आरक्षण का मुद्दा सामाजिक न्याय की अवधारणा के आधार पर खड़ा हुआ है | किसी जाति या वर्ग द्वारा अपने लिए आरक्षण की मांग किसी भी तरह से गैर क़ानूनी नहीं ठहरायी नहीं जा सकती, लेकिन मांग करने के उसके तरीके का अध्ययन किया जाय तो स्पष्ट पता लगता है कि कि वह अपनी मूल संरचना में किस मानसिकता के साथ उपजी है | कई बार ऐसा हो जाता है कि आरक्षण की मांग में सामाजिक न्याय की प्रक्रिया लुप्त हो जाती है, और उसकी जगह हिंसा, उग्र प्रदर्शन तथा राजनीतिक वर्चस्व ले लेते हैं | ऐसे में जो मांग उचित तरीके से संपूर्ण नागरिक जिम्मेदारी के साथ उठायी जानी चाहिए, वह शक्ति प्रदर्शन की गैर लोकतांत्रिक तथा गैर संवैधानिक उग्रता में दब जाती है| असल मुद्दे के पीछे छूट जाने के अलावा एक और नुक्सान जो इसके कारण होता है, वह यह कि यह साथ ही साथ अन्य को भी प्रतिक्रियावाद की भेंट चढ़ा सकता है | इसके साथ ही ऐसी मानसिकताओं से आम जनता और व्यावसायिकता का भी ह्रास हो सकता है |
हाल ही में, दिल्ली में अखिल भातरीय जाट आरक्षण संघर्ष समिति द्वारा आरक्षण जल्दी न देने पर इस धमकी का दिया जाना कि वे कॉमनवेल्थ गेम्स साइट्स और कार्यालय पर हमला बोल सकते हैं, मुद्दे के लीक से भटकने का उत्कृष्ट उदाहरण है| आरक्षण जल्दी देने का यह सन्देश देशवासियों तक पहुँचाने के लिए ये लोग एक योजना के तहत टिकट खरीदने के बहाने कॉमनवेल्थ गेम्स के मुख्यालय में घुसे, वहाँ तोड़-फोड़ की और उत्पात मचाया | कॉमनवेल्थ गेम्स के साथ पहले ही बहुत से विवाद जुड़ गए हैं, उस पर इस प्रकार की धमकी जहाँ सरकार के लिए प्रशासनिक सरदर्दी बढ़ाने का काम करेगी, वहीँ दिल्ली कि आम जनता के लिए यह कानून और सुरक्षा की समस्या बढ़ाएगी | उक्त तोड़ – फोड़ और हिंसात्मक गतिविधियों का नतीजा यही निकला कि पुलिस द्वारा लाठी चार्ज किया गया और तेरह लोगों की गिरफ्तारी हुयी | इस पर भी समिति के राष्ट्रीय अध्यक्ष का यह कहना है कि यदि उन्हें आरक्षण नहीं मिला तो वे छापामार गोरिल्ला नीति के माध्यम से अपना आंदोलन चलाएंगे | इस प्रकार जितने भी आंदोलन संचालित किये गए हैं, भले ही उन्हें कुछ आरंभिक सफलताएं ही क्यों ना मिली हों, लेकिन उनसे जुड़े हुए लोगों और उनके समाज की जीवन पद्धति ही अलगाववाद की ओर मुखरित हुयी है | यही नहीं उनकी सामाजिक पहचान में भी बदलाव आये हैं | इस प्रकार लोकप्रिय होने की उनकी आरंभिक सफलता भी उनकी एकमात्र स्थायी पहचान में रूपांतरित हो जाती है जिससे उनका अलगाववाद और पुष्ट ही होता है | इसके सबसे ताज़े उदाहरणों में से राज ठाकरे और उनकी महाराष्ट्र नवनिर्माण सेना को देखा जा सकता है, जिसने अपने मराठी मानुस के सांस्कृतिक मुद्दे को स्वयं ही अन्य पर हमले के आपराधिक मुद्दे में तब्दील कर दिया | इसका हासिल यह हुआ कि नयी पार्टी के रूप में, एक बड़ी तादाद में उन्हें अपने राजनितिक – सांस्कृतिक समर्थन को खो देना पड़ा | वे संवैधानिक, सामाजिक, तथा बौद्धिक दृष्टी से अतार्किक तो थे ही, लेकिन उन्होंने अलगाववादियों सरीखी जैसी अपनी पहचान बना ली है | राजस्थान के गुर्जर आरक्षण आंदोलन में तो स्थिति और भी पीड़ादायी हो गयी क्योंकि वहाँ लोगों को अपनी जान से हाथ तक धोना पड़ गया | कहने का अभिप्राय यह कि आरक्षण की मांग अनैतिक या असंवैधानिक नहीं है, लेकिन यदि उसकी जगह भड़कती भावनाओं के प्रदर्शन से ही काम चलाया जाएगा तो यह निश्चित ही अराजकता का चुनाव होगा | इसमें आंदोलन को जन समर्थन तो नहीं ही मिलता और अंततः कानून का ही सर्वोपरि होना सिद्ध होता है | कॉमनवेल्थ गेम्स के कार्यालय पर हमले वाले मामले में भी अंततः लोग गिरफ़्तार ही किये गए और बाद में जमानत पर छूटे | यह नतीजा अवश्यम्भावी था, लेकिन इससे आरक्षण प्राप्त करने की दिशा में तो कोई उपलब्धि नहीं मिली | इससे यही साबित होता है कि अपनी मांग को जायज़ तरीके से संप्रेषित करना ही आंदोलन को सही दिशा में ले जाना है क्योंकि अंततः हम सभी कानून कि व्यवस्था के अधीन हैं |
शिक्षा और खिलाड़ियों के नज़रिये से देखें तो विवादों के बावजूद कॉमनवेल्थ गेम्स के आयोजन को खेल भावना से विलगाया नहीं जा सकता | खेल भावना तथा उसकी संस्कृति पर किसी का एकल अधिकार नहीं है, वह तो मनुष्य मात्र के विकास और शिक्षा का एक अनिवार्य तत्त्व माना गया है | इसमें हर देश के वर्ग और जातियों के खिलाड़ियों ने अपना योगदान दिया है | इसी दृष्टी से यदि खेलो में जाटों के योगदान का अध्ययन किया जाय तो एक समृद्ध परंपरा देखने को मिलती है | इसमें चन्दगीराम, दारा सिंह, गामा सिंह, कपिल देव जैसे दिग्गजों के नाम शामिल होते हैं तो युवा खिलाड़ियों में वीरेंद्र सहवाग, युवराज सिंह से लेकर विजयेन्द्र सिंह, ज्योति रंधावा तथा साएना नेहवाल तक ऐसे ही और अनगिनत नाम गिनाए जा सकते हैं | ऐसे में यदि जाट समुदाय अपने आरक्षण की मांग के लिए कॉमनवेल्थ गेम्स पर आक्रमण की रणनीति को ही चुनता है, तो खेल भावना के उसके योगदान में यह उसका एक नया अभूतपूर्व सम्बन्ध ही बनेगा, जो उसे भी नकारात्मक रूप में अलगाववाद की पहचान दे सकता है | कहने की आवश्यकता नहीं कि यह हर हाल में दुखदायी ही होगा |
( अरुणाकर पाण्डेय )
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