शनिवार, सितंबर 18, 2010

बसंत लोक की गायें

     दिल्ली स्थित बसंत लोक मार्केट अपने स्टेटस के लिए विख्यात है | इस मार्केट में एक से बढ़कर एक अन्तर्राष्ट्रीय ब्रांड अपनी नवीनतम शैलियों के साथ उपलब्ध हैं | यहाँ स्थित पीवीआर प्रिया  सिनेमा आज भारत में किसी परिचय का मोहताज नहीं है | सर्वविदित है कि इस मार्केट के इर्द – गिर्द फोरेन दूतावास बसे हुए हैं, और यहाँ रहनेवाले लोग अधिकतर इस मार्केट को एक वैश्विक दर्जा दिए हुए हैं | सफ़दरजंग का कमल सिनेमा, चाणक्यपुरी का चाणक्य सिनेमा और वसंत लोक का प्रिया सिनेमा मूलतः अंग्रेजी चलचित्रों को प्रदर्शित करने को इन्ही लोगों के लिए विकसित और निर्मित किया गए थे | इस मार्केट की ग्लोबल छवि का लाभ इस रूप में उठाया गया कि यहाँ ज़मीन और मकानों के दाम भी इतने अधिक बढ़ते गए कि एक आम आदमी के लिए इस जगह मकान खरीदने का स्वप्न देखना भी बेमानी है | यही नहीं, यदि पब – संस्कृति का गंभीर और विषद अध्ययन करना हो, तो भी यह जगह निराश नहीं कर सकती | इसके साथ ही इस मार्केट की खासियत यह है कि यहाँ समय – समय पर ब्रांडो को लॉन्च करने के लिए संस्कृति – उद्योग के नामचीन चेहरे भी अक्सर दिखाई देते हैं | स्कूल, कॉलेज, मार्केटिंग आदि विषयों के विद्यार्थी भी यहाँ अपने भविष्य का आस्वादन खोजते – सीखते मिल जाते हैं | संस्कृति – उद्योग के इस छोटे बियाबान में आपको ची गुवारा रीबोक के द्वारा बिकते हुए नज़र आ सकेंगे | यानी यहाँ पर बेचना ही धर्मं है और मैक्लुहान के इस सत्य का बोध की व्यापार हमारी संस्कृति है और संस्कृति हमारा व्यापार बेहद तीव्रता के साथ होता है |
    बाजारवाद और संस्कृति के इन लोकल चित्रों को झुठलाया  नहीं जा सकता लेकिन यह जानना अब भी बाकी रह जाता है कि सांस्कृतिक विनिमय के इस खेल में बसंत विहार से अमरीका, यूरोप और बाकी ग्लोबल स्थलों को क्या निर्यात हो रहा है ? बसंत लोक कि इस मार्केट में भीतर एक गोल – चक्कर है जिसके चारों ओर बड़े ब्रांड की दुकाने और शोरूम हैं | इस गोल चक्कर के बीच में एक भव्य फव्वारा लगा है, और इसकी मुंडेर पर युवा और युगल अक्सर आकर बैठते हैं और अपनी शाम बिताते हैं | यह मार्केट दूतावासों में रहनेवाले व विदेशियों के लिए विकसित की गयी थी, लेकिन अब वे अपने फोन के कैमरों में गोल चक्कर के समीप मँडराती – रम्भाती गायों के छायाचित्र यहाँ कि दुरावस्था का मज़ाक बनाते हुए खीच रहें हैं | जिज्ञासा उठती है कि एक “विकसित” भारतीय का इस छोटी सी घटना पर क्या रवैया हो सकता है ! निश्चय ही वह इसमें विकास के पीछे छिपे हुए पिछड़ेपन को देखेगा | एक मध्यवर्गीय भारतीय को इससे शायद ही कोई फर्क पड़े तथा अन्य मुद्दों की तरह वह इसे भी अनदेखा कर दे, लेकिन विकसित और विदेश यात्रा कर चुके ग्लोबल भारतियों के लिए यह आत्मीयता का विषय है, भले ही उनकी समझ में विदेश यात्रा करने भर से ही वे ग्लोबलाइज़ हो गए हों ! उनके लिए इससे फर्क भी क्या पड़ता है कि वैश्वीकरण की व्याख्या क्या है, बस भीतर एक स्वाद सा जगा रहना चाहिए | इस मार्केट में मँडराती गायों के मुद्दे पर स्थानीय नेताओं और राजनीतिज्ञों से भी कोई उम्मीद करना बेकार है क्योंकि वे बेचारे तो अब मीडिया में भी अप्रासंगिक हो चले हैं और यों भी वैश्वीकरण पर उनकी कोई सीधी समझ दर्ज नहीं है |
     वास्तव में गाय यहाँ अवचेतन की तरह अचानक ही प्रकट होती है और हम ‘विकसित’ और ‘विकासशील’ भारतीयों को हमारी असली आदतों और सोच से वाकिफ़ कराती है | कल्पना कीजिये कि एक मेट्रोपोलिटन कोई ट्रांसनेशनल ब्रांड खरीदता है और जैसे ही वह आउटलेट के बाद कदम रखता है, उसे एहसास होता है कि उसके नाज़ुक पैर व महंगे जूते – चप्पल गोबर में सन गए हैं तो स्वयं की उसकी निर्मित ग्लोबल छवि का क्या होगा ! बल्कि तीसरी दुनिया के वे देश जो अपने महानगरों को शंघाई जैसे ब्रांड शहरों में तब्दील करना चाहते हैं, अवचेतन के ऐसे प्राकट्य से बच नहीं सकते ! यह उनके लिए विचारणीय प्रश्न है | ज़ाहिर है,इसके लिए भी रास्ता उसी सोच से मिलेगा, जो उदारवाद से विकास चाहती है | गायों को हटाने का काम भी बहुत व्यावसायिक रूप अख्तियार कर सकता है, यदि सरकारें और नीति निर्धारक इस समस्या को भी बहुराष्ट्रीय निगमों को बाइज्ज़त सौंप दें | ब्रांडिंग के बरक्स अनुभव को स्थपित करने की प्रक्रिया में उपभोक्तावाद की गोबर रहित मांग यही हो सकती है, जबकि नागरिकता हमेशा की तरह फिर संदेहों के घेरे में है |
    यह जानना कठिन नहीं है कि इस छोटे से खींचे गए यथार्थ चित्रण पर एक सामान्य भारतीय का नजरिया इसे टालने और इसके प्रति भावुक होने का है | लेकिन यहीं पर यह समझ बनानी ज़रुरी है कि ग्लोबल और इस प्रकार के लोकल में सह-अस्तित्व का कोई कारण नहीं है | जहाँ व्यवस्था ग्लोबल खरीददारी की है, वहाँ गोबर के लिए कोई जगह नहीं हो सकती,अब तक का माल कल्चर भी यही सिद्ध करता है | इन बड़े बाज़ारों के बीच घूमती – टहलती गायों ने भारत बनाम इंडिया के प्रश्न को उठाते हुए यही पूछा है कि क्या यही विकास है ? बड़ी नामी दुकानें यही प्रज्ज्वलित करती हैं कि यही विकास है, लेकिन उस आम भारतीय के भीतर वह असल आंतरिक शक्ति नहीं है जो सारी व्यवस्थाओं को झुठलाकर यह सत्यापित करती है कि जिसे हम मानसिक रूप से सच्चा विकास कहेंगे वह दरअसल नदारद है | वह ऊपर से विकसित दिखता है पर भीतर से खोखला है | वह सिर्फ खरीदना चाहता है और इसके लिए बिकने को तैयार है|
                        अरुणाकर पाण्डेय
                                 
                  

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