पश्चिमी आधुनिकता के अंतर्विरोध जैसे 2 तेजी से उभरकर सामने आ रहे हैं, गांधीजी की प्रसांगिकता पर बहसें तेज हो रही हैं। उनकी दृष्टि और सभ्यता समीक्षा का पुनर्मूल्यांकन हो रहा है। यह पहले भी होता रहा है। लेकिन अब आर्थिक – राजनीतिक – सांस्कृतिक – प्रौद्योगिकी जटिलताएं बढ़ती जा रही हैं। आज का मनुष्य समुदाय पर्यावरण, आतंकवाद, हिंसा, भ्रष्टाचार, वित्तीय पूंजीवाद के साम्राज्यवादी स्वरुप, साप्रंदायिकता, सभ्यताओं का संघर्ष, उपभोक्तावाद का दुश्चक्र, भाषाओं के एकरुपीकरण आदि का गहरे शिकार हुआ है। ऐसे में समाधान का एक रास्ता गांधी के चिंतन, दर्शन, कर्म से होकर निकलता है। इसलिए वे हमारे लिए फिर से प्रसांगिक बन गए हैं। विश्वनाथ तिवारी द्वारा संपादित (सहस्त्राब्द का महानायक) पुस्तक में सहस्त्राब्द के महानायक की भव्यमूर्ति को फिर से विश्लेषित – स्थापित किया गया है।
विश्वनाथ प्रसाद तिवारी ने अपने निबंध ‘कर्मयोगी महात्मा’ में गांधी को ‘निशस्त्र मसीहा’ साबित करते हुए लिखा है कि गांधी के स्वराज की कल्पना राजनीतिक नहीं, सांस्कृतिक थी। वे न्यूनतम उपभोग पर बल देते थे। जबकि आज का समाज उपभोग की अनंतता की ओर बढ़ रहा है। गांधी के लिए धर्म का अर्थ था ‘जो आप अपने लिए चाहते हैं, वही दूसरे के लिए करें’। विश्वनाथ प्रसाद गांधी और मार्क्स की तुलना करते हुए मार्क्स पर कई सवाल उठाते हैं। वे लिखते हैं कि गांधी चिंतन में मनुष्य के सामाजिक, आर्थिक और राजनीतिक आयामों के साथ एक आध्यात्मिक उपाय भी है। मार्क्स के लिए आध्यात्मिकता का क्षेत्र वर्जित है। गांधी ईश्वर में, धर्म में और व्यक्ति की निजी नैतिकता में विश्वास रखते हैं। मार्क्स ईश्वर, धर्म, आत्मा का निषेध करते हैं। और व्यक्तिगत नैतिकता की उनकी अवधारणा गांधी से बिल्कुल अलग है।... मार्क्स का सिद्वांत शोषक वर्ग के प्रति घृणा और गुस्से से पैदा हुआ था। गांधी का बल सत्याग्रह पर था जबकि मार्क्स का संघर्ष पर। विश्नाथ प्रसाद का यह विवेचन काफी हद तक सब्जेक्टिव है। नैतिकता, करुणा, और आर्थिक आध्यात्मिकता मार्क्स में भी है। यह कहना भी बेमानी और यथार्थ से दूर है कि ‘यदि गांधी न होते तो भारत में दलित चेतना की शुरूआत भी न होती। ज्योतिबा फूले, अछूतानन्द, अम्बेडकर आदि ने दलित चेतना की अलख जगायी है। गांधी ने अछूतोद्धार में महत्वपूर्ण भूमिका निभायी है, इस सच से मुंह नहीं मोङा जा सकता है। वर्ण-व्यवस्था या जाति- व्यवस्था के खिलाफ आंदोलन चलाना या तोङना गांधी का प्राथमिक उद्देश्य नहीं था। अम्बेडकर का बलाघात जरूर इस बात पर था कि जब तक सामाजिक - धार्मिक सुधार नहीं अर्थात ‘सामाजिक स्वराज’ हासिल नहीं हो जाता ‘राजनीतिक स्वराज’ बेमानी होगी।
रामकृष्ण्मणि त्रिपाठी ने ‘गांधी के साथ: इक्कीसवीं सदी की दहलीज पर’ में गांधी के स्वराज के पांच अर्थों को खोलने की कोशिश की है। पहला, अंग्रेजों की दासता से मुक्ति दूसरा, राजनीतिक स्वतंत्रताएं तीसरा, आर्थिक स्वतंत्रताएं चौथा, सांस्कृतिक दासता से मुक्ति पांचवा, आत्मानुशासन। चन्द्रशेखर धर्माधिकारी ने इस बात पर बल दिया है कि आज लोकतंत्र में ‘लोक’ गायब हो गया है और ‘तंत्र’ अधिक मजबूत हो गया है। गांधी इसके उलट चाहते थे। ‘गांधीवध’ शब्द पर आपत्ति करते हुए लिखा है- वध राक्षसों, दुष्टों का होता है न कि महामानवों का। वे सामाजिक मसले पर अम्बेडकर और गांधी में पूरकता का भाव देखते हैं। अपने निबंध में रमेशचंद्र शाह इस बात पर बल देते हैं कि हमें ‘हिन्द-स्वराज’ से ‘सांस्कृतिक आत्मविश्वास’ जज्ब करना चाहिए।
इंद्रनाथ चौधुरी हिन्द-स्वराज को आधुनिक विश्व प्रणाली की समीक्षा मानते हैं। गांधी कानून के खिलाफ नहीं थे लेकिन वह समस्या का समाधान नहीं है, इसे पूरी ताकत से कहते थे। संसद और संविधान ने अस्पृश्यता और दहेज प्रथा खत्म कर दी लेकिन वह समाज में बरकरार है। चौधुरी यह निष्कर्ष भी देते हैं कि किसानों या हाशिए पर रहने वालों का पक्ष लेकर राजनीति को ‘गैर-बौद्विक’ करना चाहते थे हालांकि वे बौद्विकता विरोधी नहीं थे। बौद्विकतायुक्त विदेशी आधुनिकता के विरोधी थे। किसानों, मजदूरों, स्त्रियों, हरिजनों आदि को आगे लाना ही ब्राह्मणवाद का विरोध है। वे सरलता और धीमेपन में सौंदर्य खोजना चाहते थे।
नन्दकिशोर आचार्य ‘गांधीवाद : गांधी के बाद’ निबंध में लोहिया, जेपी, बिनोबा की विचारधारा, चिंतन एवं कर्म की समीक्षा करते हुए अहिंसक समाज बनाने पर बल देते हैं। वे मानते हैं गांधी के संपूर्ण जीवन और चिंतन का लक्ष्य एक अहिंसक समाज की रचना कहा जा सकता है और मोटे तौर पर इस अहिंसक समाज के तीन मुख्य आधार माने जा सकते हैं- राजनीतिक विकेंद्रीकरण, आर्थिक विकेंद्रीकरण और इन्हें प्राप्त करने के लिए सत्याग्रह । चौखंभा राज, सिविल नाफरमानी, सर्वोदय आदि उसी के रुप हैं। यह तभी होगा जब लोकशिक्षण के साथ - साथ अहिंसक संघर्ष भी किया जाए। लेकिन क्या हमारा समाज इसके लिए तैयार है? विद्यानिवास मिश्र गांधीजी की सौंदर्यदृष्टि को उपयोगितावादी मानते हैं। गोयनका ने गांधीजी को प्रेमचंद की आंखों से देखा है। राजेन्द्र उपाध्याय ने भारतीय और उमाकांत मालवीय ने विदेशी साहित्य में उपलब्ध गांधी की छवि को उकेरा है। सिद्धेश्वर प्रसाद ने ‘साक्षी – पुरुष’ गांधी को भारतीय इतिहास और परंपरा के बीच रखकर मूल्यांकन किया है। कुल मिलाकर यह पुस्तक गांधी को अनेक आयामों में देखने - समझने की दृष्टि देती है।
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