हिन्दी साहित्य में नौकरशाही, अफसरी या सत्ता, प्रशासन से जुङे लेखकों – कवियों को लगभग हिकारत की नजर से देखा जाता रहा है। वामपंथी आलोचना ने उन्हें हमेशा अलग – थलग रखने का प्रयास भी किया है। यह और बात है कि श्रीलाल शुक्ल, अशोक वाजपेयी, सुदीप बनर्जी से लेकर पंकज राग तक ने न सिर्फ लेखनी से बल्कि अन्य सांस्कृतिक गतिविधियों, कार्यक्रमों से हिन्दी साहित्य को समृद्ध किया है। उनके महत्वपूर्ण अवदान पर विचार करें तो हिन्दी साहित्य के इतिहास की तस्वीर थोङी बदल जाए। उन्होंने काव्यानुभवों के कई रंग बिखेरे हैं। सुदीप बनर्जी उन्हीं लेखकों में शुमार हैं जिन्होंने ताउम्र भारतीय प्रशासनिक सेवा से जुङे रहे रहकर काव्य सर्जना की है। अब तक सुदीप बनर्जी की चार कविता संग्रह प्रकाशित हो चुके हैं। काव्यानुभवों का अनूठा विस्तार उनके पहले संग्रह ‘शब-गश्त’ से लेकर नये संग्रह ‘उसे लौट आना चाहिए’ तक में पढ़ा जा सकता है।
सुदीप का यह संग्रह उनकी मृत्यु के पश्चात विष्णु नागर और लीलाधर मंडलोई के संयोजन में निकला है। यह संग्रह देखकर सुदीप के पाठकों को सुखद अनुभूति होगी कि उनकी मृत्यु के तुरंत बाद ही इसका प्रकाशन हो गया। इसे बेहद मनोयोग से और सुसंबद्ध तरीके से प्रकाशित किया गया है। दोनों ने ही ‘इन कविताओं के बहाने’ उन पर कलम चलायी है। यह एक किस्म से श्रदांजलि भी है और उनकी कविताओं के मर्म को पाठकों तक पहुंचाने की कोशिश भी।
आमतौर पर यह देखने में आता है कि प्रशासन से जुङे लोग राजनीतिक कविताएं लिखने से बचते हैं या अपनी कविताओं में इतना अमूर्तन गढ़ देते हैं कि उसकी धार कुंद हो जाए। यहां तक कि अपनी प्रतिबद्धता की दीवार भी इतनी महीन रखते हैं कि पता ही नहीं चले कि किस जमीन से खङे होकर बात कर रहे हैं। लेकिन सुदीप ने ऐसी कोई कोशिश नहीं की है। बिना लाग – लपेट के बेखौफ अपने अनुभवों को दर्ज किया है। इस संग्रह की शुरुआती कुछ कविताएं बेहद स्पष्ट तौर पर राजनीतिक हैं। उन्होंने तत्कालीन संप्रदायिक, क्रूरतापूर्ण राजनीति पर तीखे प्रहार किए हैं। वैश्विक स्तर पर चल रही हत्यारी राजनीतिक गतिविधियों को भी उघाङा है। वे ‘इराक – 1’ और ‘इराक – 2’ में अमेरिकी दादागिरी, बेकसूरों पर उसकी नृशंस हत्याओं को तो खोला ही है साथ ही भारतीय राजनीतिक प्रतिबद्धता पर भी उंगली उठायी है। वैसी प्रतिबद्धता जो नक्कारखाने की तूती की तरह है।
ये कविताएं एकध्रुवीय दुनिया के विरोध में नैतिक ताकत और साहस के साथ लिखी गयी हैं। इस स्पष्ट दृष्टि और अवधारणा के साथ भी कि –‘इराक़ – अफगानिस्तान तो झांकी है / हिन्दुस्तान – पाकिस्तान बाकी है’। लगभग नारे की शैली में लिखी यह कविता अमेरिकी रणनीति एवं एजेण्डे का खुलासा करती है। यह भी बताती चलती है कि अमेरिकी साम्राज्य दुनिया भर में सिर्फ हथियारों के बल पर नहीं पहुंच रही बल्कि संस्कृति, बाजार, पूंजी और विज्ञान के दम पर भी अलग – अलग रुप धर कर आ रही है। हिरोशिमा, भोपाल, कश्मीर से लेकर काबुल और बगदाद पहुंचने के लिए उसने अलग – अलग तरीके और हथकंडे अपनाए हैं। लेकिन हमारी राजनीति उसकी पिछल्गू बन उसके सामने शीर्षासन कर रही है। वे अपने विरोध में उठे हर लामबंद हाथ का काट जानते हैं। जरुरत पङने पर ‘दुधमुंहे बच्चों के मुख में / कोका – कोला उंडेलकर / वे लामबंद कर लेते हैं / आतंकवाद के विरुद्ध / विश्वव्यापी अभियान में’।
वे बुश, आडवाणी और नरेन्द्र मोदी को एक ही पंक्ति में रखकर साम्राज्यवाद, संप्रदायिकता और विकास के उलझे और फरेबी राजनीति का भी खुलासा करते हैं –‘बुश जी खुश जी / दुनियाभर में / एकमात्र पुरुष जी / गुजरात में कभी छुप कर / कभी खुल कर / अपनी भारत माता के / लौह और विकास पुरुष जी / बुश जी खुश जी / आप नहीं परपुरुष जी’। वे बुश की राजनीतिक हरकतों में हिटलर के फासीवादी चेहरे को भी पढ़ने की कोशिश करते हैं। लिखते हैं –‘बङी मेहरबानी कि उन्होंने अपना नाम / बुश रखा, वे खुद को कहते हिटलर / तो आप क्या कर लेते?’ सुदीप की यह कविता निरा गद्य होने का जोखिम तो उठाती ही है, सौंदर्यहीनता और तात्कालिता की भी। इस तरह के खतरे की परंपरा उन्हें नागार्जुन के साथ जोङती है।
सुदीप को लगता है कि जमाने की चाल बेडौल हो गयी है। दुनिया को रोड रोलर से समतल बनाया जा रहा है। हाशिए पर खङा व्यक्ति भी इस षड्यंत्र को समझता है लेकिन उसे विवश कर दिया गया है। भारत फिर से अपनी दुर्दशा पर रो रहा है। समस्याएं हैं कि बढ़ती जा रही है। लोगों का दुख बढ़ रहा है। सुदीप का लेखक इन दुखों से घिरा बेचैनी महसूस करता है। इनसे बाहर निकल आने का आत्मसंघर्ष भी जहां – तहां नज़र आता है। कहीं – कहीं आत्मधिक्कार मुक्तिबोध की कविताओं की याद दिलाती है। मुक्तिबोध का प्रभाव तो इस हद तक दिखाई पङती है कि उसके छाया रुपों को पढ़ा जा सकता है।
सुदीप की कुछ कविताएं उन दिनों की है जिन दिनों वे कैंसर जैसी असाध्य बीमारी से जूझ रहे थे। विष्णु नागर के हवाले से कहें तो ये कविताएं हिन्दी साहित्य की उपलब्धि हैं। उन्होंने अपने ‘दुख को नायक’ न बनने दी। जबकि मृत्यु की त्रासदी और उससे लङने की आत्मसंघर्ष से बुनी कविताएं हैं। उन्हें अपने न होने की परवाह उतनी नहीं है जितनी दायित्वों के पूरे नहीं होने के। ‘अस्पताल में वे कितने / सिर्फ अपने सहारे बीमार / उनके साथ आती अस्पताल तक / केवल उनके घर छोङी हुई समस्याओं की फेहरिस्त... या जो छोङ आए काम – उनकी तरफ / वे तय नहीं कर पाते / और इस असाध्य बीमारी की यंत्रणा से / थोङा बच जाते’। अपनी मृत्यु की भयावहता, दुख, संत्रास, पीङा को जिन शब्दों में उन्होंने आवाज दी है वह जिजीविषा लंबे समय तक याद रखी जायेंगी। मृत्यु की अवधारणा को भी पुनर्परिभाषित करने की कोशिश है। मृत्युबोध से जुङी कविताओं में एक तरफ जमाने के सामने कंफेशन है तो दूसरी तरफ अपनी छोटी भूमिका की सार्थकता का आत्मविश्वास भी।
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