बींसवी सदी के ढलते वर्षों में आत्मकथा ने विधागत स्तर पर एक नयी पहचान बनानी शुरु की। यह पहचान उसे हाशिए की संवेदना और स्वानुभूति की अभिव्यक्ति के कारण मिली। ‘नेम नॉट नोन’ सुनीलकुमार लवटे की ऐसी आत्मकथा है जो हाशिए की संवेदना, स्वानुभूति, वैचारिकी और आत्मकथ्य की परिधि को न सिर्फ बढ़ाती है बल्कि दृष्टि और आयाम के नये फलक को खोलती है। मुख्यतौर पर अभी तक दलित और कमोवेश आदिवासी आत्मकथाओं ने ही पहचान बनायी थी, लेकिन अब वेश्याओं, नौकरानियों और अनाथों की आत्मकथाओं ने इसके व्यास को चौङा कर दिया है। सुनीलकुमार लवटे अनाथाश्रम में जन्मे, पले और बङे हुए हैं। मां, बाप, रिश्तेदारों से विहीन उन्होंने एक नम्बर (संख्या) के रुप में रिमांड होम में अपराधी बच्चों के बीच अपनी आंखे खोली है। जिनके नाम की जगह लिखा था ‘नेम नॉट नोन’। लेकिन वे आज ‘वेलनोन’ सोशल एक्टिविस्ट, लेखक, अनुवादक, समीक्षक और प्राचार्य हैं। महज एक संख्या से चर्चित संज्ञा बनने के उनके संघर्षमय जीवन की जीवंत दास्तान को इस आत्मकथा में पढ़ा जा सकता है। लवटे लिखते हैं – ‘मेरी जमीन प्रश्नों से लबालब भरी थी। मेरे जन्म से पहले ही जन्मदाता पिता विश्वामित्र बन गए, इसलिए जन्म देनेवाली मॉ ने आजीवन कुंती बने रहना पसंद किया। इसी कारण मेरे नसीब में अनाथाश्रम की जिंदगी आई। मैं अनाथाश्रम में ही पला – बढ़ा... मेरी फाइल में मनुष्यता के कोई निशान नहीं थे... मैं था केवल पुरुष जाति का एक मामूली जीव... इसीलिए मेरा नाम नहीं था। पहचान के तौर पर केवल कोर्ट द्वारा दिया गया एक नंबर था... फाइल के अनुसार मैं ‘नेम नॉट नोन’ था। मूलत: मेरे मनुष्य होने को ही नकारनेवाले इस समाज ने मेरी उम्र तक एक्स – रे मशीन से तय की थी’।
यह एक हीरोइक आत्मकथ्य है। समाज में फैले यथास्थितिवाद को तोङने वाला। संरचनात्मक स्तर पर बदलाव लाने के लिए अदम्य जिजीविषा का परिचय देने वाला। व्यवहारिक जीवनसंग्राम में कूदनेवाला। जीवन, कर्म और दृष्टि के बीच अटूट संबंध बनाने वाला। यही कारण है कि यह आत्मकथा दलित आत्मकथाओं से कई मायनों में अलग है। दलित आत्मकथाओं में लेखक का जीवनसंघर्ष, उसकी यातना, उपेक्षा, उत्पीङन का जिक्र तो मिलता है, यहां तक कि सफल होने और बेहतर मेट्रो जीवन जीने का भी। लेकिन अपनी स्वानुभूति को स्वविवेक में बदलकर उस कलुषित और उपेक्षित जीवन को बदलने के लिए ताउम्र संघर्ष करने की नहीं। प्रतिकूल परिस्थितियों में संघर्ष करना और बने - बनाये सांचे को तोङकर उसे बदल देना, साधारण बात नहीं है। सुनीलकुमार लवटे ने यह किया है जिसके विवरण और प्रमाण आत्मकथा में फैले हैं।
सुनीलकुमार लवटे को जो जीवन हासिल था उसे वे इन शब्दों में परिभाषित करते हैं – नीचे धरती, ऊपर आकाश। दलित जीवन से भी उपेक्षित जीवन था उनका। या कहें अनाथों का जीवन दलितों से भी ज्यादा भयावह है। लवटे का जन्म सुमन नाम की कुवांरी मां की कोख से ऐसे आश्रम में हुआ जहां कोई कुवांरी माता होती, कोई विवाहेतर नाजायज संबंधों के कारण बनी माता होती तो कोई परित्यक्ता। जन्म देकर सुमन बच्चे को आश्रम के भरोसे छोङ गयी। तब उमाबाई ने अपने बच्चों के साथ इसे भी पाला – पोसा। आश्रम ही घर बना। यहीं पल रहे लङके और लङकियां भाई – बहन। नाते – रिश्तेदार। इन मुंहबोले रिश्तों में खून के रिश्ते से ज्यादा उष्मा और सहजता थी। जिसे समाज ने ठुकराया था, रिश्ते और संबंधों से अलगकर अभिशप्त जीवन दिया था उसे आश्रम ने जीवन दिया, लङखङाते पांवों को ताकत और अकृत्रिम संबंध भी। इन संबंधों को लवटे ताउम्र निभाते हैं। हर बार उसे मानवीय तरीके से परिभाषित करने की भी कोशिश करते हैं। साथ ही समाज में नक्कारा किस्म की जीवित संबंधों की जटिलता, तिकङम, स्वार्थ और अवसरवादी रवैये पर टिकी इस व्यवस्था की व्यंग्यगात्मक आलोचना भी करते हैं।
हर समाज अपने उजाले के बीच अंधेरे को निष्पाप साबित करने के लिए ऐसे आश्रम या अनाथालय बनाकर रखता है जिसमें उसकी चादर उजली लगे। अनाथ बच्चों के जन्म की पूरी जबाबदेही स्त्रिओं के सिर मढ़ दी जाती है। फिर उसे आश्रम जैसे जगहों में नजरबंद कर दिया जाता है। आश्रम मर्दाना समाज की झूठी नैतिकता, प्रतिष्ठा और पवित्रता पर पर्दे डालने का काम करता है। लवटे आश्रम को करुणालय की संज्ञा इसीलिए देते हैं कि यह मानव अधिकारों से अपह्रत जिन्दगी को जीवन देता है। उपेक्षितों, वंचितों, यतिमों को अपनी कोख में पालता है / जगह देता है। लवटे आश्रम की आंतरिक संरचना की चर्चा करते हैं। और दैनिक जीवन में आनेवाली मुश्किलों तथा यांत्रिक जीवनशैली से पाठकों को रु – ब – रु कराते हैं। सामाजिक रुप से बहिष्कृत यह आश्रम, समाज के सभ्य लोगों के लिए महज एक अजायबघर से ज्यादा कुछ नहीं था / है। तथाकथित सभ्य लोगों द्वारा और सरकारी अनुदान से चलनेवाले इस आश्रम में लवटे का बचपन गुजरा। तीसरी कक्षा में दाखिले के वक्त लवटे को कोल्हापुर के रिमांड होम में ले जाया गया। रिमांड होम की संरचना आश्रम से भी भयावह थी। लगभग सैन्यीकृत ढंग की। आश्रम में मातृत्व की भावना थी जबकि रिमांड होम लगभग पितृसत्तात्मक। सफाई, भोजन, बर्तन, कपङे से लेकर टायलेट साफ करने और फर्श पोंछने तक का काम करना पङता था। सरकारी पैसे और संसाधन की लूट होती थी। और बच्चों को नारकीय जीवन जीने को मजबूर होना पङता था। रिमांड होम एक किस्म से जेल की कैदखाना थी। बाबजूद इसके लवटे ने अपना जीवन संघर्ष जारी रखा। प्राध्यापक उसके जीवन की ताकत बन कर उभरे। हर संभव मदद की। राष्ट्र निर्माण के उस दौर में प्राध्यापकों के अंदर नैतिकता और आदर्श भरे थे। नये भारत के निर्माण का सपना उनके मन में बसा था। पैसे, ज्ञान और सहानुभूति तीनों हासिल करने में लवटे सफल रहे। पढ़ाई आगे बढ़ती गयी और मुश्किलें आसान। मेहनत और विश्वास ने रंग दिखाया। अनाथाश्रम – रिमांड होम के इतिहास में पहली बार ऐसा हुआ कि लवटे को ‘सर्टिफिकेट ऑफ मेरिट’, कॉलेज डिग्री और ‘रोल ऑफ ऑनर’ की हैट्रिक हासिल हुई।
इन्हीं वर्षों में लवटे की रचनात्मकता ने जन्म लिया। साहित्यिक गोष्ठियों में शिरकत बढ़ी। वे प्राध्यापक बनने में सफल रहे। अब तक का संघर्ष सफल होने को दर्ज करती है। इसके बाद संघर्ष के ढंग में बदलाव आता है। चुनौतियां मुंह बाये खङी होती है। वे ऐसे स्कूल में प्राध्यापक बनते हैं जहां बुनियादी सुविधा तक हासिल नहीं है। यहां तक कि पढ़ने के लिए छात्रों को जमा करना, उन्हें स्कूल आने के लिए प्रोत्साहित करने तक का भी काम करना पङता है। लेकिन उन्होंने लगन और मेहनत से सब कर दिखाया। प्राध्यापकीय व्यावहारिकता से निरंतर अपने ज्ञान, सोच और दृष्टि में परिवर्त्तन लाते गये। अपने जीवन में लगातार कैसे विकास किया जाए और लोकतांत्रिक मूल्यों को भी बचाये रखा जाए इस दृष्टिकोण से भी आत्मकथा को पढ़ा जा सकता है।
लवटे ने स्कूल की मास्टरी करते हुए पीएच.डी की डिग्री हासिल की। संघर्ष का एक रुप यहां भी दिखता है। जिस स्कूल में पढ़ा वहीं टीचर हो गये। यह बहुत बङी उपलब्धि थी। स्कूल में आंतरिक लोकतंत्र कायम करने के लिए भी जद्दोजहद की। बाद में स्कूल की स्थायी नौकरी छोङकर अस्थायी रुप में कॉलेज ज्वाइन किया। जीवन के आदर्श को मूल्य की तरह मानते हुए आश्रम में ही पली-बढ़ी रेखा से विवाह किया। और धीरे – धीरे रिमांड होम के लिए काम करने लगे। इस आत्मकथा की ताकत यही है कि सफल होने के बाद भी लवटे में सफलता की मदहोशी नहीं छाई। उन्होंने अपनी दृष्टि और उर्जा को रिमांड होम को बेहतर बनाने में झोंक दिया। संस्था को मानवीय चेहरा प्रदान किया। नीरस जीवनशैली को तोङ नये रस का संचार किया। रिमांड होम को ‘घर’ का स्वरुप प्रदान किया। उसे मातृमयी बनाया। ममता के संचार से स्नेह – सहयोग बढ़ा। अब लोग नंबरों से नहीं, नाम से पुकारे और पहचाने जाते थे। यह मामूली परिवर्त्तन नहीं है। धीरे – धीरे उन्होंने रिमांड होम और उस जैसी अन्य संस्थाओं के नाम बदल दिए। नाम का बदलना दरअसल दृष्टि और विचारधारा का बदलना था। संस्था के भीतर नये युग के आगमन की सूचना थी। लवटे ने अपने प्रयास से उसे सांस्कृतिक केंद्र में बदलने की कोशिश की। उसमें भी सफल रहे। ऐसा भी वक्त आया जब संस्था को देश – विदेश से मदद मिलने लगी। बच्चों को गोद लिए जाने के लिए समारोह आयोजित किए जाने लगे। बच्चों को विदेश तक भेजा जाने लगा। अनाथ, उपेछित, बेसहारा बच्चे सनाथ होने लगे। उन्हें बेहतर जीवन और समाज मिलने लगा। वे सफल होकर डाक्टर, इंजीनियर, टीचर बनने लगे।
लेकिन संस्था को इस मुकाम तक पहुंचाने में लवटे ने अपना जीवन झोंक दिया। सामाजिक कार्यकर्ता के अनुभव के कारण उन्होंने सार्क बालिका वर्ष, बालन्याय अधिनियम, बच्चों की वैश्विक दशा, वंचित विकास, दत्तक समस्या, महिला मुक्ति, अपाहिज पुनर्वासन जैसे विषयों पर विशेषांक भी निकाला। सामाजिक सोच में बदलाव लाया। यही स्वानुभव और कर्मशीलता उन्हें अन्य आत्मकथाकारों से अलग करती है तथा दूसरों के सामने चुनौती के रुप में रखती है।
लवटे की इस आत्मकथा से गुजरते हुए हम संघर्ष और रचनात्मकता के जिस अद्वितीय मेल को यहां पढ़ते हैं वह असाधारण है। यह उम्मीद भी जगती है कि अभी सब कुछ नष्ट नहीं हुआ है। राजनीति, भ्रष्टाचार, अवसरवाद और स्वार्थ ने सबकुछ निगल नहीं लिया है। इच्छाशक्ति, दृढ़निश्चय और दृष्टि हो तो अबूझ और लालफीताशाही के जटिलतंत्र के भीतर भी बदलाव की बयार बहाई जा सकती है। साहित्यिक और सामाजिक मोर्चे पर आज भी सुनीलकुमार लवटे सक्रिय हैं यह बेहद आश्वस्तिकारक और प्रीतिकर है। यह आत्मकथा आत्मप्रशंसा के लिए नहीं लिखा गया है दुष्यंत के शब्दों में कहें तो- ‘कोई हसीन नजारा तो है नजर के लिए’।
पुस्तक - नेम नॉट नोन |
लेखक – सुनीलकुमार लवटे |
प्रकाशक - राधाकृष्ण, नयी दिल्ली |
मूल्य - 250 रुपये |
राजकुमार
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