लगभग 19वीं शताब्दी के बाद वैज्ञानिक विकास की समूची अवधारणा को मनुष्य केंद्रित बना दिया गया। जितना संभव हो सका उतना प्रकृति व प्राकृतिक संसाधनों की लूट हुई। पेङों, पहाङों, नदियों, खेतों – खलिहानों, जंगलों, जमीन व आसमान को मनुष्य के विकास के नाम पर रौंद दिया गया। आधुनिकीकरण, शहरीकरण और औद्योगिकीकरण के तीव्र और अंधी घुङदौङ ने प्रकृति के साथ हमारे संबंध और सहकार को छीन लिया। विज्ञान और प्रौद्यौगिकी को प्रकृति के खिलाफ जबरन इस्तेमाल किया। यही कारण है कि हम भीतर से प्रकृतिविहीन और उजङे हुए जीवन जीने को मजबूर हुए। शायद हम याद भी नहीं कर पा रहे कि हमने प्रकृति के साथ क्या – क्या खो दिया। हमारे जीवन से प्रकृति, उसका अप्रतिम सौंदर्य, ऋतुओं का वैभव एवं उसका स्वाभाविक ऋतुचक्र, रंगीनियां, लोकरंग, रसरंग, रागरंग कब गायब हो गया पता ही नहीं चला। समकालीन कवियों – लेखकों में भी प्रकृति और उसके वैभव का वह ठाठ उठ गया जो कभी संस्कृत साहित्य, मध्यकालीन हिंदी साहित्य या छायावादी कवियों में दिखाई पङता है। ऐसे में राजकिशन नैन की निबंधात्मक पुस्तक ‘लोक में ऋतु’ न सिर्फ पठनीय व विचारणीय है बल्कि प्रशंसनीय भी। क्योंकि वे उपर्युक्त वैश्विक और स्थानीय मुद्दों और समस्याओं को अलग – अलग संदर्भों में उठाते हैं।
राजकिशन नैन का मन लोकराग में भीगा है। वे लोक के गहरे जानकार और चितेरे हैं। पेङ – पौधे, जंगल - नदी, पशु – पक्षी, पर्व – त्योहार, फूल – फल, प्रकृति का सृजन, संहार और पुनर्सृजन को उन्होंने जितना कैमरे की आंख से देखा है उससे ज्यादा उसमें डूब – उतरा के। उन्होंने प्रकृति, ऋतुएं, लोकजीवन, ग्राम्यगीत, प्रेमगीत, ऋतुगीत, लोकपर्व एवं त्योहार आदि को भाषा में मूर्त्त कर दिया है। फोटोग्राफी के व्यवसाय ने उन्हें हर चीज को दृश्य बना देने का सामर्थ्य दिया। वे प्रकृति के हर दृश्य को कैमरे में कैद करने की नजर से देखते हैं। यही कारण है कि कैमरे की बाहर की दुनिया भी बेहद निराली व आकर्षक है। उन्होंने लोकजीवन व प्रकृति की रंगिनियों को पूरे कलात्मक औदात्य के साथ पन्नों पर उतारा है। हरियाणी प्रकृति और लोक का विराट वैभव और विपुल संपदा को यहां ठाठ से पढ़ा और महसूस किया जा सकता है। उनके निबंध कई बार आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी और विद्यानिवास मिश्र की याद दिलाते हैं। प्रकृति वर्णन द्विवेदी जी के आसपास है तो लोक की अंतरंगता विद्यानिवास के साथ तादात्मय बनाता है।
राजकिशन नैन की पुस्तक में प्राकृतिक सुषमा व लोकजीवन का जो ठाठ उभरा है वह हरियाणा प्रदेश का है। उनके संस्मरणात्मक अनुभव ने हरियाणा के लोकजीवन व प्रकृति का इतिहास रच उसे संरक्षित किया है। अरावली की सुरम्य पहाङियां, हरे – भरे समतल मैदान, उफनती - भागती नदियां, बालू के सुनहरे टीले। संरक्षण का यह भाव ऋतु दर ऋतु दिखाई पङता है। वसंत की मादकता, फगुनाहट, शिरीष के फूल, ढाक के दहकते पुष्प, पलाश के धधकते सूर्ख अंगार जैसे जंगल, शहतूत, चंपा, नीम, आम्र मंजरियों की मदमाती महक, महुए की ठर्राती गमक, फाल्गुनोत्सव के उत्साह और मादकता तो जेठ की दहाङ भी सुनाई पङती है। उसकी दारुण – दाहक, तुनकमिजाजी और बेहया रूपों का भी उदघाटन होता है। ऋतुओं की रानी वसंत जेठ से थरथर कांपती है। यह कोयल की मधुर तान की भी बेकद्री करती है। उसके उग्र स्वभाव से वरुण ही बचाता है। राजकिशन कहते हैं वरुण ही मुझमें आनंद और उमंग भरता है। जेठ के मिजाज को कभी सूखा तो कभी तीखा बताते हैं। उससे बचने के लिए उन्हें तरबूज, खरबूजा, आम का पन्ना, सत्तु, छाछ, गुङ का रस याद आते हैं, जो धीरे – धीरे हरियाणा प्रदेश से गायब हो रहे हैं और उसकी जगह मल्टीनेशनल कंपनियों के पेय पदार्थ कोक – पेप्सी जगह बनाते जा रहे हैं।
राजकिशन वर्षा ऋतु को धरा और मनुष्य को बल प्रदान करने वाले ऋतु मानते हैं। पावस के सुन्दर फूलों कमल, मेंहदीं, हरसिंगार और रात की रानी के बगैर उनकी बात अधूरी रह जाती है। सावन के गीतों और भाव लहरियों को वक्त के धूंधलके में खो जाने की टीस भी गूंजती है। वे शरद की खूबियों को लोकोत्तर बताते हैं। उसके पीतवर्णी इच्छाओं और सतरंगी दुनिया को खोलते हैं। हेमंत के हरे दुपट्टे ओढ़ लेने के दृश्य को साकार करते हैं। उसके विपूल वैभव और रूप सौष्ठव की ख्याति को दृश्यमान करते हैं। ऋतुओं की साम्राज्ञी शिशिर को एक तरफ संभावनाओं का तो दूसरी तरफ जानलेवा भी कहते हैं।
आम तौर पर यह देखने को मिलता है कि लेखकों ने प्रकृति वर्णन करते हुए मनुष्य की केंद्रीयता को बनाए रखा है। राजकिशन भी ऐसा करते हैं। प्रकृति की हरकतों, स्वभावों एवं गति को मानवीय भावों एवं स्वभावों से जोङते हैं। बाबजूद इसके वे ऋतुओं की स्वायतता एवं स्वतंत्र सत्ता को भी उदघाटित करते हैं। उसकी विशेषताएं, स्वभाव, जीवनशैली, प्राकृतिक वैभव, सौंदर्य, कलात्मक अभिव्यक्ति, आतंरिक अनुशासन, बदलाव, सृजन, विनाश और पुनर्सृजन, को सर्जनात्मक तरीके से रखते हैं। उसकी आवयविक और नैसर्गिक संरचना का बखान करते हैं। ऐसा करते हुए वे पेङ, पौधे, फूल, - फल, जंगल – जमीन, नदी – पहाङ, जोहङ, ओस - धूंध, बादल और धूप सब से बतियाते हैं। प्रकृति को अराध्य की तरह मानते – पूजते हैं। प्रकृति को केवल ऋतुओं की मां नहीं बल्कि अपनी मां मानते हुए – ऐसा समझने पर बल देते जान पङते हैं। प्रकृति को सेविका, सहचरी और शिक्षक का भी दर्जा देते हैं। वे प्रकृति की आध्यात्मिकता को उदघाटित करते हैं। वे लिखते हैं ‘हमारा शरीर जिन पांच तत्त्वों का पुतला है, वे हमें प्रकृति से मिले हैं’। इसलिए उसकी अखंडता के संरक्षण के प्रति उनमें तङप भी है। वे मानते हैं कि प्रकृति के नियमों के संरक्षण में ही हमारा उत्थान है और उसके बिगाङ में ही पतन।
उदय प्रकाश की भाषा में कहें तो राजकिशन जी ने ‘ग्राम्य जीवन और ऋतुओं के घनिष्ठ संबंधों को समझा है। साथ ही वे प्रकृति की सभी विशेषताओं और बदलावों के साक्षी भी रहे हैं’। चाहे वह ऋतुओं का राजा वसंत हो, या ऋतुओं की रानी शिशिर, चौमासे के मानसूनी मेघ हों या लू - लपटों का मारू महीना जेठ हो, या फिर मादक मनोहर शरद ऋतु हो। सबके साथ उनका गहरा लगाव व तादात्मय है। वे प्रकृति के सभी रूपों की स्थूल एवं सूक्ष्म अंकन करते हैं। वे प्रकृति के निकट हैं और प्रकृति उनके निकट। उनका ह्रदय ऋतुओं की आगवानी के लिए दौङा पङता है। उनकी स्मृति में हरियाणा की प्रकृति, ऋतुएं एवं लोकजीवन तथा उसके मुहावरे, लोक गीत - संगीत आदि ताजा हैं। उन स्मृतियों के आख्यानात्मक प्रतिफलन के रूप में इस पुस्तक को देखा जा सकता है। लेकिन जिस तरह से हमारा अज्ञान प्रकृति को उजाङ रहा है। प्रदूषण नष्ट कर रहा है, बढ़ता उपभोक्तावाद और अतिरिक्त उत्पादन नष्ट करने पर उतारु है वह उनके लिए स्थायी चिंता के विषय हैं।
पुस्तक – लोक में ऋतु |
लेखक – राजकिशन नैन |
प्रकाशक – आधार प्रकाशन, पंचकूला |
मूल्य – 200 रुपये |