बुधवार, सितंबर 15, 2010

अश्लील साहित्य का कारोबार

                                        प्रकाशित - आभासी दुनिया, जनसत्ता, 23 जून, 2010
       अश्लील साहित्य की दुनिया के बेताज बादशाह का ब्रांड नाम  मस्तराम है। प्रकाशक के अलावा शायद ही किसी को मालूम हो कि यह असली नाम है या काल्पनिक। मस्तराम नाम से छपने वाला लेखक भी किसी निश्चित प्रकाशन से शायद ही  छपता है। कहा तो यहां तक जाता है कि कानून से बचने के लिए यह छदम नाम चुना गया। अश्लील साहित्य की दुनिया में मस्तराम इतना चर्चित और ऊंचे ब्रांड का नाम है कि कई लिक्खाङ पैसे के लोभ में इसी नाम से लिखते हैं। हर प्रकाशक का विज्ञापन बार – बार इस बात पर बल देता रहा है कि वही असली प्रकाशक है और उसके यहां छपने वाला लेखक असली। आखिर अश्लीलता रचने और परोसने में भी असली – नकली का झगङा है। दावेदारी कहें तो और बेहतर हो। फिलहाल यह कॉपीराइट किसके पास है नहीं मालूम। बेचने वाला चूंकि पुलिस के डर से चोरी छिपे बेचता है और अक्षर ज्ञान भर रखता है इसलिए यह जानना कठिन है कि असली लेखक और प्रकाशक कौन है?
     कारण चाहे जो हो लेकिन ‘मस्तराम’ नाम में श्लेष है। नामारुप ही मस्ती और सेक्स का साहित्य रचता है। यहां शब्द नंगे हैं। आवरणहीन। शिष्ट या मुख्यधारा के साहित्य में भी अगर दो जोङी शरीर नग्न होते हैं तो शब्द उन्हें कल्पनात्मक बिंबों से ढक लेता है। मस्तरामी साहित्य में जिस्म और शब्द दोनों नंगे, बेलौस उघङें, कामोत्तेजक, देहभक्षक हैं। देह से ज्यादा शब्दों में सनसनी है। यहां सेक्स प्रदर्शन और उत्तेजना का विषय है। दमित कुंठाओं को तृप्त करने वाला नहीं बल्कि असीमित अतृप्ततता जगाने वाला। भङकाने वाला। अगर वह पाठकीय कुंठाओं को संतुष्ट करता तो मृत्यु को प्राप्त करता। ब्रांड भी विश्वसनीयता खो देता। इस ब्रांड की खासियत यही है कि वह पाठकों को लगातार पाठकीय अतृप्तता की ओर ले जाता है। पाठक पुस्तक की समाप्ति की ओर नहीं बल्कि “ये दिल मांगे मोर” की तरफ बढ़ता है। इस कारण ब्रांड वैल्यू बनी रहती है।
      शिष्ट साहित्य में सेक्स संबंधों की अपनी मर्यादा और नैतिकताएं होती है। अंतरंग संबंध भी उत्तेजना पैदा करने की बजाय सौंदर्य की अनुभूति करानेवाले विशिष्ट अनुभव संपन्न होते हैं लेकिन घासलेटी साहित्य सुसुप्त कामनाओं को गुदगुदानेवाला। स्नायू तंत्रों को उत्तेजित करनेवाला। पाठकीय आस्वाद में कामनाओं का जहर दौङानेवाला। 
     घासलेटी साहित्य की दुनिया में मस्तराम ब्रांड को लंबे समय तक टक्कर देने वाला कोई दूसरा ब्रांड नहीं था। अब यह ब्रांड अपनी आखरी सांसे गिन रहा है। वैश्विकरण और सूचना क्रांति ने दुनिया को आर्थिक चमक ही नहीं दी बल्कि अश्लील साहित्यिक दुनिया को भी नये ढंग से गुलजार कर दिया। सैंकङों अश्लील पोर्न साइट न सिर्फ दृश्य के लिए चौबीसों घंटे उपलब्ध हैं बल्कि पठन के लिए भी। मस्तरामी साहित्य का नैरेटर मर्द थे / हैं। इंटरनेट पर उपलब्ध साहित्य में दमदार नैरेटर महिलाएं हैं। वैसे भी इस मर्दाना जगत में सेक्स संबंधित अनुभव अगर महिलाएं सामने रखती हैं तो जाहिर है उसकी ब्रांड वैल्यू बढ़ जाती है। यह अनुभव जगत के नये क्षेत्र हैं / और बहुत तेजी से बन रहे हैं। महिलाएं धङाधङ अपने सेक्स संबंधों को सत्यकथाओं की लङी में, मनोरम कहानियां की तरह पेश कर रहीं हैं। ग्रूप सेक्स अब तक दृश्य और फिल्मांकन के विषय थे, (वहीं तक सीमित थे) लेकिन अब अध्ययन और पठन के विशेष सामाग्री के तौर पर उपलब्ध हैं। मस्तरामी ब्रांड ने सामाजिक – पारिवारिक संबंधों को छिन्न – भिन्न नहीं किया था। लेकिन वर्चुअल दुनिया के इस बनते ब्रांडों ने सामाजिक – पारिवारिक संबंधों को लगभग रगङ दिया है। कोई नैतिकता शेष नहीं बची है। सामाजिक पारिवारिक मूल्यों की अर्थी सजी है। भाई - बहनों तक के संबंध जिस्मानी यौनेकांक्षा की उत्तेजना और भूख से पारिभाषित हो रहे हैं।
      समाज के वे ठेकेदार जो खाप पंचायत की आङ में जाति, वर्ण, गोत्र के नाम पर प्रेमियों और विवाहितों की हत्याएं करके छुट्टे सांढ की तरह घुम रहे हैं, भाई – बहन बनने पर बाध्य कर रहे हैं उन्हें दकियानुसी मानसिकता से बाहर निकल वर्चुअल दुनिया पर भी एक नज़र मारनी चाहिए। जो आने वाली पीढ़ियों को अतृप्त कुंठाओं के मकङजाल में उलझा रही हैं। उन सत्ताधिशों और सत्तालोलुपों को सावधान हो जाना चाहिए जो मरणशील प्रवृतियों को सिर्फ इसलिए जिंदा रख रहे हैं कि कहीं पंचायत उनके वोट न खराब कर दे। उन्हें गहराई से आत्ममंथन करना चाहिए। जो लोग संस्कृति के नाम पर राजनीति चमकाते रहते हैं और जब – तब हमलावारों की तरह छोटी – छोटी गुफाओं, द्वीपों से चिटियों की झूंड की शक्ल में निकल आते हैं उन्हें इस खतरनाक प्रवृति पर विचार करना चाहिए। वे लोग जो तसलीमा नसरीन, एम. एफ. हुसैन और वैद जैसे लेखकों, कलाकारों पर पोर्न और अश्लीलता रचने का आरोप लगाते हैं उन्हें अपने बिलों से निकलकर बाहर झांकना चाहिए।
    चीन की आर्थिक और सामरिक शक्ति की चमक और धमक से घबराने वाला हिन्दुस्तान क्या उससे यह सीख पायेगा कि कुंठाओं, उत्तेजनाओं और यौनेकांक्षा का चित्कार – सित्कार कर सनसनी फैलानेवाले और गुदगुदी करनेवाले इन खिङकियों को बंद रखा जाए। भले ही अमेरिकी दादागीरी कितना ही दबाब क्यों न बना ले। क्या गांधीजी ने अपनी खिङकियों और दरवाजों को इन्हीं विचारों के लिए खुले रखने के लिए कहा था? क्या यह हमारी नज़रों से चुक रहा है कि चीन अपनी शर्त्तों पर इन्हें आने दे रहा है न कि मुक्त बाजार के प्रलोभन और दबाब की शर्त्त पर?
                       ( राजकुमार )
                        

1 टिप्पणी:

Rakesh kumar singh ने कहा…

apne achha likha hai..apko badhai