प्रभात रंजन की आठ कहानियों का नया संग्रह ‘बोलेरो क्लास’ आया है। यूं तो ज्यादातर कहानियां पत्र – पत्रिकाओं में प्रकाशित हो चुके हैं। बाबजूद इसके इन कहानियों को पुस्तकाकार रूप में पढ़ना इसलिए अलग है क्योंकि ज्यादातर कहानियां छोटे – छोटे शहरों मसलन मुजफ्फरपुर, सीतामढ़ी से होते नेपाल के बार्डर एवं उन्हीं इलाकों के कस्बाई एवं ग्रामीण जीवन के संदर्भों का कोलाज बनाते हुए आगे बढ़ती है। ये कहानियां ठेठ स्थानीय संदर्भों से जुङकर भी व्यापक दायरे को समेटती है। यह जितनी उत्तरी बिहार के लोकल यथार्थ को परद दर परत उघाङती, उतना ही बिहार के अन्य भागों पर भी लागू होती है। स्थान और परिवेश के बदलाव कहानियों के स्वरूप को न तो बिगाङते हैं न ही आस्वाद की प्रक्रिया को भंग करते हैं। बदलाव की यह प्रक्रिया चौतरफा देखी जा सकती है। ये कहानियां विकास की नयी पेंचदार, जटिल और बिडम्बनात्मक असाधारण स्थितियों का बयान करती हैं। नवयुवकों के आगे बढ़ने की महत्वकांक्षा, उसके ऊंचे – ऊंचे सपने, आसमां की बुलन्दियों में उङने की लालसा, वक्त के साथ कदमताल करने की कोशिश, आर्थिक समृद्धि के प्रति ललक, झलक मारती है। लेकिन अवसरों का बंद दरवाजा, बेरोजगारी, श्रमहीनता के साथ आगे बढ़ने की कोशिश उन्हें अंधी अपराधिक सुरंगों में धकेल देती है।
निश्चित स्थान और परिवेश के बुनाबट के भीतर ये कहानियां अपने समय के गंभीर सवालों से बिंधी है। वैश्विक आर्थिक – सांस्कृतिक चिंताएं, मल्टीनेशनल कंपनियों की साम्राज्यवादी नीतियां, चमकता – दमकता पसरता बाजार और लालच की दुनिया, सामाजिक – राजनीतिक रुतबे के साथ – साथ अमीरी के घोङे पर सवारी, तस्करी और अपराध के सहारे जैसे – तैसे सफल हो जाने की प्रवृति और धूरीहीन लोकल राजनीति की बिडम्बनाओं एवं विद्रूपताओं से नत्थी ये कहानियां वक्त के उजले दीवार पर कालिख पोतती चलती है।
दूसरे शब्दों में कहें तो पिछले पंद्रह – बीस वर्षों की तेज आर्थिक – राजनीतिक – सामाजिक बदलाव ही कथा में रूपकों बनकर आए हैं। यह बदलाव जितना आंतरिक स्तर पर घटित हुआ है उतना ही वैश्विक स्तर पर। बदलाव के दोनों रूप एकाकार होकर हिंदुस्तानी गांवों और समाजों को जिस कदर बदल रहे हैं, उसकी रूपात्मक - कथात्मक अभिव्यक्ति ‘बोलोरो क्लास’ में पढ़ी जा सकती है।
‘इंटरनेट, सोनाली और सुबिमल मास्टर की कहानी’ आंशिक एकतरफा प्रेमकथा का अहसास कराती हुई फरेब की बङी दुनिया की कथा कहती है। सुबिमल मास्टर अपने अंदर पटकथा लेखक का सपना पाले टीवी की दुनिया में शामिल होने निकल जाता है। लेकिन उसी सोनाली के द्वारा छला जाता है जिसके सपने देखता है। जिसपर उसे भरोसा है। जिसके सहारे अपनी सफलता और प्रतिभा के झंडे गांङने के ख्बाब देख रहा था। सफलता के बाजार में मानवीय संबंध, भरोसा और प्रेम सब बेमानी हो गए हैं। तकनीक और भोलेपन का संबंधवैचित्र्य सुबिमल को अपराधी ठहरा देता है। सोनाली छल और फरेब के सहारे सफलता की ऊंचाइयों पर पहुंच जाती है। यह कथा कस्बाई सपने का महानगरीय चकाचौंध में समाप्ति की बारीक ट्रैजिक आख्यान को सामने रखती है।
प्रभात रंजन ने अपनी कथा टेक्नीक में आउटसाइडर और इनसाइडर दोनों ही नैरेटर का इस्तेमाल बखूबी किया है। यही वजह है कि वे आख्यान को मनमाफिक रूप में खींचते चलते हैं। अवांतर प्रसंगों से मूल कथा के मांस - मज्जा को तैयार करते हैं। ऐसा करते हुए वे बहकते या भटकते नहीं हैं बल्कि मूलकथा में ताकत भरने की कोशिश करते हैं। वे उपकथाओं की शृंखलाएं बनाते हैं। जहां कहीं भी कथावाचक का आभाव दिखता है वहां लेखक बार – बार यह बताने की कोशिश करता है कि ऐसा लोगों का मानना है, फलाने के मुंह से सुनी गई है, अफवाहों से पता चला है, लोक किवदंति है, अखबार या टीवी ने ऐसा बताया है। कथा कहने कि यह नैरेटिंग टेक्नीक न सिर्फ आकर्षक, प्रभावशाली बन पङी है बल्कि बेहद विश्वसनीय और कस्बाई कथा के उपयुक्त भी। प्रभात कथा को आमतौर पर सपाट दौङाते हैं। वे नाटकीयता के बजाए जंपिंग में ज्यादा भरोसा करते हैं। वे जरुरी होने पर एक प्रसंग से दूसरे पर जंप करते हैं।
‘फ्रांसीसी रेड वाइन’ भी चंद्रचूङ के बिखरते सपने के आख्यान का बयान करती है। उपहार में मिले वाइन की महिमा को प्रभात ने तरह – तरह से कथा में इस हद तक उभारा है कि वह स्टैटस सिंबल के अलावा सभी परेशानियों से मुक्ति का हल बन जाता है। चंद्रचूङ यह मानने लगते हैं कि छोटे शहर में इस रेड वाइन के सहारे नेता, अफसर, मंत्री, गुंडे सभी को साधा जा सकता है। भविष्य निर्मात्री यह वाइन उसी को भेंट दिया जाए जिनसे काम साधा जा सके। स्टैटस हासिल किया जा सके। सुरक्षा भी। लेकिन अंतत: वह पत्नी से टूट कर बिखर जाता है और उसके सपने बिखर जाते हैं। इस कथा में वाइन के बहाने सामाजिक मानसिकता, दफ्तरी नौकरशाही लोकतंत्र और असुरक्षित साधारण नागरिक की कथा को सामने रखा गया है।
प्रभात ने बहुत ही साधारण और वास्तविक पात्रों के माध्यम से अपनी कहानी को कहने की कोशिश की है। ‘फाव की जमीन’ भूमाफिया के बढ़ते आतंक को मेटाफर बनाकर प्रस्तुत करता है। मल्टीनेशनल कंपनियों के हितों को साधती विकास की भूखी सरकारें, राजनीतिक अखाङे के पहलवान और लोकल रंगदारों की नजर किस हद तक बेशकीमती जमीनों के अधिग्रहण एवं कब्जे पर है, इसका नजारा यहां देखा जा सकता है। यह जमीन जो चितरंजन बाबू का सपना था, सरकार औने – पौने दामों में अधिग्रहित कर लेती है। और लोगों के लिए छोङ देती है तो महज दंतकथाएं। फाव की जमीन फाव में चली गई।
‘अथ कथा ढेलमरवा गोसाईं’ भगत जी के जीवन संघर्षों और विक्षिप्तताओं के माध्यम से अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर चल रहे प्राकृतिक संसाधनों की लूट – खसोट और तस्करी के रूपक को सामने लाता है। लोक जीवन में आयुर्वेदिक चिकित्सा मुफ्त सेवा थी जिसे बङी – बङी कंपनियों ने हथियाकर बाजार और उसके माध्यम से धन उगाही का जरिया बना लिया। प्रभात अपनी इस कहानी से एक ऐसे महाआख्यान को रचते नजर आते हैं जिसमें साधारण हुनरमंद व्यक्ति बङी सत्ताओं और बाजार के खिलाङियों के आगे दम तोङता नजर आ रहा है। इंदर सत्याग्रही भी राजनीतिक लुच्चई और बङबोले मीडिया का गंभीर शिकार बनता है। आज बोलोरो क्लास समाज की मानसिकता है। यह ऐसी अभेद संरचना बनती गई है जिसमें नैतिकता, ईमानदारी, श्रम और आदर्श के लिए कोई जगह नहीं बची है। बोलेरो क्लास षडयंत्र, अपराध, देह व्यापार और राजनीतिक रंगदारी के कुचक्र से गुथा है। जो लगभग आबोहवा बनती जा रही है।
प्रेम और कैरियर के महीन धागों से बुना आख्यान ‘एक प्रेम कहानी का अनुवाद’ है। प्रेम असली संघर्ष का रूप तब लेता है जब जातिगत विषमताएं और मनचाही कैरियर की फिसलन भरी सङकें सामने आ जाती है। एकतरफ कथानायक का कैरियर में असफलता तो दूसरी तरफ नायिका का प्राइवेट कंपनी में तनावपूर्ण अनुवाद प्रोजेक्ट और उस बीच परिवार का दबाब प्रेम के स्वर को उल्लास में बदलने के बजाए निराशा के रास्ते ढकेलता रहता है। इन्हीं निराशाओं और आशंकाओं के बीच यह प्रेम झुलता रहता है।
प्रभात कस्बाई जीवन के देखे चरित्र, जीवन शैली, मुहावरे, भाषा और लोक फंतासी के सहारे ही कहानी को आगे बढ़ाते हैं। भाषा में सहजता, रवानगी, साफगोई निश्चित रूप से आकर्षित करते हैं। पठन के लिहाज से भाषा कभी पाठकों के बीच बाधक नहीं बनती है।
पुस्तक – बोलेरो क्लास |
लेखक – प्रभात रंजन |
प्रकाशक – प्रतिलिपि बुक्स, जयपुर |
मूल्य – एक सौ पचास रुपये |