शनिवार, जून 04, 2011

स्त्री विमर्श के नए तेवर

बींसवी सदी के उत्तरार्द्ध में पश्चिमी अकादमिक जगत में स्त्री चिंतन की व्यवस्थित और बङी दुनिया खुलकर सामने आयी। इसका असर भारतीय उपमहाद्वीप पर भी पङा। स्त्रियों से संबंधित तमाम मसले चाहे वह लिंग संवेदना, स्त्री यौनिकता, देह विमर्श, स्त्री मन, लेस्बियनिज्म हो या उनकी कार्य – कुशलता / योग्यता की समानता, समान मजदूरी आदि - आदि पर गंभीर विचार – विमर्श हुए हैं। प्रमीला के.पी. ने अपनी आलोचनात्मक पुस्तक “स्त्री : यौनिकता बनाम आध्यात्मिकता” में स्त्रियों से संबंधित इन सैद्धांतिक मसलों पर बहस की ही है उसे व्यावहारिक एवं साहित्यिक रूप भी देने की कोशिश की है।
प्रमीला अपनी दृष्टि में कोई झोल झाल नहीं रखती। बहुत ही स्पष्टता से स्त्री – पुरुष समानता की सैद्धांतिक बहस जो पश्चिमी दुनिया से चलकर अन्य भूभाग तक फैली को खारिज कर देती हैं। ‘समानता’ की इस आदर्श स्थिति की जगह वह ‘लिंग संवेदना’ को महत्व देती हैं। स्त्री – पुरुष पूरकीय स्थिति की। उनका मानना है कि न सिर्फ जैविक रूप से स्त्री – पुरुष असमानता है बल्कि सांस्कृतिक – सामाजिक – राजनीतिक स्तर पर भी है। दोनों को कसने की कसौटी भी अलग – अलग हो सकती है। इसलिए पितृसत्तात्मक समाज में समान अवसर उपलब्ध कराना वक्त की जरूरत है।
मध्यकालीन समाज में फैली स्त्री – पुरुष असमानता और स्त्री प्रतिमान भी औपनिवेशिक काल और उसके उत्तरार्द्धमें परिवर्त्तित रूप में जिंदा रही। औपनिवेशिक भारत में स्त्रियों के प्रतिमान लगभग विक्टोरियन या ओरियंटल – प्राच्यवादी ही प्रतिष्ठित हुए। राष्ट्र्वादी दौर में भी स्त्री - प्रतिमान मर्दों ने अपने अनुकूलन के हिसाब से गढ़ी। ग्रामीण और शहरी स्त्रियों की अलग – अलग स्टीरियोटाइप छवि बनाई। उसी के अंदर बंधकर जीने को विवश किया। पढ़ी – लिखी और आर्थिक रूप से संपन्न स्त्रियां भी पितृसत्तात्मक जकङबंदी से मुक्त नहीं हो पायी। उत्तर – औपनिवेशिक दौर में जब स्त्री विमर्श पर बहसें शुरू हुई लिंगगत समानता की बहसें सामने आयी लेकिन उनके स्त्रीत्व को महत्व नहीं दिया गया। अत: आज समस्त क्षेत्रों में लिंग स्तर की पुनर्व्याख्या, स्त्रीत्व का सम्मान और लिंग संवेदना का प्रसार जरूरी है। प्रमिला स्थापित करती हैं कि स्त्रीपक्षीय मान्यताओं की स्वीकृति से ही स्त्री सशक्तीकरण संभव है। प्रमीला अर्ज करती हैं कि जैसे “स्त्रियां पैदा नहीं होती बनायी जाती है वैसे ही पुरुष भी बनाए जाते हैं”। वह ‘पुरुष विनिर्माण’ की सख्त आलोचना करती हैं। आज के समय की जरूरत ऐसी बनायी जाने सामाजिक व सत्तागत संरचना को तोङना है, ताकि लिंग संवेदना पैदा की जा सके।
प्रमीला स्त्री विमर्श की बहुस्तरीयता को स्वीकारती हैं। उसी रूप में स्वीकार करने पर बल देती हैं। स्त्रीत्व की परंपरागत परिभाषा के अनुसार ‘पतिव्रता’ का भी खंडन करती हैं और वर्किंग बोल्ड वूमेन मतलब ‘पुरुष की तरह समान व्यवहार’ करने वाली का भी। घरेलू महिलाओं की भूमिका को बेहद महत्वपूर्ण मानते हुए दुनिया के विकास में उसके योगदान की सराहना करती हैं। देहवादी विमर्श का खिलाफत न करते हुए मानसिक व संवेदनात्मक पहलू को जोङने की बात करती हैं। होमोसेक्सुअलिटी को प्रकृति विरूद्ध साबित करने एवं उन्हें पहचान विहीन “अन्य” कर देने की साजिश का भी विरोध करती हैं। समलिंगी, वेश्या, पुरुष वेश्या, हिजङा आदि के प्रति सत्ता व समाज की उपेक्षा और असंवेदनात्मक स्थितियों का खंडन करते हुए मांग करती हैं कि वे मानसिक व संवेदनात्मक सुरक्षा के हकदार हैं। लिखती हैं - ‘सामाजिक समवाय में इनका जीवन भी महत्वपूर्ण है’।
पहले प्रकाशित अन्य शोध ग्रंथ व पुस्तकें भी इस बात को रेखांकित करती रही है कि पितृसत्तात्मक समाज हमेशा से स्त्री सेक्सुअलिटी / यौनिकता से खतरा महसूस करती रही है इसलिए उसे हमेशा नियंत्रित करने का प्रयास करती रही है। स्त्री देह को शैतानी चीज साबित करने की कोशिश की जाती रही है। स्त्रियों की यौनिकता को ‘अश्लील’ / पाप बताया गया जबकि पुरुषों को उसके पुरुषार्थ से जोङ दिया गया। स्त्रियों के देह दमन को कुलशीलता से नत्थी किया गया जबकि पुरुषों को ऋषिसत्व से नवाजा गया। पुरुषस्वत्व संपूर्ण है जबकि स्त्रीस्वत्व पुरुष के बगैर अधूरी। स्त्रियों को अशुद्ध साबित किया गया जबकि पुरुषों को मोक्ष का अधिकारी। यह अशुद्धता स्त्रियों को आध्यात्मिक स्वतंत्रता से वंचित रखने की कोशिश थी। प्रमीला देह की अभिव्यक्ति और यौनिकता को मानव की मूलभूत जरूरत मानती हैं।  
प्रमीला स्त्री – पुरुष यौनिक संबंधों में सहज आनंद की अवस्था को आध्यात्मिक मानती हैं। यह तभी संभव है जबकि दोनों के बीच सहज समभाव संबंध बनते हैं। देह के साथ आत्मा का भी स्पन्दन शामिल होता है। दोनों की अनुभूतियां समान होती हैं। जब से देहकार्य या काम के अर्थ सिमटे हैं प्रेम के अर्थ पलट गए हैं। जहां यौनिकता आक्रमकता रुख अपनाती है, युग्मों के लिए खतरनाक होती है। वे आध्यात्मिकता की तरह ही यौनिकता को व्यक्ति की निजी रुची और स्वचयन मानती हैं।
दिनकर की ‘उर्वशी’ में देह – विमर्श के पुनर्पाठ को खोलती हुई स्थापना देती हैं कि उर्वशी परंपरा विरोधी है। वह देह को शक्ति मानने वाली है। यौनिकता की अपनी परिभाषा गढ़ने वाली है। पुंसत्व की विनिर्मिति को नकारने वाली है। वह स्त्री की भावशुद्धि, यौनशुद्धि, क्षमा, सहनशीलता आदि मान्यताओं को ध्वस्त करने वाली है। प्रशिक्षित व विनिर्मित यौनिकता की विरोधी है।
प्रमीला ‘लेस्बियन नेशन’ को स्वनियंत्रित राष्ट्र मानते हुए भारत जैसे राष्ट्र में इसकी अनुपयोगिता को दर्शाती हैं। हालांकि वे उसके प्रति पूर्ण सहानुभूति से विचार करती हैं और पाठकों से भी ऐसी उम्मीद जताती हैं। स्त्री समलिंगियों पर हिन्दी में कम लिखा गया है। प्रमिला इस कमी को पूरा करती हैं। वे यौन अधिकार को मानव अधिकार से जोङकर देखने की हिमायती हैं। वे हिन्दी सिनेमा में उभरे सौंदर्य और यौन विनिर्मिति की भी सख्ती से आलोचना करती हैं। स्त्रियों को पण्य बना देने और शारीरिक आनंद को उभार देने की कोशिश की चीरफाङ भी करती हैं। प्रमीला की यह पुस्तक स्त्री विमर्श पर सुचिंतित बहस को आगे बढ़ाने में मददगार होंगी, इसमें संदेह की गुंजाइश नहीं है।
पुस्तक – स्त्री : यौनिकता बनाम आध्यात्मिकता
लेखक – प्रमीला के.पी.
प्रकाशक – राजकमल प्रकाशन , दिल्ली
मूल्य – 200 रुपये



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