मंगलवार, सितंबर 07, 2010

सांच कहै तो...

कबीरदास मुंह अंधेरे एक खेत में गड्ढा कर रहे थे। गड्ढे में सिर्फ उनका सिर झांक रहा था। पहले तो मुझे भ्रम हुआ कि हो न हो यह झगङू है। पिछली बार बेटे के चक्कर में जब उसे पांचवीं बेटी हुई थी तो उसने मुंह अंधेरे गड्ढे खोदकर बेटी को जिंदा दफन कर दिया था। कहीं ऐसा तो नहीं कि इस बार भी...। भय और दुख से मन कराह उठा। मैं एक पेङ की ओट में छिपकर देखने लगा। गड्ढे की गहराई इतनी हो गयी की अब सिर दिखाई देना बंद हो गया। मैंने देखा कि वह आदमी एक बोरी खींच कर लाया। यह क्या? दफन करने की बजाय वह दूसरी बोरी खींच रहा है। मेरा दिमाग चक्कर में पङ गया। यह लो तीसरी बोरी...। कहीं यह चोर - डाकू तो नहीं? किसी के घर चोरी का माल तो नहीं उङाया?
अरे ! यह तो बोरी से किताबें निकाल कर डाल रहा है। अबकी पलटते ही नजर सामने पङी। मैं चौंका। यह तो अपने कबीरदासजी हैं। मैं चिल्लाया कबीरदासजी आप क्या कर रहे हैं? घबराहट के मारे वे किताबों समेत गड्डे में जा पङे। बोले - शोर मत करो। लेकिन आप तो पसीने – पसीने हैं। हांफ रहे हैं। सुबह –सुबह आप इन किताबों को गड्डे में क्यों डाल रहे? अरे ! इसमें तो सीडी, डीवीडी भी है। ये कई किताबें तो आपकी लिखी है। उफ ये क्या? आप तो मार्क्स, लेनिन, माओ, स्टालिन, चारु मजूमदार की किताबों को भविष्य का सपना बताते थे। दुनिया बदलने का औजार। आप तो इसे सीने से लगाये रहते थे। अब क्या हुआ? खुद ही दफना रहे हैं। कबीरदास बोले – पहले इसे फटाफट दफनाओ, फिर बताता हूं।

तमाम पंपलेट, किताबों और फिल्मों को दफनाने के बाद गहरी सांस छोङते हुए थोङी निश्चिंतता से बोले – बहुत खराब समय आ गया है। अब इस देश में गरीबों, मजदूरों, बुद्धिजीवियों का जीना मुश्किल है। ऐसा समय आ गया है कि सरकारी नीतियों और भ्रष्टाचार की आलोचना करना गुनाह हो गया है। क्या मैंने किसी की हत्या की है? नहीं कबीरदासजी। तो फिर मुल्क के नये निजाम ने मेरे पीछे सरकारी कुत्ते क्यों छोङ दिया है? वे मुझे सुंघते फिर रहे हैं। उनका कहना है मैं जनता में सरकारी भ्रष्टाचार की गलत - सलत बात फैलाता हूं। लोगों को बताता हूं कि पूंजीपति और ज्यादा पूंजीपति होते जा रहे हैं, गरीब और ज्यादा गरीब। खानों – खदानों, खेतों, जंगलों पहाङों, नदियों, हवाओं को पूंजीपतियों के हवाले किया जा रहा है। तुम्हारा जीवन और सांसे उन निजामों और दौलतियों के पास गिरवी है।

मुझ पर आरोप है कि मैंने डरे और केंचुए की तरह लचीले जनता को बताया है कि - ‘तुम बीस रुपये भी ठीक से नहीं कमानेवाले कभी मुख्यधारा का हिस्सा नहीं बन पाओगे। मुख्यधारा में शामिल होने की बात तुम्हारे लिए छलावा है। वह तो मंत्रियों - संतरियों, नेताओं, अपराधियों, पूंजीपतियों और चापलूसों की बपौती जायदाद है। कानून और व्यवस्था उनके हितों के रक्षार्थ बने हैं। विकास के नाम पर अफसर, पुलिस, इंजीनियर, ठेकेदार, पूंजीपति और नेता कमीशन खाते हैं, पैसे लूटते हैं, बङे – बङे होटलों में रात रंगीन करते हैं, गुल्छरे उङाते हैं। तुम्हारे बाप – दादाओं की एक पीढ़ी गुलामी करते – करते खप गयी। और तुम्हारे बच्चे भूखे पेट पानी पीकर सो जाते हैं। दहशत और गुंङागर्दी फैलानेवाली इस व्यवस्था को बदलो’। आखिर इसमें मैंने क्या गलत कह दिया कि नये निजाम ने यह फरमान जारी कर दिया है कि जहां भी कबीरदास और उनकी विचारधारा के लोग पाए जाएं उन्हें अपराधिक गतिविधियों में शामिल होने, जनता में सरकार के प्रति विद्वेष फैलाने, उन्हें हिंसा के लिए भङकाने, पुलिस और पूंजीपतियों को मारने और साजिश रचने, सत्ता को उलटने, राज्य की सुख – शांति भंग करने और गैर कानूनी गतिविधि कानून 1967 की धारा 39 तहत गिरफ्तार कर लिया जाए। जहां कहीं भी इस तरह के विचार लिखे गए हैं, वैचारिक घालमेल पैदा की गई है, निर्दोष जनता को दिग्भ्रमित करने और उनके निर्मल विचारों को प्रदुषित करने की कोशिश की गई है उन्हें जब्त कर लिया जाए और लिखनेवाले पर मुकदमा चलाया जाए। ये सब नक्सली हैं। इनसे सहानुभूति रखने वाले को भी गिरफ्तार कर लिया जाए।

मैंने कहा - कबीरदासजी ऐसे में तो राज्य में पत्रकार, अभिनेता, अभिनेत्री, फिल्मकार, लेखक, प्राध्यापक, कवि – कथाकार, समाजशास्त्री, अर्थशास्त्री, चिंतक, बुद्विजीवी बचेंगें ही नहीं। फिर तो लाइब्रेरियों को भी गिरफ्तार... लेकिन कबीरदासजी ने मेरी बात सुनी ही नहीं। वे कहीं खो गए थे। उनके ओठ थरथरा रहे थे और बङबङाते हुए आवाज निकल रही थी – सांच कहै तो मारन धावै... मै कहता सुरझावन हारि/ तु रहता उरझायि रे ।