शनिवार, जुलाई 16, 2011

बंद दरवाजों के बरक्स...

                     
जयंत नर्लिकर देश के जाने माने ‘एस्ट्रोफिजिसिस्ट’ (खगोल – भौतिकशास्त्री) हैं। विदेशों में लंबे समय समय तक सैद्धांतिक खगोलशास्त्र पढ़ाने के बाद ‘टाटा इंस्टीट्यूट आव फंडामेंटल रिसर्च’ मुम्बई में भी महत्वपूर्ण योगदान दिया है। वे एस्ट्रोनॉमी और एस्ट्रोफिजिक्स जैसी संस्थाओं के संस्थापक और निदेशक भी रह चुके हैं। सेवानिवृति के बाद प्रोफेसर अमर्टस के रूप में सेवा प्रदान कर रहे हैं। विज्ञान के क्षेत्र में महत्वपूर्ण योगदान के लिए दिया जाने वाला भटनागर और युनिस्को की प्रतिष्ठित पुरस्कार कलिंगा से सम्मानित हो चुके हैं। बहुमुखी प्रत्तिभा के धनी नर्लिकर ने जहां एक शिक्षाविद, प्रोफेसर और खगोलविद के रूप में योगदान दिया है वहीं उन्होंने सायंस फिक्शन रच कर भी पाठकों के बीच अपनी पहचान बनायी है।
खगोलशास्त्र और यूनिवर्स (ब्रह्मांड) की जटिलता एवं रहस्यलोक पर कई किताबें लिख चुके नर्लिकर की नयी पुस्तक “शेक – अप इंडिया” है। यों तो इस पुस्तक में प्रकाशित लेख टाइम्स ऑफ इंडिया दैनिक में बतौर कॉलम प्रकाशित हो चुकी है। पुस्तककार रूप में यह देश की छोटी - बङी चिंताओं, समसामयिक ज्वलंत प्रश्नों से बिंधी नजर आती है। उनकी चिंता के केंद्र में 21वीं सदी का भविष्य है। जो अपने कंधे पर मूर्खताओं की गठरी लादे लिए जा रहा है। वैज्ञानिक सोच, समझ और दृष्टि से दूर यूं ही अंधेरे में सरपट दौङ रहा है। न उसे वर्त्तमान की चिंता है न बेहतर भविष्य की। अपने अतीत के प्रति भी वह मोहाविष्ट है।
आमतौर पर हम किसी ब्रह्मांड विज्ञानी से यह उम्मीद नहीं करते कि वह गंदगी और स्वास्थ्य, ऐतिहासिक धरोहरों और इमारतों की रखरखाव, क्लोन बनाती शिक्षा व्यवस्था, भाषा की समस्या, वक्त की बर्बादी जैसी समस्याओं पर सवाल उठायेगा। नर्लिकर उठाते हैं। वे अपने लेखों – ‘वी नीड अ मोडर्न माइंडसेट, इंडिया सफर्स फ्राम अ लैक ऑव प्रोफेशनलिज्म, हालिडे टू मैनी, डिक्लाइनिंग वर्क स्टैंडर्डस, द पापुलेशन ट्रैप, द नेचर ऑव ब्यूरोक्रैसी, मैनेजिंग योर टाइम, इज एस्ट्रोलॉजी अ सायंस?, नो मोर रमनस, बोसेज एंड साहाज, डिस्कवरिंग टैलेंट, करविंग ब्रेन ड्रेन, डिक्लाइन ऑव एकेडिमिया, डिक्लाइन ऑव सायंस एडुकेशन, प्रोब्लेम ऑव लैंगुवेज, द फाराडे ट्रेडिशन’ आदि - आदि में इन समस्याओं से जूझते नजर आते हैं। उन्होंने छोटी – छोटी चीजों पर ध्यान खींचा है जिसे हमारी सत्तामूलक व्यवस्था नजरअंदाज करती रहती है। एक औसत पढ़ा लिखा भारतीय भी इस पर न ध्यान देता है न ही उन समस्याओं को सुलझाने की दिशा में पहल करता है। यही कारण है कि पूरी व्यवस्था रुग्नाक्रांत दिखती है।  
नर्लिकर अपने लेखों में ऑब्जर्वर (निरीक्षक) की तरह दिखते हैं। ‘वी नीड ए माडर्न माइंडसेट’ में वे कहते हैं कि हम नेहरुवीयन मॉडल, कल्पना, सोच, दृष्टि और लक्ष्य से काफी दूर भटक गए हैं। हमारी वैज्ञानिक उपलब्धियां बेमानी साबित हो रही हैं। एक तरफ हम गणेश को दूध पिला रहे हैं दूसरी तरफ गर्भपात के लिए इस्तेमाल कर रहे हैं। हम अपने घर की सफाई तो कर रहे हैं लेकिन सार्वजनिक स्थानों को गंदा कर रहे हैं। लोग बीमारियों से मर रहे हैं लेकिन सफाई कभी हमारा अभियान नहीं बना। वे ब्राजील के हवाले से कहते हैं कि वहां सार्वजनिक जगहों एवं दूकानों के आसपास सफाई की जबाबदेही व्यवस्था के अलावा नागरिक भी उठाते हैं। वे सिंगापुर के कङे कानून का जिक्र करते हैं लेकिन साथ ही यह भी कहते हैं कि यहां सफाई के लिए कानून बनाना भ्रष्टाचार को ही बढ़ावा देना है। बाल मजदूरी और दहेज प्रथा के जिंदा चले आने पर भी प्रश्न करते हैं। नर्लिकर इन समस्याओं से निपटने के लिए जागरुकता फैलाने और लोगों के आचरण सुधारने पर बल देते नजर आते हैं।
नर्लिकर आधुनिक माइंडसेट की जरुरत महसूस करते हैं। वे अंग्रेजी ढंग की स्कूली शिक्षा पद्धति पर भी सवाल उठाते हैं और पश्चिमी जीवन शैली पर भी। वे उसका अंधानुकरण करने की वकालत नहीं करते हैं। वहां के गिरते मानवीय मूल्यों से सचेत करते हैं। समस्या तब उत्पन्न होती है जब वे विकास के प्रतिमान पश्चिम से उठाते हैं लेकिन उस जीवनशैली से असहमत हो जाते हैं। ‘इंडिया सफर्स फ्रॉम ए लैक ऑव प्रोफेशनल्जिम’ में वे रक्तरंजित युद्धों के इतिहास के हवाले से कहते हैं कि भारत लगातार इसलिए पराजित होता रहा क्योंकि प्रोफेशनलिज्म का अभाव रहा है। वे आज भारत की असफलता का कारण प्रोफेशनलिज्म का अभाव मानते हैं। नर्लिकर के इस निष्कर्ष को एक किस्म से सरलीकरण ही कहा जाएगा। वे सफलता को पेशेवर क्रियात्मकता से जोङते हैं। आखिर पेशेवर पश्चिमी समाज ने आपसी संबंधों में दरारें भी पैदा की है।
‘होलिडे टू मैनी’ में वे सवाल उठाते हैं कि आखिर एक सेकुलर स्टेट में धार्मिक आधार पर इतनी छूट्टियां क्यों दी जाती है? उसमें राज्यों की भागीदारी और भूमिका क्यों शामिल होती है? दिन – प्रति – दिन बढ़ती छूट्टियां उन्हें बैचैन करती है। इसके लिए वे नेताओं को दोषी मानते हैं। वे कहते हैं 16 में से 13 छूट्टियां धार्मिक आधार पर दी जाती है यह मेरे लिए रहस्य का विषय है। नर्लिकर काम को ही प्राथमिकता देने वाले लोगों में हैं। वे भारतीय ब्यूरोक्रेसी में सेंस ऑव ह्यूमर की कमी का भी जिक्र करते हैं। उनका मानना है कि नौकरशाही को समझना बेहद जटिल काम है। व्यंगात्मक अंदाज में कहते हैं - यहां नौकरशाहों में विवादों से बचने, अपने को सुरक्षित रखने और सावधानी बरतने के गुण पाए जाते हैं। वे वैज्ञानिक शोध करने वाले के बराबर वेतनमान दिए जाने की असंगति की तरफ भी ध्यान खींचते हैं।
सांस्थानिक तामझाम और रिचुअल में समय की बर्बादी को ‘मैनेजिंग योर टाइम’ में दिखाते हैं। सेमिनार, भाषण, मीटिंग, कार्यशाला आदि के पहले और बाद में जो औपचारिक अनुष्ठान किए जाते हैं वे सख्त खिलाफ हैं। वे टीवी को इसलिए कोसते हैं कि वह एयरपोर्ट पर नेताओं के आने के स्वागत में खङे दिखाते रहते हैं। जन्मदिन और शोकसभाओं को कवर करते हैं। बेहतर होता वे रचनात्मक चीजों को दिखाते।
भारतीय शिक्षण संस्थान, उसकी नीतियां और उच्च शोध की संभावना तथा गुणवता हमेशा से ही विवाद के विषय रहे हैं। क्या भारत में प्रतिभा की कमी है या सरकारी स्तर पर नीतियों में कमी? क्लोन बनाने वाली और गलाकाट प्रतिस्पर्धी रोजगारोन्मुख शिक्षा पर उन्होंने कई दनदनाते सवाल खङा किए हैं। आगे रमन, बोस और साहा जैसे वैज्ञानिक नहीं पैदा होने के कारणों की छानबीन की है। अकादमिक जगत की गिरती साख को पहचानने की कोशिश की गई है। समांतर रूप से कोचिंग क्लास फलने – फूलने पर चिंता व्यक्त की गई है। भारत में वैज्ञानिक विकास और विज्ञान की स्थितियों की पङताल की गई है। नर्लिकर ने अपनी इस पुस्तक में समसामयिक ज्वलंत प्रश्नों की झङी लगा दी है। कुल मिलाकर देखें तो इस पुस्तक में उभरते भारत की विविध समस्यामूलकता और उससे बाहर निकलने की दृष्टि एवं सोच शामिल है। लेकिन गहराई का वह आयाम गायब है जो ऐसी चिंतन एवं दृष्टि के लिए जरुरी होते हैं।    

पुस्तक – शेक – अप इंडिया (अंग्रेजी)
लेखक – जयंत नर्लिकर
प्रकाशक – ग्लोबल विजन प्रेस,  दिल्ली 
मूल्य 245 रुपये