रविवार, मार्च 25, 2012

लोकराग में भीगा मन

लगभग 19वीं शताब्दी के बाद वैज्ञानिक विकास की समूची अवधारणा को मनुष्य केंद्रित बना दिया गया। जितना संभव हो सका उतना प्रकृति व प्राकृतिक संसाधनों की लूट हुई। पेङों, पहाङों, नदियों, खेतों – खलिहानों, जंगलों, जमीन व आसमान को मनुष्य के विकास के नाम पर रौंद दिया गया। आधुनिकीकरण, शहरीकरण और औद्योगिकीकरण के तीव्र और अंधी घुङदौङ ने प्रकृति के साथ हमारे संबंध और सहकार को छीन लिया। विज्ञान और प्रौद्यौगिकी को प्रकृति के खिलाफ जबरन इस्तेमाल किया। यही कारण है कि हम भीतर से प्रकृतिविहीन और उजङे हुए जीवन जीने को मजबूर हुए। शायद हम याद भी नहीं कर पा रहे कि हमने प्रकृति के साथ क्या – क्या खो दिया। हमारे जीवन से प्रकृति, उसका अप्रतिम सौंदर्य, ऋतुओं का वैभव एवं उसका स्वाभाविक ऋतुचक्र, रंगीनियां, लोकरंग, रसरंग, रागरंग कब गायब हो गया पता ही नहीं चला। समकालीन कवियों – लेखकों में भी प्रकृति और उसके वैभव का वह ठाठ उठ गया जो कभी संस्कृत साहित्य, मध्यकालीन हिंदी साहित्य या छायावादी कवियों में दिखाई पङता है। ऐसे में राजकिशन नैन की निबंधात्मक पुस्तक ‘लोक में ऋतु’ न सिर्फ पठनीय व विचारणीय है बल्कि प्रशंसनीय भी। क्योंकि वे उपर्युक्त वैश्विक और स्थानीय मुद्दों और समस्याओं को अलग – अलग संदर्भों में उठाते हैं।
राजकिशन नैन का मन लोकराग में भीगा है। वे लोक के गहरे जानकार और चितेरे हैं। पेङ – पौधे, जंगल - नदी, पशु – पक्षी, पर्व – त्योहार, फूल – फल, प्रकृति का सृजन, संहार और पुनर्सृजन को उन्होंने जितना कैमरे की आंख से देखा है उससे ज्यादा उसमें डूब – उतरा के। उन्होंने प्रकृति, ऋतुएं, लोकजीवन, ग्राम्यगीत, प्रेमगीत, ऋतुगीत, लोकपर्व एवं त्योहार आदि को भाषा में मूर्त्त कर दिया है। फोटोग्राफी के व्यवसाय ने उन्हें हर चीज को दृश्य बना देने का सामर्थ्य दिया। वे प्रकृति के हर दृश्य को कैमरे में कैद करने की नजर से देखते हैं। यही कारण है कि कैमरे की बाहर की दुनिया भी बेहद निराली व आकर्षक है। उन्होंने लोकजीवन व प्रकृति की रंगिनियों को पूरे कलात्मक औदात्य के साथ पन्नों पर उतारा है। हरियाणी प्रकृति और लोक का विराट वैभव और विपुल संपदा को यहां ठाठ से पढ़ा और महसूस किया जा सकता है। उनके निबंध कई बार आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी और विद्यानिवास मिश्र की याद दिलाते हैं। प्रकृति वर्णन द्विवेदी जी के आसपास है तो लोक की अंतरंगता विद्यानिवास के साथ तादात्मय बनाता है।
राजकिशन नैन की पुस्तक में प्राकृतिक सुषमा व लोकजीवन का जो ठाठ उभरा है वह हरियाणा प्रदेश का है। उनके संस्मरणात्मक अनुभव ने हरियाणा के लोकजीवन व प्रकृति का इतिहास रच उसे संरक्षित किया है। अरावली की सुरम्य पहाङियां, हरे – भरे समतल मैदान, उफनती - भागती नदियां, बालू के सुनहरे टीले। संरक्षण का यह भाव ऋतु दर ऋतु दिखाई पङता है। वसंत की मादकता, फगुनाहट, शिरीष के फूल, ढाक के दहकते पुष्प, पलाश के धधकते सूर्ख अंगार जैसे जंगल, शहतूत, चंपा, नीम, आम्र मंजरियों की मदमाती महक, महुए की ठर्राती गमक, फाल्गुनोत्सव के उत्साह और मादकता तो जेठ की दहाङ भी सुनाई पङती है। उसकी दारुण – दाहक, तुनकमिजाजी और बेहया रूपों का भी उदघाटन होता है। ऋतुओं की रानी वसंत जेठ से थरथर कांपती है। यह कोयल की मधुर तान की भी बेकद्री करती है। उसके उग्र स्वभाव से वरुण ही बचाता है। राजकिशन कहते हैं वरुण ही मुझमें आनंद और उमंग भरता है। जेठ के मिजाज को कभी सूखा तो कभी तीखा बताते हैं। उससे बचने के लिए उन्हें तरबूज, खरबूजा, आम का पन्ना, सत्तु, छाछ, गुङ का रस याद आते हैं, जो धीरे – धीरे हरियाणा प्रदेश से गायब हो रहे हैं और उसकी जगह मल्टीनेशनल कंपनियों के पेय पदार्थ कोक – पेप्सी जगह बनाते जा रहे हैं।
राजकिशन वर्षा ऋतु को धरा और मनुष्य को बल प्रदान करने वाले ऋतु मानते हैं। पावस के सुन्दर फूलों कमल, मेंहदीं, हरसिंगार और रात की रानी के बगैर उनकी बात अधूरी रह जाती है। सावन के गीतों और भाव लहरियों को वक्त के धूंधलके में खो जाने की टीस भी गूंजती है। वे शरद की खूबियों को लोकोत्तर बताते हैं। उसके पीतवर्णी इच्छाओं और सतरंगी दुनिया को खोलते हैं। हेमंत के हरे दुपट्टे ओढ़ लेने के दृश्य को साकार करते हैं। उसके विपूल वैभव और रूप सौष्ठव की ख्याति को दृश्यमान करते हैं। ऋतुओं की साम्राज्ञी शिशिर को एक तरफ संभावनाओं का तो दूसरी तरफ जानलेवा भी कहते हैं।   
आम तौर पर यह देखने को मिलता है कि लेखकों ने प्रकृति वर्णन करते हुए मनुष्य की केंद्रीयता को बनाए रखा है। राजकिशन भी ऐसा करते हैं। प्रकृति की हरकतों, स्वभावों एवं गति को मानवीय भावों एवं स्वभावों से जोङते हैं। बाबजूद इसके वे ऋतुओं की स्वायतता एवं स्वतंत्र सत्ता को भी उदघाटित करते हैं। उसकी विशेषताएं, स्वभाव, जीवनशैली, प्राकृतिक वैभव, सौंदर्य, कलात्मक अभिव्यक्ति, आतंरिक अनुशासन, बदलाव, सृजन, विनाश और पुनर्सृजन, को सर्जनात्मक तरीके से रखते हैं। उसकी आवयविक और नैसर्गिक संरचना का बखान करते हैं। ऐसा करते हुए वे पेङ, पौधे, फूल, - फल, जंगल – जमीन, नदी – पहाङ, जोहङ, ओस - धूंध, बादल और धूप सब से बतियाते हैं। प्रकृति को अराध्य की तरह मानते – पूजते हैं। प्रकृति को केवल ऋतुओं की मां नहीं बल्कि अपनी मां मानते हुए – ऐसा समझने पर बल देते जान पङते हैं। प्रकृति को सेविका, सहचरी और शिक्षक का भी दर्जा देते हैं। वे प्रकृति की आध्यात्मिकता को उदघाटित करते हैं। वे लिखते हैं ‘हमारा शरीर जिन पांच तत्त्वों का पुतला है, वे हमें प्रकृति से मिले हैं’। इसलिए उसकी अखंडता के संरक्षण के प्रति उनमें तङप भी है। वे मानते हैं कि प्रकृति के नियमों के संरक्षण में ही हमारा उत्थान है और उसके बिगाङ में ही पतन।         
       उदय प्रकाश की भाषा में कहें तो राजकिशन जी ने ‘ग्राम्य जीवन और ऋतुओं के घनिष्ठ संबंधों को समझा है। साथ ही वे प्रकृति की सभी विशेषताओं और बदलावों के साक्षी भी रहे हैं’। चाहे वह ऋतुओं का राजा वसंत हो, या ऋतुओं की रानी शिशिर, चौमासे के मानसूनी मेघ हों या लू - लपटों का मारू महीना जेठ हो, या फिर मादक मनोहर शरद ऋतु हो। सबके साथ उनका गहरा लगाव व तादात्मय है। वे प्रकृति के सभी रूपों की स्थूल एवं सूक्ष्म अंकन करते हैं। वे प्रकृति के निकट हैं और प्रकृति उनके निकट। उनका ह्रदय ऋतुओं की आगवानी के लिए दौङा पङता है। उनकी स्मृति में हरियाणा की प्रकृति, ऋतुएं एवं लोकजीवन तथा उसके मुहावरे, लोक गीत - संगीत आदि ताजा हैं। उन स्मृतियों के आख्यानात्मक प्रतिफलन के रूप में इस पुस्तक को देखा जा सकता है। लेकिन जिस तरह से हमारा अज्ञान प्रकृति को उजाङ रहा है। प्रदूषण नष्ट कर रहा है, बढ़ता उपभोक्तावाद और अतिरिक्त उत्पादन नष्ट करने पर उतारु है वह उनके लिए स्थायी चिंता के विषय हैं। 
पुस्तक – लोक में ऋतु
लेखक – राजकिशन नैन
प्रकाशक – आधार प्रकाशन, पंचकूला
मूल्य – 200 रुपये




शनिवार, जनवरी 28, 2012

प्रतिमान पुरुष की सीमाएं

      आचार्य रामचंद्र शुक्ल हिन्दी के संस्था पुरुष हैं। वे हिन्दी के सबसे शक्तिशाली नैरेटर हैं। इतिहास, आलोचना, निबंध, लेख आदि हर जगह इसकी बानगी देखी जा सकती है। उनके विचारों की तार्किकता का समुच्चय इतनी शक्ति और आवेग के साथ प्रवाहित होती है कि पाठकों को अपने साथ बहा ले जाती है। उनके उदाहरण अकाट्य तर्क के साथ अपनी जगह बनाते चलते हैं। जो भाव, विचार, भाषा, लेखन, रचनाकार, धर्म आदि चीजें उन्हें पसंद नहीं उसकी धज्जियां उङा देते हैं। उनकी स्थापनाएं, निष्कर्ष, मूल्यांकन और असहमतियां उनकी सामाजिक – सांस्कृतिक – धार्मिक और साहित्यिक रूचियों का प्रतिनिधित्व करती हैं। तमाम विवादों, उलझनों और वर्णवादी श्रेष्ठता बोध को झलकाने के बाद भी रामचंद्र शुक्ल का ऐतिहासिक महत्व और साहित्यिक अवदान काफी जगह घेरता है। उनसे असहमति जता कर ही परवर्ती साहित्येतिहास, आलोचना एवं उसकी विभिन्न धाराओं को विकसित किया जा सका है। 
पिछले वर्षों में जब से दलितों - पिछङों का उभार और हिन्दूवादी धार्मिक कट्टरता एवं सांप्रदायिकता सामने आयी है रामचंद्र शुक्ल का लेखन पुन: विवादों के घेरे में आ गया है। एक तरफ उनमें उभरे वर्णवादी – जातिवादी संरचनाओं पर सवाल उठाये जा रहे हैं दूसरी तरफ उनमें मौजूद हिन्दूवादी चिन्हों के मायने तलाशे जा रहे हैं। रामजी यादव द्वारा संपादित ‘आचार्य रामचंद्र शुक्ल संचयन’ को इसी नजरिये से देखा जाना चाहिए। रामचंद्र शुक्ल ‘नेशनलिस्ट’ विमर्शकार थे। श्रेष्ठ निबंधकार, अनुवादक भी। जिसकी झलक यहां नहीं दिखाई पङती है। रामचंद्र शुक्ल के रचनात्मक वैविध्य का यहां अभाव है। कहना न होगा, इसे बेहतर संचयन और संपादन नहीं कहा जा सकता है। यह आचार्य शुक्ल के साहित्यिक अवदानों का श्रेष्ठ चुनाव नहीं है।
रामजी यादव द्वारा लिखी गई भूमिका भी हङबङी की शिकार है। उन्होंने रामचंद्र शुक्ल की एकतरफा आलोचना की है। यह आलोचना तात्कालिक सामाजिक – धार्मिक संरचनाओं और संस्थाओं के उभार के प्रतिफलन स्वरुप सामने आयी है। संचयनकर्त्ता से यह उम्मीद की जाती है कि वे संबंधित लेखक का मूल्यांकन समग्रता में करें। उनसे नये ‘पाठ’ की तस्दीक रहती है। संचयन या संपादन के उद्देश्य और निहितार्थ भी स्पष्ट हों। तब, जबकि उस लेखक की रचनावली और कई संचयन पहले ही प्रकाशित हो चुके हों।
रामजी यादव भूमिका में रामचंद्र शुक्ल के साहित्यिक – सांस्कृतिक प्रतिमान ‘लोकमंगल’ की आलोचना करते हुए उसे कुछ जातियों के कल्याण तक केंद्रित मानते हैं। फिर उसे हिन्दी विभाग के संकीर्ण और सङांध भरे परिवेश से जोङते हैं। फिर हिन्दी विभागों में दलितों - पिछङों – आदिवासियों, अल्पसंख्यकों की कम तादाद से। यानी वे शुरुआत ही कहां का रोङा, कहां का पत्थर, भानुमती का कुनबा जोङा वाले स्टाइल में करते हैं। फिर वे रामचंद्र शुक्ल और शुक्लोत्तर हिन्दी आलोचना में पाठ की मनमानी पर बहस करने लगते हैं। साथ ही यह निष्कर्ष भी चस्पां देते हैं कि शुक्ल ‘हिन्दी के पहले रूपवादी आलोचक’ लगते हैं। यहां हम देख सकते हैं कि रामजी यादव की भूमिका बेहद बेतरतीब, लचर और अनावश्यक रूप से ध्वंसात्मक है। बेहतर होता रामजी यादव ने शुक्लजी के व्यक्तित्व में जिन विरोधी छोरों को पहचानने की कोशिश की है, जिन विशेषताओं और नकारात्मक पहलुओं को देखने की कोशिश की है - दोनों पर संतुलन बनाकर आगे बढ़ते।   
संपादक इस बात पर बल देते हैं, जो उचित ही है कि शुक्लजी, हिन्दू गौरव को चुनते हैं – मनुष्य जाति के नहीं। वह भी तब, जब वे इस्लामिक कट्टरता, कठमुल्लापन और धर्मांतरण के विरुद्ध खङे हैं। ‘तुलसी के सौंदर्य और लोकमंगल पर पूरी पोथी लिखते हैं, वहीं कबीर को सस्ते में निपटाते हैं। मध्यकाल की सामाजिक क्रांति के बरक्स पतनशील सामंती मूल्यों को बङे फलक पर व्याख्यायित करते हैं’। वे शुक्लजी के भीतर फैले फांक पर से पर्दा उठा दिखाते हैं कि ‘हिन्दुत्ववाद और वर्णव्यवस्था जैसी नारकीय समाज व्यवस्था का समर्थन करने के साथ ही वे करुणा, संवेदना और लोकमंगल जैसे लोकतांत्रिक मूल्यों की भी व्याख्या करते हैं। मीर और गालिब को हिन्दी से निकाल बाहर करने को सुनियोजित चाल बताते हैं। अंत में यह सवाल उठा छोङ जाते हैं कि एक परजीवी समाज की मूल्य व्यवस्था के प्रवक्ता होने के बाबजूद वे क्योंकर इतनी मजबूती से जमे हुए हैं !
संचयनकर्त्ता ने पुस्तक को आठ खंडों में विभाजित किया है। पहला खंड कविताओं का है। यह सर्वविदित है कि शुक्लजी का हाथ कविताओं में तंग है। उनकी कविताएं उनके तीव्र विचारों की पच्चीकारी है। उसमें छायावादी तत्समता का पूरजोर आग्रह है। छंद और तुक को साधने की भरपूर कोशिश। राष्ट्रीय चेतना, हिन्दी की गौरवगाथा के अलावा तुलसी के बहाने वर्णवादी श्रेष्ठता को सामने रखना उनकी कविताओं में शामिल है। वे एक तरफ देवकीनंदन खत्री के शोक में कविताएं लिखते हैं तो दूसरी तरफ छायावाद और निराला के विरोध में भी। यानी वे कविता और आलोचना में एक ही तरह के काम को अंजाम दे रहे थे।
दूसरा खंड कहानियों का और तीसरा पत्रों का है। पत्रों के चुनाव में संपादक ने सिर्फ इस बात का ध्यान रखा है कि हिन्दी के लेखकों के विवाद, पाठ्यपुस्तकों की राजनीति और जोङ –तोङ दिखे। हालांकि इससे उस समय के सत्य का पूरा उदघाटन नहीं होता, आंशिक झलक भर मिलती है। ‘सौंदर्य, भाषा और साहित्य शास्त्रीय विवेचन’ खंड में कविता क्या है, उपन्यास, साहित्य, अपनी भाषा पर विचार, उर्दू राष्ट्रभाषा, भाषा की उन्नति, भारतेंदु हरिशचंद्र और हिन्दी, हिन्दी और मुसलमान शामिल हैं। यह चयन अतार्किक है। इसे किसी दृष्टि से विवेकसम्मत नहीं कहा जा सकता। बेहतर होता भाषा विवाद के अलग खंड होते। शुक्ल जी संस्कृतनिष्ठ हिन्दी के पक्ष में थे न कि उर्दू, अरबी, फारसी के विरोध में थे। हालांकि वे हिन्दी में संस्कृत और उर्दू की उतनी ही जरुरत महसूस करते थे जितनी से भाषा बोझिल और लद्दङ न हो। शुक्लजी के एजेंडे में भारतेंदु थे न कि शिवप्रसाद सिंह सितारेहिंद। मूल्यांकन खंड में सूरदास, तुलसीदास और जायसी तथा जीवनी खंड में मोहनलाल विष्णुलाल पंड्या, प्रेमघन, राधाकृष्णदास को शामिल किया है। इतिहास खंड में ‘गद्य साहित्य का प्रसार’ तक का हिस्सा है। यह खंड भी आधे – अधूरे ही शामिल है। बेहतर तो यह होता कि इस खंड में सिर्फ रीतिकाल या आधुनिक काल को शामिल किया जाता। सूर, तुलसी, जायसी को मूल्यांकन खंड में रखने के बाद भक्तिकाव्य को शामिल करने की जरुरत खत्म हो जाती है। भूमिका में जिस हिन्दूवादी बातों पर रामजी ने बल दिया है वह उसके शामिल होने से स्वत: स्पष्ट था। फिर वह निबंधों में भी व्याप्त है।    
         

रविवार, जनवरी 08, 2012

तुलसी काव्य - विमर्श

     नंदकिशोर नवल आधुनिक साहित्य के पाठक और आलोचक हैं। मध्यकालीन साहित्य उनके आलोचनात्मक - विमर्श का हिस्सा पहले नहीं रहा है। ‘तुलसीदास’ पर पुस्तक लिखकर उन्होंने अपने आलोचनात्मक दायरे को विस्तार देने की कोशिश की है। लेकिन उनका यह प्रयास मध्यकालीन साहित्य के एक पाठक के सहज उच्छलन का रूप नहीं है। उनकी परेशानी का सबब कबीर और उसके पाठक हैं जो उनकी रचनात्मकता से ऊर्जा पाते हैं। कबीर को अपना काव्यनायक मानते हैं और तुलसीदास को हाशिए पर रखते हैं। यही कारण है नंदकिशोर नवल कि यह पुस्तक नई पीढ़ी के उन पाठकों को संबोधित है जो तुलसी की तुलना में कबीर को श्रेष्ठतर मानते हैं और उसके प्रति ‘उपेक्षा – भाव’ रखते / प्रदर्शित करते हैं। 
   नंदकिशोर नवल प्राक्कथन में ही कबीर और उनके पाठकों पर छङी घुमा देते हैं। लिखते हैं -‘...कबीर हर तरह से परलोकवादी और योगमार्गी थे तथा स्त्री के संबंध में उनके विचार तुलसीदास से भी कटु थे, लेकिन नई पीढ़ी के लोग इसे नहीं देखते और कबीर के वर्ण – व्यवस्था तथा बाह्याचार – विरोध को ही लक्ष्य मानकर उन्हें सर्वाधिक अंक देते हैं’। यूं तो साहित्यकारों और आलोचकों की पुरानी पीढ़ी हमेशा से ही नई पीढ़ी को लेकर सशंकित और तंग नजर रही है। सच्चाई यह है कि हर युग में नई पीढ़ी अपना काव्यनायक स्वयं चुनती है। सामाजिक – राजनीतिक - आर्थिक परिवेश तथा उसकी हलचल और उससे निष्पन्न ऐतिहासिक बोध उसे दृष्टि प्रदान करते हैं जिसके आधार पर यह चुनाव संभव होते हैं। दलितों – आदिवासियों - पिछङों के उभार तथा धार्मिक कट्टरता और सांप्रदायिक उन्माद से लहूलुहान दौर में अगर नई पीढ़ी वर्ण – व्यवस्था तथा बाह्याचार विरोधी कवि को सर्वाधिक अंक देता है तो कोई अन्याय नहीं है। बल्कि वक्त की नब्ज़ पर ऊंगली रखना है। इतिहास की धारा के साथ बहना है।
नंदकिशोर नवल का यह मानना भी कि नई पीढ़ी तुलसी काव्य की ताकत से परिचित नहीं है अतिकथन ही कही जायेगी। तुलसी का अब भी जनप्रिय कवि होना या ग्रामीण समाज के भीतर धंसा होना लोकप्रियता की ही निशानी है। समकालीन बौद्धिक जगत ने जरुर तुलसी काव्य की प्रासंगिकता को प्रश्नांकित किया है। अव्वल तो तुलसीदास कुछ असुविधाजनक सवालों के घेरे में हमेशा रहे हैं, लेकिन उससे उनकी साहित्यिक - सांस्कृतिक और धार्मिक लोकप्रियता क्षतिग्रस्त नहीं हुई है।
तुलसीदास पर लिखी यह पुस्तक प्रभाववादी आलोचना का ही एक उदाहरण है। बचपन से ही तुलसी साहित्य का जो प्रभाव लेखक पर पङा, उसी प्रभावान्निविति के दबाब के प्रतिफलन के रूप में इसे देखा जाना चाहिए। इसमें उनकी पाठकीयता, रसिकता और भावुकता शामिल है। लेखक अपने विवेचन में बार - बार इस बात को दोहराते हैं कि तुलसीदास श्रेष्ठ और महान कवि हैं। दूसरे शब्दों में, वे तुलसीदास की स्वयंसिद्ध श्रेष्ठता / महानता का पीछा करते हुए स्थापनाएं देते हैं। अगर आलोचनात्मक स्थिति इसके उलट होती तो उसे आदर्श माना जाता और तुलसी काव्य में नई ‘पाठ – संभावनाओं’ की तलाशी होती। लेकिन ऐसा हुआ नहीं है। रामचंद्र शुक्ल के बाद रामविलास शर्मा ने अपने युग के परिप्रेक्ष्य में तुलसी को पढ़ने की कोशिश की। उन्होंने प्रगतिशील आंदोलन घटित होने के बाद तुलसी काव्य को श्रम, किसानी - वृत्ति, भूखमरी, जहालत, दुर्भिक्ष, वैयक्तिक और सामूहिक दुख के भीतर पढ़ा। प्रगतिशील और जनवादी मूल्यों को तुलसी में प्रस्थापित किया। लेकिन यहां ऐसा कुछ भी नहीं है। ऐतिहासिक बोध के अभाव में पुस्तक समकालीन चुनौतियों और परिप्रेक्ष्य से परे ‘तुलसी – काव्य’ का भाष्य या टीका भर बनकर रह जाती है।  
आलोच्य पुस्तक के दो - तिहाई हिस्से तुलसी - काव्य के उदाहरणों से पटे पङे हैं। ऐसे में विवेचन – विश्लेषण की गुंजाईश बहुत कम रह जाती है। समकालीन दुनियावी संदर्भों में उसकी प्रासंगिक स्थितियों का पाठ आकलन भी न्यून है। चुनिंदा पदों का ‘पाठ – विमर्श’ एवं अर्थनिष्पादन जरुर आकर्षित करते हैं।      
पुस्तक तीन अध्याय – ‘अन्य काव्य’, रामचरितमानस और विनयपत्रिका में विभाजित है। अन्य काव्य में उन्हीं रचनाओं पर विचार किया गया है जिसे विद्वानों ने प्रमाणिक माना है। आलोचक पहली रचना ‘रामलला नहछू’ को काव्य गुण से रहित और उल्लेख योग्य नहीं मानते हैं। संकेत करते हैं कि ‘रामलला नहछू में कहीं भी हमें एक महाकवि के आगमन की पदचाप नहीं सुनाई पङती’। ‘रामाज्ञा प्रश्न’ को शकुन – विचारने वाली पुस्तक मानते हैं। साथ ही दर्ज करते हैं कि शंबूक वध और सीता – वनवास दोनों की मौजूदगी यहां है जो ‘रामचरितमानस’ में नहीं है। एक महान साध्वी स्त्री के ऊपर लोक की महत्ता की बात प्रश्नांकित है। ‘बरवै रामायण’ में सीता के रूप वर्णन को रीतिकालीन मानते हैं। वे लक्षित करते हैं कि इन तीनों ‘खंड – काव्य’ में उसके अनुरूप शिल्प – विधान का कोई सौंदर्य नहीं है। 
लेखक ‘जानकीमंगल’ में सीता की उभरी हुई सेक्सुअलिटी का संकेत भर देते हैं। ‘पार्वतीमंगल’ की तुलना कालिदास की कुमारसंभव से करते हैं। साथ ही यह निष्कर्ष देते हैं कि कालिदास की दृष्टि मुक्त थी जबकि तुलसी की संयत। जहां कालिदास की काव्य संवेदना वन्य और नागर थी वहीं तुलसी की ग्रामीण। गीतावली और कृष्णगीतावली को कवि की बौद्धिक सहानुभूति की देन मानते हैं न कि अनुभूतियों का।
नंदकिशोर नवल ‘कवितावली’ में अत्यधिक परिपक्वता, सृजनात्मक कल्पनाशीलता और तज्जनित मन को मुग्ध कर देनेवाला सौंदर्य देखते हैं। साथ ही उसमें व्यक्त ‘पाठ’ के  यथार्थवादी स्वरुप का उदघाटन करते हैं। साहित्यिक एवं संगत शब्दार्थों तक पाठक को पहुंचाने की कोशिश करते हैं। ‘रामचरितमानस’ पर विचार करते हुए वे एक तरफ कबीर के प्रति उन्हीं पूर्वाग्रहों को ‘आक्रामक मुद्रा’ में सामने रखते हैं जो धर्मवीर के लेखन के पहले चलता रहा है दूसरी तरफ, तुलसी में मौजूद आपत्तिजनक उक्तियों के प्रति ‘रक्षात्मक मुद्रा’ अखित्यार कर ली है। तुलसी को डिफेंड करने के लिए यह कह देते हैं कि वे सब उक्तियां हिन्दू धर्मग्रंथों के अनुवाद हैं। वे यह सवाल ही नहीं उठाते कि तुलसी अपनी ‘काव्य – दृष्टि’ में उसे क्यों शामिल करते हैं? ‘नारि हानि बिसेष छति नाहीं’ वाले प्रसंग के संदर्भ में तर्क देते हैं कि पत्नी के ऊपर भाई के महत्व देने को ‘किसान मानसिकता’ माननी चाहिए। इसके लिए पंत की कविता का उल्लेख भी करते हैं। यह बिल्कुल ही निराधार, असंगत और तर्कहीन तुलना है।
वे रामचरितमानस के सभी कांडों का अध्ययन क्रमबद्ध तरीके से करते हैं। बालकांड का नायक लक्ष्मण मानते हैं तो अयोध्याकांड के नायक भरत को। शूर्पनखा – प्रसंग को परवर्ती कथाओं का हेतु। सुन्दरकांड के नायक हनुमान हैं। लंकाकांड के पूर्वार्ध के नायक अंगद हैं तो उत्तरार्ध के स्वयं राम। जहां मानस के पाठ विश्लेषण में उसकी कथात्मक गुत्थियां, रचना कौशल, सौंदर्य विधान, वागर्थ - प्रपत्ति खुलती चलती है, वहीं विनयपत्रिका में ‘मध्ययुग में एक बेहतर इंसान न बन पाने की आत्मभर्त्सना’।