शुक्रवार, सितंबर 17, 2010

कहां है राह में मुश्किलें

                                                         प्रकाशित - राष्ट्रीय सहारा, 14 अगस्त, 2010
           हम एक ऐसे भारतीय समाज के हिस्सेदार हैं जो अपनी बुनियादि सोच में सामंती और लद्दङ है। किसी भी किस्म के क्रांतिकारी परिवर्त्तन के खिलाफ। लगभग अतीतजीवी। यथास्थिति को कायम रखनेवाला। साहसिक परिवर्त्तन को लगभग नकार देनेवाला। कहना न होगा, ये बातें भारतीय शिक्षा पद्धति और प्रणाली पर भी लागू होती है। मानव संसाधन विकास मंत्री कपिल सिब्बल इस यथास्थितिवाद को तोङना चाहते हैं। इस दिशा में उन्होंने क्रांतिकारी परिवर्त्तन का आगाज किया है।
     अपनी दृढ़ इच्छाशक्ति और निश्च्य का परिचय देते हुए कपिल सिब्बल ने दसवीं बोर्ड परीक्षा प्रणाली को ध्वस्तकर न सिर्फ अपने मजबूत इरादे का परिचय दिया है बल्कि पचास साल से अधिक समय से चली आ रही परीक्षा पद्धति को एक झटके में बदल दिया। अब दसवीं की परीक्षा एक अनिवार्यता नहीं वैकल्पिक चुनाव है। यह एक ऐसी कोशिश है जो बच्चों को मशीनीकृत होने से रोकेगी। अनंत प्रतिस्पर्धा के अंतर्जाल में फंसकर आत्महत्या का रास्ता चुनने से भी रोकेगी। दूसरे शब्दों में कहें तो ‘तनावराज’ को खत्मकर ‘नयी स्वतंत्रता’ या आजादी चुनने का विकल्प मुहैया करायेगी। आंतरिक मूल्यांकन और ग्रेडिंग प्रणाली निश्चय ही जैसे – तैसे सफल होने की प्रतिस्पर्द्धात्मक परीक्षा प्रणाली की तुलना में बेहतर विकल्प हैं। यह पद्धति प्रतिभा (टैलेंट) को निखरने, खिलने और प्रस्फुटित होने का अवसर प्रदान करेगी। बच्चे अपनी रुचि का विषय चुनकर बेहतर परिणाम दे सकेंगे। सर्वांगीण विकास के लिए चुनाव का दायरा भी काफी व्यापक हो सकता है। मसलन कला, साहित्य, संगीत, सिनेमा, नाटक, वैज्ञानिक अविष्कार, खेलकूद आदि – आदि। बच्चे सफलता की बजाय सार्थकता को चुनेंगे। इससे उनके व्यक्तित्व में निखार और ऊचाइयां आयेगी।    
   लेकिन यही कपिल सिब्बल की राह के रोङे भी हैं। जो विचारक, चिंतक, शिक्षाविद या राजनीतिक पार्टियां विरोध कर रही है उनके तर्कों में भी दम है। पहला, क्या दसवीं को विकल्प भर बना देने से समस्या का समाधान हो जायेगा? बारहवीं के बाद बच्चे फिर प्रतिस्पर्धा की उसी अंधी खाई में गिरेंगे। आगे के सारे रास्ते कंपटीटीव एक्जाम से भरे हैं। ऐसे में परिवार का दबाब होगा, सफल बनाने की। कहने का मतलब जब तक मानसिकता के स्तर पर बदलाव नहीं होगा बच्चे ‘गलाकाट प्रतियोगिता’ के लिए ‘खास नस्ल’ के रुप में तैयार होते रहेंगे। यानी उचित शैक्षणिक वातावरण का निर्माण भी सिब्बल की चुनौती है।
    दूसरा, यह प्रणाली शहरी क्षेत्रों में तो संभव है लेकिन उन ग्रामीण क्षेत्रों का क्या होगा जहां स्कूलों में बुनियादी सुविधायें – पानी, ब्लैकबोर्ड, शिक्षण साधन और यहां तक की शौचालय भी उपलब्ध नहीं है? अगर बच्चे की रुचि पेंटिंग में है, वह इससे संबंधित पुस्तकें पढ़ना चाहे तो अच्छी लाइब्रेरी की आवश्यकता पङेगी या फिर अपनी पेंटिंग की प्रदर्शनी लगाने के लिए कलादीर्घा की। नाटक के लिए रंगशाला की जरुरत पङेगी। खेलने के लिए प्लेग्राउंड की। क्या यह आधारभूत संरचनात्मक बदलाव और सुविधाओं के बगैर संभव है? व्यक्तिगत स्तर पर देखें तो बीस रुपये से कम कमानेवाला 78 करोङ आबादी विकल्प चुनने के लायक है? इन कामों के लिए काफी पूंजी की जरुरत पङेगी। ऐसे में गांधी का फंडा कमाओ और पढ़ोवाला कारगर हो सकती है।     
   हालांकि कपिल सिब्बल शिक्षा के क्षेत्र में प्रत्यक्ष विदेशी पूंजी निवेश (एफ. डी आई) के पक्षधर हैं। यह सराहनीय कदम हो सकता है। लेकिन ध्यान रखना होगा कि शिक्षा का क्षेत्र महज व्यापारिक उद्योग बनकर न रह जाए। वाम पार्टियां व सरकार इसका पुरजोर विरोध कर रही हैं। उनका मानना है कि इसका लाभ सिर्फ उच्चवर्ग के लोभ उठा पायेंगे। इसका सशक्त उदाहरण पब्लिक और प्राइवेट स्कूल के बीच फैली विषमतम खाई है। जैसे इन दोनों के बीच ढ़ांचागत परिवर्त्तन की जरुरत है वैसे ही प्रत्यक्ष विदेशी पूंजी निवेश में भी होगी। ताकि बहुसंख्यक हिंदुस्तान इसका लाभ उठा सके। ऐसे में कपिल सिब्बल के लिए शिक्षा का समान वितरण भी सबसे बङी चुनौती होगी।
    चौदह साल तक के बच्चों के लिए शिक्षा का अधिकार फ्री और अनिवार्य करना कपिल सिब्बल के द्वारा उठाया गया ऐतिहासिक कदम है। ‘नेशनल लिटरेसी मिशन’ के तहत स्त्रियों को शिक्षित करने की कोशिश, मुस्लिम बच्चों को मोडेरेट करने के लिए मदरसे को ज्ञान – विज्ञान, तकनीक और वैज्ञानिक शिक्षा पद्धति से लैस करना, आधुनिक विषय पढ़ाने पर बल देना, सस्ते दामों में लैपटाप उपलब्ध कराने की दिशा में सकारात्मक पहल करना, बाडबैंड और इंटरनेट से स्कूलों को लैस करना, एसी. एसटी. बच्चों के लिए अलग से कोचिंग चलाने की दिशा में आगे बढ़ना, प्राइवेट और पब्लिक पार्टनरशिप बनाने की कोशिश करना बेहद अनिवार्य और सराहनीय कदम हैं। उम्मीद करनी चाहिए कि इसके बेहतर परिणाम आयेंगे।
   जहां तक उच्च शिक्षा का सवाल है कपिल सिब्बल ने कई महत्वपूर्ण फैसले को अंजाम देने की दिशा में काम किया है। पूरे देश में सेमेस्टर प्रणाली के तहत पढ़ाने के लिए जोर देना कई मायनों में जरुरी है। हमें यह मानना होगा कि हिंदुस्तान वैश्विकृत दुनिया का अनिवार्य हिस्सा हो चुका है। अगर शिक्षा में विश्व रैकिंग सुधारना है तो उन्हीं प्रणाली में शामिल होना होगा। विकसित दुनिया के लगभग सभी देशों में सेमेस्टर प्रणाली लागू है। विस्थापन की स्थिति में या बेहतर विश्वविद्यालयी विकल्प की तलाश में यह सबसे कारगर पद्धति है। इससे गवर्नेंस में ट्रांसपेरेंसी तो आयेगी ही बाहरी और अच्छी फैकल्टी बुलाने में सुविधा होगी। अमर्त्य सेन विदेश में पढ़ाते हैं तो भारत सरकार की भी कोशिश होनी चाहिए कि आक्सफोर्ड और कैंब्रिज के शिक्षक यहां हों। यह सेमेस्टर के द्वारा आसानी से संभव है। आखिर हिंदुस्तान के बङे पैमाने पर शिक्षक विदेशी विश्वविद्यालय में सेमेस्टर के भीतर ही पढ़ाते हैं। इनटरडिसिपलिनरी के इस दौर में यह कारगर कोशिश होगी। परीक्षा एवं मूल्यांकन पद्धति में सहुलित हो जायेगी। अध्ययन – अध्यापन और शोध की गुणवत्ता पर भी फर्क पङेगा। इस व्यवस्था में सत्ता, राजनीति और ब्यूरोक्रैटिक सेटअप को कुछ कदम पीछे हटना पङेगा। यह और बात है कि फेडकुटा इसका जबरदस्त विरोध कर रही है।
    पूरे देश में विज्ञान, गणित, कामर्स, आदि को एक ढ़ांचे में लागू करने या एक ही सेलेबस होने का आशय स्पष्ट है बाजार और पूंजी केंद्रित शिक्षा व्यवस्था को लागू करना। अब यह मान लेना चाहिए कि शिक्षा एक ‘सोसियो – इकॉनोमी’ एक्टिविटी है। इसका जबरदस्त विरोध हो रहा है। विरोध का कारण शिक्षा में क्षेत्रीय विविधता का नष्ट हो जाना, पूंजी और शिक्षा का केंद्रीकरण हो जाना, पश्चिमी देशों का पिछलगू हो जाना, बाजार की शक्तियों के हाथों पराजित हो जाना, स्थायीपन की जगह टेम्पररी यानी दरबदर के जीवन में आ जाना है। सिब्बल की चुनौती है कि इन तर्कों के आलोक में अपने कदम बढ़ायें। सरकारी दामाद बन जाने की मानसिकता को तोङे। शोध के लिए इंफ्रास्टक्चर विकसित करें और प्रोत्साहन दें। पंकज कपूर वाली फिल्म ‘एक डाक्टर की मौत’ में दिखाये गये गतिरोध को आमूल – चूल बदलें। उच्च शिक्षा में कैपिटेशन फी को रोकने, सुविधाएं बढ़ाये जाने, ताकि छात्रों के साथ धोखा न हो स्वागत योग्य तो हैं ही, साथ ही कॉपीराइट एक्ट को मजबूत करने की दिशा में उठाया गया कदम भी बेहद अनिवार्य एवं प्रसंशनीय । 
                          ( राजकुमार )             
                

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