गांधी जयंती (2 अक्टूबर, 2010) के अवसर पर “गांधी माई फादर” फिल्म के बहाने गांधी के मूल्यांकन की एक दृष्टि -
हरिलाल की मौत का जिम्मेदार कौन है? पिता मोहनदास करमचंद गांधी या चरम राष्ट्रवादी, मानवतावादी महात्मा गांधी या उनकी उच्च आदर्शवादी नैतिकता, अकल्पनीय लेकिन बेहद नियंत्रित अनुशासित जीवन – पद्धति? आखिर कौन? खुद हरिलाल तो नहीं? क्या उसकी उच्च धनाकांक्षा, अल्पबुद्धि, पथभ्रष्टता, स्वार्थपूर्ण भोगलिप्सा और जिद तो नहीं? ‘गांधी माई फादर’ फिल्म इस प्रश्न का जबाब नहीं देती है। ‘ट्रैफिक सिग्नल’ भी दर्शकों पर अपने निर्णय नहीं थोपती है। यह सिनेमा में नया चलन है। लेकिन ‘गांधी माई फादर’ के संकट यह पैदा होता है कि हरिलाल की मृत्यु का जबाबदेह किसे मानें?
फिल्म से एक राय तो यह बनती है कि हरिलाल की मौत का जिम्मेदार गांधी का आदर्श और जीवन – पद्धति है। व्यक्ति, समाज और राष्ट्र को एक ‘प्रयोगशाला’ मानना है। वे अपने जीवन के ‘प्रयोग’ को दूसरों पर भी लादते थे। हरिलाल पर भी। हरिलाल अमूमनन उनकी कठोर जीवन – पद्धति से परेशान अनेक सवाल उठाता है। अपनी फटेहाली, खराब आर्थिक और मानसिक उद्विग्नता की अवस्था में सहायता भी मांगता है, लेकिन गांधी का उत्तर हमेशा की तरह यही होता था कि ‘तू मेरी राह पर चल’।
दूसरी राय यह भी बनती है कि हरिलाल की मृत्यु एक किस्म से आत्महत्या है। वह अपनी गलतियों के लिए खुद जिम्मेदार है। वह गांधी के अर्जित ज्ञान, शोध – प्रयोग और अनुभवों से नहीं सीखता। सीखना नहीं चाहता। इसीलिए विक्षिप्त, गुमनाम मौत मरता है। उसमें एक सामान्य मनुष्य की सभी कमजोरियां हैं।
जितनी आसानी से ये निष्कर्ष निकल कर सामने आते हैं, मामला उतना आसान है नहीं। लाखों – करोङों को अपने रास्ते पर लाने, नई जीवन दृष्टि, विचार संपन्न बनाने वाले गांधी अपने बेटे को ही इस रास्ते पर क्यों नहीं ला सके। इसका जबाब तो दर्शन, मनोविज्ञान, अर्थविज्ञान, इतिहास और राजनीति की अनेक शक्तियों के साझा कोनों से ही आयेंगे। मनोविज्ञान तो कहेगा कि गांधी ने हरिलाल को कानून की पढ़ाई के लिए इंग्लैंड जाने से न सिर्फ रोका, बल्कि बार – बार हतोत्साहित और निराश किया। उसकी बाल – सुलभ जिज्ञासा, आशा – आकांक्षा, रुचियों का गला घोंटा । यह दमित इच्छा ही धीरे – धीरे मनोग्रंथि या कहें मनोरोग बन गई। उसकी बार – बार की मिन्नतें आखिरकार प्रतिक्रिया में बदल जाती है। यहां तक कि जब स्कॉलरशिप पर पढ़ाई के लिए विदेश भेजने के बारी आती है तो गांधी किसी और को भेज देते हैं।
ये बातें वे सभी जानते हैं जिन्होंने गांधी वांग्मय पढ़ा है कि गांधी ने इंग्लैंड पढ़ने जाने के लिए काफी भागदौङ की थी। अनुमति लेने से लेकर पांच हजार रुपए का इंतजाम करने तक। अगर गांधी कानून की पढ़ाई नहीं करते तो औपनिवेशिक शासन के शोषणमूलक कानून – कायदे, दांव – पेंच को उतनी बखूबी नहीं जान पाते न ही उसके खिलाफ ताकतवतर एजेंडा लगा पाते। यह बात नेहरू, आंबेडकर आदि पर भी लागू होती है। लेकिन गांधी ने उसी शिक्षा से हरिलाल को महरूम कर दिया। यह और बात है कि वह अपने अनुभवों से जान गये थे कि अक्षर ज्ञान भी तभी जरुरी है जब वह देशहित, मानवहित, नीति – नियम के भीतर रहता है, वरना उसकी कोई जरुरत नहीं। अक्षर ज्ञान भी उनके लिए साधन मात्र है। ‘कुदरत का कानून’ यानी सत्य, अहिंसा, प्रेम को जानने का। नहीं तो बेकार है। अंग्रेजी शिक्षा को तो वे जूल्म, दंभ, उत्पीङन पैदा करने वाली मानते थे। जाहिर है, वे हरिलाल को इंग्लैंड भेजने के पक्ष में नहीं थे। लेकिन यह हरिलाल के लिए मनोरोग बन गया। उसका प्रतिकार गलत दिशा में गया।
गांधी ‘काम भाव’ (सेक्स) में नियंत्रण चाहते थे, वह वेश्यागमन करने लगा। गांधी निजी पूंजी, धन संचय के खिलाफ थे, वह इसी में जुट गया, सटोरियों, व्यापारियों से मिल गया। गांधी झूठ के खिलाफ थे, उसके लिये यह महत्वहीन था। गांधी विदेशी वस्तुओं और कपङे की होली जला रहे थे, स्वदेशी खादी का प्रचार कर रहे थे, हरिलाल विलायती कपङे से मालामाल होने की कोशिश कर रहा था। गांधी धर्मांतरण के खिलाफ थे, उसने इस्लाम कबूल कर लिया। गांधी शराब, बीङी, मांसाहार के खिलाफ थे, वह उनमें डूब गया। इस पर गांधी ने 1936 में रामदास को लिखे पत्र में व्यंगात्मक शैली में कहा, उसके पराक्रम के बारे में सुना। उसने ‘पैसे और विषय – भोग’ के लोभ में ऐसा किया। बहुत ही भाग्यवादी नजरिए से गांधी ने कहा, ‘जो नसीब में होता है, सो होकर रहता है’। गांधी की नजर में इस्लाम कबूल करना ‘ढोंग’ है, प्रतिक्रिया का प्रतिकार नहीं। गांधी अपने आदर्शों के नीचे पसरते अंधेरे को देख तो रहे थे, लेकिन जिस तरह से रोशनी फेंक रहे थे, वह नाकाफी था। हरिलाल की मौत इतिहासकारों – लेखकों के लिए पुनर्विचार के कुछ बिन्दु छोङ गई है।
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