रविवार, जनवरी 08, 2012

तुलसी काव्य - विमर्श

     नंदकिशोर नवल आधुनिक साहित्य के पाठक और आलोचक हैं। मध्यकालीन साहित्य उनके आलोचनात्मक - विमर्श का हिस्सा पहले नहीं रहा है। ‘तुलसीदास’ पर पुस्तक लिखकर उन्होंने अपने आलोचनात्मक दायरे को विस्तार देने की कोशिश की है। लेकिन उनका यह प्रयास मध्यकालीन साहित्य के एक पाठक के सहज उच्छलन का रूप नहीं है। उनकी परेशानी का सबब कबीर और उसके पाठक हैं जो उनकी रचनात्मकता से ऊर्जा पाते हैं। कबीर को अपना काव्यनायक मानते हैं और तुलसीदास को हाशिए पर रखते हैं। यही कारण है नंदकिशोर नवल कि यह पुस्तक नई पीढ़ी के उन पाठकों को संबोधित है जो तुलसी की तुलना में कबीर को श्रेष्ठतर मानते हैं और उसके प्रति ‘उपेक्षा – भाव’ रखते / प्रदर्शित करते हैं। 
   नंदकिशोर नवल प्राक्कथन में ही कबीर और उनके पाठकों पर छङी घुमा देते हैं। लिखते हैं -‘...कबीर हर तरह से परलोकवादी और योगमार्गी थे तथा स्त्री के संबंध में उनके विचार तुलसीदास से भी कटु थे, लेकिन नई पीढ़ी के लोग इसे नहीं देखते और कबीर के वर्ण – व्यवस्था तथा बाह्याचार – विरोध को ही लक्ष्य मानकर उन्हें सर्वाधिक अंक देते हैं’। यूं तो साहित्यकारों और आलोचकों की पुरानी पीढ़ी हमेशा से ही नई पीढ़ी को लेकर सशंकित और तंग नजर रही है। सच्चाई यह है कि हर युग में नई पीढ़ी अपना काव्यनायक स्वयं चुनती है। सामाजिक – राजनीतिक - आर्थिक परिवेश तथा उसकी हलचल और उससे निष्पन्न ऐतिहासिक बोध उसे दृष्टि प्रदान करते हैं जिसके आधार पर यह चुनाव संभव होते हैं। दलितों – आदिवासियों - पिछङों के उभार तथा धार्मिक कट्टरता और सांप्रदायिक उन्माद से लहूलुहान दौर में अगर नई पीढ़ी वर्ण – व्यवस्था तथा बाह्याचार विरोधी कवि को सर्वाधिक अंक देता है तो कोई अन्याय नहीं है। बल्कि वक्त की नब्ज़ पर ऊंगली रखना है। इतिहास की धारा के साथ बहना है।
नंदकिशोर नवल का यह मानना भी कि नई पीढ़ी तुलसी काव्य की ताकत से परिचित नहीं है अतिकथन ही कही जायेगी। तुलसी का अब भी जनप्रिय कवि होना या ग्रामीण समाज के भीतर धंसा होना लोकप्रियता की ही निशानी है। समकालीन बौद्धिक जगत ने जरुर तुलसी काव्य की प्रासंगिकता को प्रश्नांकित किया है। अव्वल तो तुलसीदास कुछ असुविधाजनक सवालों के घेरे में हमेशा रहे हैं, लेकिन उससे उनकी साहित्यिक - सांस्कृतिक और धार्मिक लोकप्रियता क्षतिग्रस्त नहीं हुई है।
तुलसीदास पर लिखी यह पुस्तक प्रभाववादी आलोचना का ही एक उदाहरण है। बचपन से ही तुलसी साहित्य का जो प्रभाव लेखक पर पङा, उसी प्रभावान्निविति के दबाब के प्रतिफलन के रूप में इसे देखा जाना चाहिए। इसमें उनकी पाठकीयता, रसिकता और भावुकता शामिल है। लेखक अपने विवेचन में बार - बार इस बात को दोहराते हैं कि तुलसीदास श्रेष्ठ और महान कवि हैं। दूसरे शब्दों में, वे तुलसीदास की स्वयंसिद्ध श्रेष्ठता / महानता का पीछा करते हुए स्थापनाएं देते हैं। अगर आलोचनात्मक स्थिति इसके उलट होती तो उसे आदर्श माना जाता और तुलसी काव्य में नई ‘पाठ – संभावनाओं’ की तलाशी होती। लेकिन ऐसा हुआ नहीं है। रामचंद्र शुक्ल के बाद रामविलास शर्मा ने अपने युग के परिप्रेक्ष्य में तुलसी को पढ़ने की कोशिश की। उन्होंने प्रगतिशील आंदोलन घटित होने के बाद तुलसी काव्य को श्रम, किसानी - वृत्ति, भूखमरी, जहालत, दुर्भिक्ष, वैयक्तिक और सामूहिक दुख के भीतर पढ़ा। प्रगतिशील और जनवादी मूल्यों को तुलसी में प्रस्थापित किया। लेकिन यहां ऐसा कुछ भी नहीं है। ऐतिहासिक बोध के अभाव में पुस्तक समकालीन चुनौतियों और परिप्रेक्ष्य से परे ‘तुलसी – काव्य’ का भाष्य या टीका भर बनकर रह जाती है।  
आलोच्य पुस्तक के दो - तिहाई हिस्से तुलसी - काव्य के उदाहरणों से पटे पङे हैं। ऐसे में विवेचन – विश्लेषण की गुंजाईश बहुत कम रह जाती है। समकालीन दुनियावी संदर्भों में उसकी प्रासंगिक स्थितियों का पाठ आकलन भी न्यून है। चुनिंदा पदों का ‘पाठ – विमर्श’ एवं अर्थनिष्पादन जरुर आकर्षित करते हैं।      
पुस्तक तीन अध्याय – ‘अन्य काव्य’, रामचरितमानस और विनयपत्रिका में विभाजित है। अन्य काव्य में उन्हीं रचनाओं पर विचार किया गया है जिसे विद्वानों ने प्रमाणिक माना है। आलोचक पहली रचना ‘रामलला नहछू’ को काव्य गुण से रहित और उल्लेख योग्य नहीं मानते हैं। संकेत करते हैं कि ‘रामलला नहछू में कहीं भी हमें एक महाकवि के आगमन की पदचाप नहीं सुनाई पङती’। ‘रामाज्ञा प्रश्न’ को शकुन – विचारने वाली पुस्तक मानते हैं। साथ ही दर्ज करते हैं कि शंबूक वध और सीता – वनवास दोनों की मौजूदगी यहां है जो ‘रामचरितमानस’ में नहीं है। एक महान साध्वी स्त्री के ऊपर लोक की महत्ता की बात प्रश्नांकित है। ‘बरवै रामायण’ में सीता के रूप वर्णन को रीतिकालीन मानते हैं। वे लक्षित करते हैं कि इन तीनों ‘खंड – काव्य’ में उसके अनुरूप शिल्प – विधान का कोई सौंदर्य नहीं है। 
लेखक ‘जानकीमंगल’ में सीता की उभरी हुई सेक्सुअलिटी का संकेत भर देते हैं। ‘पार्वतीमंगल’ की तुलना कालिदास की कुमारसंभव से करते हैं। साथ ही यह निष्कर्ष देते हैं कि कालिदास की दृष्टि मुक्त थी जबकि तुलसी की संयत। जहां कालिदास की काव्य संवेदना वन्य और नागर थी वहीं तुलसी की ग्रामीण। गीतावली और कृष्णगीतावली को कवि की बौद्धिक सहानुभूति की देन मानते हैं न कि अनुभूतियों का।
नंदकिशोर नवल ‘कवितावली’ में अत्यधिक परिपक्वता, सृजनात्मक कल्पनाशीलता और तज्जनित मन को मुग्ध कर देनेवाला सौंदर्य देखते हैं। साथ ही उसमें व्यक्त ‘पाठ’ के  यथार्थवादी स्वरुप का उदघाटन करते हैं। साहित्यिक एवं संगत शब्दार्थों तक पाठक को पहुंचाने की कोशिश करते हैं। ‘रामचरितमानस’ पर विचार करते हुए वे एक तरफ कबीर के प्रति उन्हीं पूर्वाग्रहों को ‘आक्रामक मुद्रा’ में सामने रखते हैं जो धर्मवीर के लेखन के पहले चलता रहा है दूसरी तरफ, तुलसी में मौजूद आपत्तिजनक उक्तियों के प्रति ‘रक्षात्मक मुद्रा’ अखित्यार कर ली है। तुलसी को डिफेंड करने के लिए यह कह देते हैं कि वे सब उक्तियां हिन्दू धर्मग्रंथों के अनुवाद हैं। वे यह सवाल ही नहीं उठाते कि तुलसी अपनी ‘काव्य – दृष्टि’ में उसे क्यों शामिल करते हैं? ‘नारि हानि बिसेष छति नाहीं’ वाले प्रसंग के संदर्भ में तर्क देते हैं कि पत्नी के ऊपर भाई के महत्व देने को ‘किसान मानसिकता’ माननी चाहिए। इसके लिए पंत की कविता का उल्लेख भी करते हैं। यह बिल्कुल ही निराधार, असंगत और तर्कहीन तुलना है।
वे रामचरितमानस के सभी कांडों का अध्ययन क्रमबद्ध तरीके से करते हैं। बालकांड का नायक लक्ष्मण मानते हैं तो अयोध्याकांड के नायक भरत को। शूर्पनखा – प्रसंग को परवर्ती कथाओं का हेतु। सुन्दरकांड के नायक हनुमान हैं। लंकाकांड के पूर्वार्ध के नायक अंगद हैं तो उत्तरार्ध के स्वयं राम। जहां मानस के पाठ विश्लेषण में उसकी कथात्मक गुत्थियां, रचना कौशल, सौंदर्य विधान, वागर्थ - प्रपत्ति खुलती चलती है, वहीं विनयपत्रिका में ‘मध्ययुग में एक बेहतर इंसान न बन पाने की आत्मभर्त्सना’।