता है बल्कि उसके बचपन, शिक्षा – दीक्षा, कैरियर, पत्रकार के रूप में संघर्ष और पहचान, महान लेखक बनने के लिए देखे जाने वाले सपने और उसके भीतर चल रही सृजनात्मक कशमकश तथा संघर्ष, एक सफल लेखक का जीवन और लेखन, पसंद – नापसंद सबको दर्ज करता है। यहां तक कि उनके जीवन में औरतों की भूमिका का भी जिक्र है जो कि हिन्दी के पाठकों के लिए अलग अनुभव और दृष्टि साबित होंगी। अमूमन हिन्दी में स्त्री पात्रों पर लेखन होता रहा है लेकिन लेखक के जीवन में कितनी प्रेमिकाएं और पत्नियां आयीं स्वतंत्र लेख के रूप में जिक्र नहीं मिलता है। प्रभात रंजन ने मार्केस की लिखी आत्मकथा, उपन्यास, कहानियां, अन्य रचनाएं, साक्षात्कार के अलावा उन पर लिखी गेराल्ड मार्टिन की जीवनी – लेख आदि का भी सहारा लिया है। 
प्रभात शुरुआत में ही यह प्रश्न उठाते हैं कि उनके साहित्य की रहस्यमयी, लगभग अविश्वसनीय – सी दिखाई देने वाली इस दुनिया की कोई वास्तविकता है भी क्या या सब कुछ महज फंतासी है? फिर इस प्रश्न का पीछा करते हुए उसके वास्तविक जीवन में प्रवेश करते हैं। जहां मार्केस का बचपन रहस्य, रोमांच, जादुई कथाएं, फंतासी और ठोस सच्चाइयां है। एक तरफ हंसता – मुस्कुराता जीवन के भरपूर रंगों में सना जीवंत कोलम्बिया का अराकाटक शहर है तो दूसरी तरफ उसका उजाङ – वियावान डराबनी सूरत। एक तरफ अराकाटक का उत्कर्ष तो दूसरी तरफ उसका पतन।
एक तरफ नाना कर्नल निकोलस का हीरोइक यथार्थवादी, बहादुर और बेखौफ जीवन है तो दूसरी तरफ नानी की रहस्यमयी दुनिया। एक तरफ उसे नाना से  युद्धों, कब्जों, लङाइयों, घायलों और कब्रिस्तानों की कहानियां सुनने को मिलती है तो दूसरी तरफ नानी से भूत – प्रेत, अलौकिक किस्सों - कहानियों और मृतकों की कथाएं। प्रभात मार्केस के हवाले से लिखते हैं कि नाना – नानी की दो भिन्न संसारों की यथार्थवादी और जादुई छवियां ही उनकी ज्यादातर रचनाओं में अभिव्यक्त हुई है। तर्क और विश्वास का द्वंद्व ही उनकी रचनाओं की प्राणशक्ति है। वास्तविक और अवास्तविक का मिलन ही उपत्यका है।
‘लीफ स्टॉर्म’ और ‘वन हंड्रेड ईयर्स ऑफ सॉलीट्यूड’ में अराकाटक शहर का ही उत्थान और पतन दर्ज है। वन हंड्रेड... में मकोन्दों शहर अराकाटक की जगह आया है जो सारे लैटिन अमेरिका का रूपक बन हुआ है। प्रभात इस बात को भी रेखांकित करते हैं कि दोनों रचनाओं में अराकाटक एक तरह से अभिव्यक्त नहीं हुआ है। बल्कि दोनों के अफसाने जुदा – जुदा हैं। लेकिन मार्केस ने कोलम्बिया के इस शहर को ऐसा रचा कि नामालूम सा शहर अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर अपनी पहचान बना गया। ऐसा शायद ही देखने को मिलता है कि लेखक की वजह से शहर अपनी पहचान बनाता है।
मार्केस का बचपन अपने नाना के यहां बीता। अराकाटक में। जो कि केले के व्यापार के लिए प्रसिद्ध था। बहुराष्ट्रीय निगमों के कारण यहां की दुनिया रंगीन और उत्कर्ष पर थी। युनाइटेड फ्रूट कंपनी के जाने के साथ ही शहर का रौनक चला गया। नाना की जिंदादिल हीरोइक आबाद दुनिया भी। नाना के मरने के वर्षों बाद जब मां के साथ मार्केस उस हवेली को बेचने आया था तो देख कर दंग रह गया कि चमकता – दमकता यह शहर सूखे पत्ते की खङखङ में बदल चुका है। जहां जोश से भरा जीवन था वहां अब वीरानी थी। उसी उत्थान – पतन और बर्बादी के फसाने को मार्केस ने अपनी रचनाओं में दर्ज किया है। पहला उपन्यास ‘लीफ स्टॉर्म’ उसी से संबंधित है। ‘वन हंड्रेड ईयर्स ऑफ सॉलीट्यूड’ में उसी का चरम दर्ज है।
‘वन हंड्रेड ईयर्स ऑफ सॉलीट्यूड’ मार्केस की रचनात्मकता का ही नहीं बल्कि लैटिन अमेरिकी लेखक की रचनात्मकता की श्रेष्ठ उपलब्धि है। यही उनकी ख्याति का आधार। यह तो मार्केस को भी आभास था कि यही रचना गुमनामी के अंधेरे से बाहर निकालेगा। प्रभात रंजन ने मार्केस के इस उपन्यास पर स्वतंत्र लेख लिखा है। जिसमें उन्होंने लेखन की शुरुआत, कठिनाई, प्रकाशन, अनुवाद से लेकर बेस्ट सेलर होने और श्रेष्ठ विश्व प्रसिद्ध लेखक होने तक की कथा को दर्ज किया है। रचनात्मक प्रक्रिया के अलावा जादुई यथार्थवाद को समझने – समझाने और उसकी प्रविधि को भी दर्ज किया है। प्रभात लिखते हैं – इस उपन्यास ने मार्केस नामक लेखक की तस्वीर नहीं बदली उसने विश्व साहित्य का मानचित्र बदल दिया। इस उपन्यास ने इतनी बङी विभाजक रेखा खींची इससे पहले किसी गैर – यूरोपीय लेखक ने नहीं खींची थी। कार्लोस फुएंतेस ने इस उपन्यास को लैटिन अमरीका का बाइबिल बताया। ल्योसा ने लैटिन अमरीकी वीरता का महान उपन्यास।
जिन दिनों मार्केस इस रचना को लिख रहा था उन दिनों उसके पास घर  चलाने का खर्च नहीं था। प्रकाशक को पांडुलिपि भेजने के लिए उसकी पत्नी ने हेयर ड्रायर और हीटर तक बेच डाला। बाकी चीजें पहले ही बिक चुकी थी। लेकिन इसी रचना ने उन्हें समृद्ध बना दिया। प्रभात लिखते हैं इस जातीय ‘आचंलिक’ उपन्यास की ताकत इसकी जीवंतता है, लैटिन अमेरीकी जीवन जीवन का वह पहलू जिसके बारे में बाहर के लोग बहुत कम जानते थे। वे वहां की संगीत, मस्ती, जिजीविषा आदि का जिक्र करते हुए बताते हैं कि यह योरोपीय ढंग के जीवन की प्रतिकथा कहती है। आधुनिकता के सामने परास्त नहीं होती है। बल्कि बेपरवाह अपने विश्वासों और मान्यताओं से चिपकी रहती है। पश्चिमी सभ्यता के दमन और औपनिवेशिक दासता के महाआख्यान को भी रचती है। और अपनी जङों में धंसे होने की महागाथा को भी। प्रभात यहां मैला आंचल का जिक्र करना नहीं भूलते जो महान रचना होकर भी हिन्दी भाषा और अनुवाद की समस्याओं के कारण विश्वस्तरीय ख्याति से वंचित रह गयी।
प्रभात प्रतिबद्ध और संघर्षशील पत्रकार को भी दिखाते हैं और एक सफल लेखक के सफरनामा को भी। वे ‘लव इन द टाइम ऑफ कॉलरा’ को एक बदले हुए उपन्यास के तौर पर पाकर उसकी विशेषता का उल्लेख करते हैं। यह दिखाते हैं कि सत्ता, राजनीति, जातीय कथा, स्थानीय जादुई संस्पर्श से निकल अपनी बनी छवि को तोङते हुए मार्केस प्रेम की कोमल भावनाओं, वफा, त्याग और वादा प्रेम की गलियों से अपने को गुजारते हैं।
मार्केस की रचनाएं जितनी रोमांचक हैं, जीवन भी। बेहद नाटकीय। उतार – चढ़ाव से भरा। कभी अर्श पर कभी फर्श पर। प्रभात रंजन ने बेहद सधी, सीधी और आकर्षक भाषा में सबकुछ समेटा है। कहीं – कहीं दोहराव रस भंग करता है अन्यथा इस पुस्तक को उपन्यास, कहानी, जीवनी और आलोचना के खांचे में बांटे बगैर सबका मजा पाठक उठा सकता है।           
पुस्तक – मार्केस की कहानी
लेखक – प्रभात रंजन
प्रकाशक – प्रतिलिपि बुक्स, जयपुर
मूल्य – 250 रुपये


शनिवार, जुलाई 16, 2011

बंद दरवाजों के बरक्स...

                     
जयंत नर्लिकर देश के जाने माने ‘एस्ट्रोफिजिसिस्ट’ (खगोल – भौतिकशास्त्री) हैं। विदेशों में लंबे समय समय तक सैद्धांतिक खगोलशास्त्र पढ़ाने के बाद ‘टाटा इंस्टीट्यूट आव फंडामेंटल रिसर्च’ मुम्बई में भी महत्वपूर्ण योगदान दिया है। वे एस्ट्रोनॉमी और एस्ट्रोफिजिक्स जैसी संस्थाओं के संस्थापक और निदेशक भी रह चुके हैं। सेवानिवृति के बाद प्रोफेसर अमर्टस के रूप में सेवा प्रदान कर रहे हैं। विज्ञान के क्षेत्र में महत्वपूर्ण योगदान के लिए दिया जाने वाला भटनागर और युनिस्को की प्रतिष्ठित पुरस्कार कलिंगा से सम्मानित हो चुके हैं। बहुमुखी प्रत्तिभा के धनी नर्लिकर ने जहां एक शिक्षाविद, प्रोफेसर और खगोलविद के रूप में योगदान दिया है वहीं उन्होंने सायंस फिक्शन रच कर भी पाठकों के बीच अपनी पहचान बनायी है।
खगोलशास्त्र और यूनिवर्स (ब्रह्मांड) की जटिलता एवं रहस्यलोक पर कई किताबें लिख चुके नर्लिकर की नयी पुस्तक “शेक – अप इंडिया” है। यों तो इस पुस्तक में प्रकाशित लेख टाइम्स ऑफ इंडिया दैनिक में बतौर कॉलम प्रकाशित हो चुकी है। पुस्तककार रूप में यह देश की छोटी - बङी चिंताओं, समसामयिक ज्वलंत प्रश्नों से बिंधी नजर आती है। उनकी चिंता के केंद्र में 21वीं सदी का भविष्य है। जो अपने कंधे पर मूर्खताओं की गठरी लादे लिए जा रहा है। वैज्ञानिक सोच, समझ और दृष्टि से दूर यूं ही अंधेरे में सरपट दौङ रहा है। न उसे वर्त्तमान की चिंता है न बेहतर भविष्य की। अपने अतीत के प्रति भी वह मोहाविष्ट है।
आमतौर पर हम किसी ब्रह्मांड विज्ञानी से यह उम्मीद नहीं करते कि वह गंदगी और स्वास्थ्य, ऐतिहासिक धरोहरों और इमारतों की रखरखाव, क्लोन बनाती शिक्षा व्यवस्था, भाषा की समस्या, वक्त की बर्बादी जैसी समस्याओं पर सवाल उठायेगा। नर्लिकर उठाते हैं। वे अपने लेखों – ‘वी नीड अ मोडर्न माइंडसेट, इंडिया सफर्स फ्राम अ लैक ऑव प्रोफेशनलिज्म, हालिडे टू मैनी, डिक्लाइनिंग वर्क स्टैंडर्डस, द पापुलेशन ट्रैप, द नेचर ऑव ब्यूरोक्रैसी, मैनेजिंग योर टाइम, इज एस्ट्रोलॉजी अ सायंस?, नो मोर रमनस, बोसेज एंड साहाज, डिस्कवरिंग टैलेंट, करविंग ब्रेन ड्रेन, डिक्लाइन ऑव एकेडिमिया, डिक्लाइन ऑव सायंस एडुकेशन, प्रोब्लेम ऑव लैंगुवेज, द फाराडे ट्रेडिशन’ आदि - आदि में इन समस्याओं से जूझते नजर आते हैं। उन्होंने छोटी – छोटी चीजों पर ध्यान खींचा है जिसे हमारी सत्तामूलक व्यवस्था नजरअंदाज करती रहती है। एक औसत पढ़ा लिखा भारतीय भी इस पर न ध्यान देता है न ही उन समस्याओं को सुलझाने की दिशा में पहल करता है। यही कारण है कि पूरी व्यवस्था रुग्नाक्रांत दिखती है।  
नर्लिकर अपने लेखों में ऑब्जर्वर (निरीक्षक) की तरह दिखते हैं। ‘वी नीड ए माडर्न माइंडसेट’ में वे कहते हैं कि हम नेहरुवीयन मॉडल, कल्पना, सोच, दृष्टि और लक्ष्य से काफी दूर भटक गए हैं। हमारी वैज्ञानिक उपलब्धियां बेमानी साबित हो रही हैं। एक तरफ हम गणेश को दूध पिला रहे हैं दूसरी तरफ गर्भपात के लिए इस्तेमाल कर रहे हैं। हम अपने घर की सफाई तो कर रहे हैं लेकिन सार्वजनिक स्थानों को गंदा कर रहे हैं। लोग बीमारियों से मर रहे हैं लेकिन सफाई कभी हमारा अभियान नहीं बना। वे ब्राजील के हवाले से कहते हैं कि वहां सार्वजनिक जगहों एवं दूकानों के आसपास सफाई की जबाबदेही व्यवस्था के अलावा नागरिक भी उठाते हैं। वे सिंगापुर के कङे कानून का जिक्र करते हैं लेकिन साथ ही यह भी कहते हैं कि यहां सफाई के लिए कानून बनाना भ्रष्टाचार को ही बढ़ावा देना है। बाल मजदूरी और दहेज प्रथा के जिंदा चले आने पर भी प्रश्न करते हैं। नर्लिकर इन समस्याओं से निपटने के लिए जागरुकता फैलाने और लोगों के आचरण सुधारने पर बल देते नजर आते हैं।
नर्लिकर आधुनिक माइंडसेट की जरुरत महसूस करते हैं। वे अंग्रेजी ढंग की स्कूली शिक्षा पद्धति पर भी सवाल उठाते हैं और पश्चिमी जीवन शैली पर भी। वे उसका अंधानुकरण करने की वकालत नहीं करते हैं। वहां के गिरते मानवीय मूल्यों से सचेत करते हैं। समस्या तब उत्पन्न होती है जब वे विकास के प्रतिमान पश्चिम से उठाते हैं लेकिन उस जीवनशैली से असहमत हो जाते हैं। ‘इंडिया सफर्स फ्रॉम ए लैक ऑव प्रोफेशनल्जिम’ में वे रक्तरंजित युद्धों के इतिहास के हवाले से कहते हैं कि भारत लगातार इसलिए पराजित होता रहा क्योंकि प्रोफेशनलिज्म का अभाव रहा है। वे आज भारत की असफलता का कारण प्रोफेशनलिज्म का अभाव मानते हैं। नर्लिकर के इस निष्कर्ष को एक किस्म से सरलीकरण ही कहा जाएगा। वे सफलता को पेशेवर क्रियात्मकता से जोङते हैं। आखिर पेशेवर पश्चिमी समाज ने आपसी संबंधों में दरारें भी पैदा की है।
‘होलिडे टू मैनी’ में वे सवाल उठाते हैं कि आखिर एक सेकुलर स्टेट में धार्मिक आधार पर इतनी छूट्टियां क्यों दी जाती है? उसमें राज्यों की भागीदारी और भूमिका क्यों शामिल होती है? दिन – प्रति – दिन बढ़ती छूट्टियां उन्हें बैचैन करती है। इसके लिए वे नेताओं को दोषी मानते हैं। वे कहते हैं 16 में से 13 छूट्टियां धार्मिक आधार पर दी जाती है यह मेरे लिए रहस्य का विषय है। नर्लिकर काम को ही प्राथमिकता देने वाले लोगों में हैं। वे भारतीय ब्यूरोक्रेसी में सेंस ऑव ह्यूमर की कमी का भी जिक्र करते हैं। उनका मानना है कि नौकरशाही को समझना बेहद जटिल काम है। व्यंगात्मक अंदाज में कहते हैं - यहां नौकरशाहों में विवादों से बचने, अपने को सुरक्षित रखने और सावधानी बरतने के गुण पाए जाते हैं। वे वैज्ञानिक शोध करने वाले के बराबर वेतनमान दिए जाने की असंगति की तरफ भी ध्यान खींचते हैं।
सांस्थानिक तामझाम और रिचुअल में समय की बर्बादी को ‘मैनेजिंग योर टाइम’ में दिखाते हैं। सेमिनार, भाषण, मीटिंग, कार्यशाला आदि के पहले और बाद में जो औपचारिक अनुष्ठान किए जाते हैं वे सख्त खिलाफ हैं। वे टीवी को इसलिए कोसते हैं कि वह एयरपोर्ट पर नेताओं के आने के स्वागत में खङे दिखाते रहते हैं। जन्मदिन और शोकसभाओं को कवर करते हैं। बेहतर होता वे रचनात्मक चीजों को दिखाते।
भारतीय शिक्षण संस्थान, उसकी नीतियां और उच्च शोध की संभावना तथा गुणवता हमेशा से ही विवाद के विषय रहे हैं। क्या भारत में प्रतिभा की कमी है या सरकारी स्तर पर नीतियों में कमी? क्लोन बनाने वाली और गलाकाट प्रतिस्पर्धी रोजगारोन्मुख शिक्षा पर उन्होंने कई दनदनाते सवाल खङा किए हैं। आगे रमन, बोस और साहा जैसे वैज्ञानिक नहीं पैदा होने के कारणों की छानबीन की है। अकादमिक जगत की गिरती साख को पहचानने की कोशिश की गई है। समांतर रूप से कोचिंग क्लास फलने – फूलने पर चिंता व्यक्त की गई है। भारत में वैज्ञानिक विकास और विज्ञान की स्थितियों की पङताल की गई है। नर्लिकर ने अपनी इस पुस्तक में समसामयिक ज्वलंत प्रश्नों की झङी लगा दी है। कुल मिलाकर देखें तो इस पुस्तक में उभरते भारत की विविध समस्यामूलकता और उससे बाहर निकलने की दृष्टि एवं सोच शामिल है। लेकिन गहराई का वह आयाम गायब है जो ऐसी चिंतन एवं दृष्टि के लिए जरुरी होते हैं।    

पुस्तक – शेक – अप इंडिया (अंग्रेजी)
लेखक – जयंत नर्लिकर
प्रकाशक – ग्लोबल विजन प्रेस,  दिल्ली 
मूल्य 245 रुपये



शनिवार, जून 04, 2011

प्रेम की सैद्धांतिकी

वरिष्ठ कवि – कथाकार – आलोचक रमेशचंद्र शाह का सातवां उपन्यास “असबाब-ए-वीरानी” संभवत: हिन्दी में इस मायने में अनूठा और अकेला उपन्यास होगा कि यह प्रेम को सुनियोजित - प्रायोजित रूप में प्रस्तुत करता है। यह प्रायोजित प्रेम पति के कहने या उकसावे पर घटित होता है। और आश्चर्य ! उसकी युवा पत्नी रिटायर्मेंट की दहलीज पर खङे पति के वरिष्ठ सहयोगी - सहकर्मी – गुरु से प्रेम करती है। वह इस बात की पूरी जानकारी अपने पति को देती है कि वह उसके सहयोगी से प्रेम करती है। हैरान करने वाली बात यह है कि तात्कालिक रूप से उसके पति को आश्चर्य और खुशी का ठिकाना नहीं रहता है। बाद में नाटकीय रूप से चीजें बदल जाती हैं। संबंधों में तनाव उसी तरह पैठ बनाते हैं जैसे बारिश के थपेङे दीवारों के भीतरी हिस्सों में सीलन पैदा करते हैं।
इससे पहले की कथा की अंतर्वस्तु में प्रवेश किया जाए “असबाब-ए-वीरानी” की टेक्नीक पर गौर किया जाए। शाह जी ने एकदम से विशिष्ट शैली अख्तियार की है। यह उपन्यास तीन भिन्न लेखकों का उपक्रम है। द्विवेदी जी के उपन्यास ‘बाणभट्ट की आत्मकथा’ की शैली का रूप यहां देखा जा सकता है। बाणभट्ट... में लेखन के लिए मिस कैथरीन ‘रॉ मैटेरियल’(अधूरा दस्तावेज) उपलब्ध कराती है। ‘असबाब-ए-वीरानी’ में प्रेम का अधूरा दस्तावेज (जिसे ठीक – ठीक अधूरा कहना भी मुश्किल है) एक डायरी की शक्ल में एक चिट्टी के साथ अनामगिरि नामक व्यक्ति छोङ जाता है। दारूका वन के डाकबंगले में। उसे मालूम है कि एक लेखक यहां एकांत में लेखन के लिए आता है। अनामगिरि उस लेखक के लेखन से भली - भांति परिचित है जिसका हवाला भी चिट्टी में देता है। साथ ही उससे उम्मीद करता है कि मेरे इस अधूरे ‘आपबीती’ दस्तावेज को लिख दें क्योंकि लेखन में मेरे हाथ तंग हैं।
अनामगिरि लेखक को यह छूट देता है कि मेरी आपबीती को आप अपने ढंग से लिखें ‘परंतु...वह लेखक ही क्या, जिसे किसी और की आपबीती भी अपनी ही आपबीती सरीखी न लगे’। लेखक को यह लगता है कि इस कथात्मक डायरी से मिलती – जुलती कथा दिल्ली – उदयपुर यात्रा के दौरान ट्रेन में एक सहयात्री ने भी सुनायी थी। बहरहाल संक्षेप में कथा के तीन प्रतिनिधि नैरेटर हैं। अनामगिरि जिसका प्रतिनिधित्व लेखक करता है और इस लेखक का प्रतिनिधित्व रमेशचंद्र शाह करते हैं।
रमेशचंद्र शाह के लेखक के अनुसार अनामगिरि फॉरेस्ट विभाग का उच्च अधिकारी है। अपने काम के प्रति ईमानदार और सिनसियर। वह कभी लाभ – लोभ में न पङा। सत्ता – प्रतिष्ठान, रुतबे और ओहदे से हमेशा अप्रभावित रहा। जुनियर अधिकारियों की मदद करना, आगे बढ़ाना और प्रोत्साहित करने को अपने धर्म की तरह लिया। नीतीश जो बेहद प्रतिभाशाली – परिश्रमी कनिष्ठ अधिकारी है उसे तराशने और आगे बढ़ाने में हमेशा मदद की। वह इस बात पर गर्व करता है कि नीतीश उससे ज्यादा प्रतिभाशाली तथा मौलिक है और उसके काम को आगे बढ़ायेगा।
साहित्यिक मिजाज के अनामगिरि का संबंध नीतीश से बेहद नजदीकी है। दोनों में एक – दूसरे के प्रति सम्मान का भाव है। नीतीश की पत्नी अनु भी अंग्रेजी साहित्य की छात्रा रह चुकी है। इसलिए संबंध में प्रगाढ़ता बढ़ने लगती है। अनामगिरि उपन्यास पसंद पाठक हैं, अनु की रूचि कविता में है। दोनों में साहित्यिक टकराव होता रहता है। इनकी आपसी बहस में जब – तब नीतीश शामिल होता है लेकिन ये दोनों उसे इस बहस से बाहर ही रखते हैं। साहित्यिक बहसें दोनों में भीतरी बदलाव लाता है। अनामगिरि का रुझान कविता के प्रति और अनु का उपन्यास के प्रति होता है।
रमेशचंद्र शाह उपन्यास में जिसे साहित्यिक बदलाव के रूप में दिखलाते हैं यह प्रेम के उभर आने का एक सांकेतिक रूप है। जंगल में सैर करते – भटकते हुए दोनों साहित्यिक चर्चा में मशगूल होते हैं। एक दिन अचानक डाकबंगले में लौटकर दोनों के बीच की भौतिक सारी दूरियां टूट जाती है। शाह का लेखक लिखता है –“मैंने ही उसे खींच लिया अपनी बांहों में? कि वही खुद मुझसे आ चिपटी?...उसने पहले मेरी आंखों को चूमा कि मैंने पहले उसकी आंखों को? पहले मेरे होंठ उसके होंठों से जा लगे कि उसके?...कुछ भी तो भान नहीं मुझे। जाने कित्ती देर तक हम चूमते और चूसते रहे एक दूसरे को...मुझे तो ऐसा ही याद पङता है कि उसी ने वह सब किया था...मैं तो अपनी सुध – बुध ही गंवा बैठा था...”।
लेखक ने इसके बाद उपन्यास में बेहद नाटकीय ढंग से कथा बदल दी। इस शारीरिक प्रेम ने अनामगिरि को धिक्कारा। आत्मालोचन को बाध्य किया। लेकिन अनु ने सब सहज कर दिया। उसने पति को यह घटना बता दी। नीतीश इस बात के लिए अनामगिरि की सराहना करता है कि वह अनु के अंदर स्त्रीत्व को जगाया जो अब तक सुप्त थी। नीतीश ने कभी उसे महसूस नहीं किया था। दोनों के संबंधों ने उसे जगा दिया। वह कहता है ‘प्रेम किसी की मिल्कियत नहीं। हमें खुलकर अपनी भावनाओं को, अपनी इच्छाओं और आवेगों को जीना चाहिए। इसमें कैसा परदा और क्यों? मेरा ब्याह हुआ है इससे - क्या महज इसलिए मालिक बन गया मैं – इसकी भावनाओं का भी’?
बाबजूद इसके अनामगिरि इस घटना के बाद अपने परिवार और नौकरी में लौट आता है। लेकिन दोनों के बीच फोनालाप शुरू हो जाता है और प्रेम की उत्कंठा, बेबसी, भावप्रवणता, रिक्ति, एकालाप और संवादों का अंतहीन सिलसिला शुरू होता है। यहां रमेशचंद्र शाह ने अंतर्मन की ध्वनियों की व्याप्ति और सामाजिक संबंधों की सीमाओं को महीन धागे में पिरो दिया है।
इस क्रम में रमेशचंद्र शाह इस प्रेम की सभ्यता समीक्षा भी प्रस्तुत करते हैं। यह प्रेम पाप – पुण्य की श्रेणी से बाहर निकल आता है। सामाजिक – पारिवारिक नैतिकता – अनैतिकता की कैटेगरी से भी। सिर्फ चाहत की उज्ज्वल लकीरें फैली है। लेकिन यही प्रेम पुरुष की उस दोहरी मानसिकता को भी खोल देती है जो इन संबंधों में फैली है। अनामगिरि अपने प्रेम को अपनी पत्नी से छुपाता है। नीतीश जो हर वक्त अपनी पत्नी को पारिवारिक – सामाजिक दबाबों से प्रोटेक्ट करता था उसकी रुचियों का ख्याल रखता था, अनु - अनामगिरि के साथ को बढ़ावा देता था, साथ घुमने और अपनी भावनाओं को उसके साथ बांट लेने को कहता था अचानक बदल जाता है। वह दोनों के प्रेम को बर्दाश्त नहीं कर पाता है। उसकी सैद्धांतिक बातें खोखली साबित होने लगती है। वह उस प्रेम पर पहरा बिठा देता है। एक प्रेम जो उर्ध्वमुखी रास्ते पर दौङना चाहती थी अधोमुखी गिरती है।
क्या यह उपन्यास प्रेम की त्रासदी है या दाम्पत्य संबंधों की? या प्रेम और भ्रांति के बीच फैला वितान? या प्रेम पर लिखा आलोचनात्मक भाष्य? या स्त्री – पुरुष संबंधों के खुलापन पर एक टिप्पणी? या अंत:करण की पुनर्परीक्षा? या सेल्फ कंफेशन की त्रासदी? शाह का लेखक न सिर्फ इस पर सैद्धांतिक बहस को आगे बढ़ाता है बल्कि आध्यात्म और दर्शन की उस कठिन राह को पकङ लेता है जो पाठक को दुर्गम गलियों में ले जाता है और जीवन की गुत्थियां सुलझाने लगता है।      
पुस्तक - असबाब-ए-वीरानी
लेखक – रमेशचंद्र शाह
प्रकाशक – वाणी प्रकाशन, दिल्ली
मूल्य – 250 रुपये


स्त्री विमर्श के नए तेवर

बींसवी सदी के उत्तरार्द्ध में पश्चिमी अकादमिक जगत में स्त्री चिंतन की व्यवस्थित और बङी दुनिया खुलकर सामने आयी। इसका असर भारतीय उपमहाद्वीप पर भी पङा। स्त्रियों से संबंधित तमाम मसले चाहे वह लिंग संवेदना, स्त्री यौनिकता, देह विमर्श, स्त्री मन, लेस्बियनिज्म हो या उनकी कार्य – कुशलता / योग्यता की समानता, समान मजदूरी आदि - आदि पर गंभीर विचार – विमर्श हुए हैं। प्रमीला के.पी. ने अपनी आलोचनात्मक पुस्तक “स्त्री : यौनिकता बनाम आध्यात्मिकता” में स्त्रियों से संबंधित इन सैद्धांतिक मसलों पर बहस की ही है उसे व्यावहारिक एवं साहित्यिक रूप भी देने की कोशिश की है।
प्रमीला अपनी दृष्टि में कोई झोल झाल नहीं रखती। बहुत ही स्पष्टता से स्त्री – पुरुष समानता की सैद्धांतिक बहस जो पश्चिमी दुनिया से चलकर अन्य भूभाग तक फैली को खारिज कर देती हैं। ‘समानता’ की इस आदर्श स्थिति की जगह वह ‘लिंग संवेदना’ को महत्व देती हैं। स्त्री – पुरुष पूरकीय स्थिति की। उनका मानना है कि न सिर्फ जैविक रूप से स्त्री – पुरुष असमानता है बल्कि सांस्कृतिक – सामाजिक – राजनीतिक स्तर पर भी है। दोनों को कसने की कसौटी भी अलग – अलग हो सकती है। इसलिए पितृसत्तात्मक समाज में समान अवसर उपलब्ध कराना वक्त की जरूरत है।
मध्यकालीन समाज में फैली स्त्री – पुरुष असमानता और स्त्री प्रतिमान भी औपनिवेशिक काल और उसके उत्तरार्द्धमें परिवर्त्तित रूप में जिंदा रही। औपनिवेशिक भारत में स्त्रियों के प्रतिमान लगभग विक्टोरियन या ओरियंटल – प्राच्यवादी ही प्रतिष्ठित हुए। राष्ट्र्वादी दौर में भी स्त्री - प्रतिमान मर्दों ने अपने अनुकूलन के हिसाब से गढ़ी। ग्रामीण और शहरी स्त्रियों की अलग – अलग स्टीरियोटाइप छवि बनाई। उसी के अंदर बंधकर जीने को विवश किया। पढ़ी – लिखी और आर्थिक रूप से संपन्न स्त्रियां भी पितृसत्तात्मक जकङबंदी से मुक्त नहीं हो पायी। उत्तर – औपनिवेशिक दौर में जब स्त्री विमर्श पर बहसें शुरू हुई लिंगगत समानता की बहसें सामने आयी लेकिन उनके स्त्रीत्व को महत्व नहीं दिया गया। अत: आज समस्त क्षेत्रों में लिंग स्तर की पुनर्व्याख्या, स्त्रीत्व का सम्मान और लिंग संवेदना का प्रसार जरूरी है। प्रमिला स्थापित करती हैं कि स्त्रीपक्षीय मान्यताओं की स्वीकृति से ही स्त्री सशक्तीकरण संभव है। प्रमीला अर्ज करती हैं कि जैसे “स्त्रियां पैदा नहीं होती बनायी जाती है वैसे ही पुरुष भी बनाए जाते हैं”। वह ‘पुरुष विनिर्माण’ की सख्त आलोचना करती हैं। आज के समय की जरूरत ऐसी बनायी जाने सामाजिक व सत्तागत संरचना को तोङना है, ताकि लिंग संवेदना पैदा की जा सके।
प्रमीला स्त्री विमर्श की बहुस्तरीयता को स्वीकारती हैं। उसी रूप में स्वीकार करने पर बल देती हैं। स्त्रीत्व की परंपरागत परिभाषा के अनुसार ‘पतिव्रता’ का भी खंडन करती हैं और वर्किंग बोल्ड वूमेन मतलब ‘पुरुष की तरह समान व्यवहार’ करने वाली का भी। घरेलू महिलाओं की भूमिका को बेहद महत्वपूर्ण मानते हुए दुनिया के विकास में उसके योगदान की सराहना करती हैं। देहवादी विमर्श का खिलाफत न करते हुए मानसिक व संवेदनात्मक पहलू को जोङने की बात करती हैं। होमोसेक्सुअलिटी को प्रकृति विरूद्ध साबित करने एवं उन्हें पहचान विहीन “अन्य” कर देने की साजिश का भी विरोध करती हैं। समलिंगी, वेश्या, पुरुष वेश्या, हिजङा आदि के प्रति सत्ता व समाज की उपेक्षा और असंवेदनात्मक स्थितियों का खंडन करते हुए मांग करती हैं कि वे मानसिक व संवेदनात्मक सुरक्षा के हकदार हैं। लिखती हैं - ‘सामाजिक समवाय में इनका जीवन भी महत्वपूर्ण है’।
पहले प्रकाशित अन्य शोध ग्रंथ व पुस्तकें भी इस बात को रेखांकित करती रही है कि पितृसत्तात्मक समाज हमेशा से स्त्री सेक्सुअलिटी / यौनिकता से खतरा महसूस करती रही है इसलिए उसे हमेशा नियंत्रित करने का प्रयास करती रही है। स्त्री देह को शैतानी चीज साबित करने की कोशिश की जाती रही है। स्त्रियों की यौनिकता को ‘अश्लील’ / पाप बताया गया जबकि पुरुषों को उसके पुरुषार्थ से जोङ दिया गया। स्त्रियों के देह दमन को कुलशीलता से नत्थी किया गया जबकि पुरुषों को ऋषिसत्व से नवाजा गया। पुरुषस्वत्व संपूर्ण है जबकि स्त्रीस्वत्व पुरुष के बगैर अधूरी। स्त्रियों को अशुद्ध साबित किया गया जबकि पुरुषों को मोक्ष का अधिकारी। यह अशुद्धता स्त्रियों को आध्यात्मिक स्वतंत्रता से वंचित रखने की कोशिश थी। प्रमीला देह की अभिव्यक्ति और यौनिकता को मानव की मूलभूत जरूरत मानती हैं।  
प्रमीला स्त्री – पुरुष यौनिक संबंधों में सहज आनंद की अवस्था को आध्यात्मिक मानती हैं। यह तभी संभव है जबकि दोनों के बीच सहज समभाव संबंध बनते हैं। देह के साथ आत्मा का भी स्पन्दन शामिल होता है। दोनों की अनुभूतियां समान होती हैं। जब से देहकार्य या काम के अर्थ सिमटे हैं प्रेम के अर्थ पलट गए हैं। जहां यौनिकता आक्रमकता रुख अपनाती है, युग्मों के लिए खतरनाक होती है। वे आध्यात्मिकता की तरह ही यौनिकता को व्यक्ति की निजी रुची और स्वचयन मानती हैं।
दिनकर की ‘उर्वशी’ में देह – विमर्श के पुनर्पाठ को खोलती हुई स्थापना देती हैं कि उर्वशी परंपरा विरोधी है। वह देह को शक्ति मानने वाली है। यौनिकता की अपनी परिभाषा गढ़ने वाली है। पुंसत्व की विनिर्मिति को नकारने वाली है। वह स्त्री की भावशुद्धि, यौनशुद्धि, क्षमा, सहनशीलता आदि मान्यताओं को ध्वस्त करने वाली है। प्रशिक्षित व विनिर्मित यौनिकता की विरोधी है।
प्रमीला ‘लेस्बियन नेशन’ को स्वनियंत्रित राष्ट्र मानते हुए भारत जैसे राष्ट्र में इसकी अनुपयोगिता को दर्शाती हैं। हालांकि वे उसके प्रति पूर्ण सहानुभूति से विचार करती हैं और पाठकों से भी ऐसी उम्मीद जताती हैं। स्त्री समलिंगियों पर हिन्दी में कम लिखा गया है। प्रमिला इस कमी को पूरा करती हैं। वे यौन अधिकार को मानव अधिकार से जोङकर देखने की हिमायती हैं। वे हिन्दी सिनेमा में उभरे सौंदर्य और यौन विनिर्मिति की भी सख्ती से आलोचना करती हैं। स्त्रियों को पण्य बना देने और शारीरिक आनंद को उभार देने की कोशिश की चीरफाङ भी करती हैं। प्रमीला की यह पुस्तक स्त्री विमर्श पर सुचिंतित बहस को आगे बढ़ाने में मददगार होंगी, इसमें संदेह की गुंजाइश नहीं है।
पुस्तक – स्त्री : यौनिकता बनाम आध्यात्मिकता
लेखक – प्रमीला के.पी.
प्रकाशक – राजकमल प्रकाशन , दिल्ली
मूल्य – 200 रुपये