शनिवार, अक्तूबर 09, 2010

अपनी शिकस्त की आवाज

    हिन्दी सिनेमा के इतिहास में मीना कुमारी की छवि बेहद लोकप्रिय अभिनेत्री की है। अभिनय के क्षेत्र में जब कभी भी शिरमौर अभिनेत्री मधुबाला और नर्गिस का जिक्र होता है साथ में मीना कुमारी को याद किया जाता है। सिनेमा में स्त्री चरित्र को इन तीनों ने अपनी अभिनय क्षमता से अलग-अलग कोण और आयाम दिए। मीना कुमारी को तो सिनेमा ने ‘ट्रेजडी क्वीन’ के अलंकार से नवाजा। जितना दर्द उन्होंने फिल्मी किरेदार में उठाया उतना ही जीवन के यथार्थ में।
    मीना कुमारी के नज्मों में भी दर्द का यह दरिया बहता है। गुलजार कि माने तो वे फिल्मी चरित्रों के दर्द को भी ओढ़ लेती थी। यानी ‘एक अकेली मीना – मीना कुमारी। और उस अकेली शख्सियत में और कितनी सारी शख्सियतें, कितने सारे चेहरे ! जो चरित्र फिल्मों में अभिनीत किए, उनके चेहरे भी हमेशा के लिए ओढ़ लिए। फिर उन्हें उतारा नहीं। फिल्में खत्म हो गईं, लेकिन वे चरित्र हमेशा उनके साथ जिंदा रहे। कुछ चुने – चुनाए चेहरे आखिर तक उनके साथ थे’। मसलन बीबी, साहबजान, दीदी, मंजू, जानम, महजबीं आदि। यह कोई अनूठी विशेषता नहीं थी बल्कि मीना कुमारी की ट्रेजडी को अभिव्यक्त करती है। ये चरित्र उनके अकेलेपन के भीतर समा जाती थी। फिर वे उसे शायरी की शक्ल देती थी।
    फिल्मकार गुलजार द्वारा चयनित और संपादित पुस्तक ‘मीना कुमारी की शायरी’ का स्थायी भाव अकेलापन ही है। फिल्मी जीवन में अपार लोकप्रियता के बाद भी उनके निजी जीवन में बेहद अकेलापन था। कमाल अमरोही के साथ संबंध विच्छेद और प्रेम की रिक्तियां तथा असाध्य बीमारियों ने उन्हें घोर निराशा, उदासी, मायूसी और अकेलेपन की ओर ढकेल दिया। यह अकेलापन उनके नज्म, शेर, गजल और कतओं में सैलाब की तरह उमङते हैं। मसलन, ‘अकेलेपन के अंधेरे में दूर – दूर तलक / यह एक खौफ जी पे धुआं बनके छाया है...शाम का यह उदास सन्नाटा / धुंधलका, देख, बढ़ता जाता है’ या ‘न इंतजार, न आहट, न तमन्ना, न उम्मीद / जिन्दगी है कि यूं बेहिस हुई जाती है’।
   इस संग्रह में तन्हाई और मीना कुमारी पर्यायवाची की तरह इस्तेमाल हुए हैं। जीवन का यह यथार्थ लिपटा चला आया है। ‘जिस्म तन्हा है और जां तन्हा’। यहां तक कि हमसफर के साथ चलते हुए भी तन्हाई है। डर है कि कहीं प्रेम में मात न खा जाएं। यही तन्हाई बेचैनी के कारण बने हुए हैं। और, तङपता हुआ दिल जीवन का मेटाफर बन आया है। इसलिए ‘उदासियों ने मेरी आत्मा को घेरा है / रुपहली चांदनी है और चुप अंधेरा है’। अंधेरा और रात बार- बार दुख को घना करने आते हैं। लेकिन दर्द का सितम उफान पर आते ही रात तार – तार हो जाती है। ‘टुकङे – टुकङे दिन बीता / धज्जी – धज्जी रात मिली’।
   मीना कुमारी का दर्द लावारिशों, यतीमों की तरह भटकता रहा। जमाने से उन्हें नकली हमदर्दी और गम के सिवा कुछ न मिला। ‘खुदा के वास्ते गम को भी तुम न बहलाओ / इसे तो रहने दो, मेरा, यही तो मेरा है’। वे जमाने की वादाखिलाफी, फरेबी और तंगदिली को कुछ यों व्यक्त करती हैं – ‘रोते दिल हंसते चेहरों को कोई भी न देख सका / आंसू पी लेने का वादा, हां सबने हर बार किया’। उन्हें इस बात का भी मलाल है कि किसी की जिन्दगी बर्बाद हो जाती है, दिल तोङ दिया जाता है और कहीं से कोई आवाज नहीं उठती है। जमाने को कोई फर्क नहीं पङता है – ‘दिन डूबे हैं या डूबी बारात लिए कश्ती / साहिल पे मगर कोई कोहराम नहीं होता’। और तो और ‘किसी का दिल न टूटे और कोई आवाज न चटखे / मेरी यह बेकसी यारब, कयामत होती जाती है’।
   कई फिल्मकारों का निजी जीवन बेहद अकेलेपन में और गुमनाम बीता है। तालियों की गङगङाहट और ढलान के दिनों में अपने शरीर की छाया भी उन्हें भार मालूम पङने लगी थी। मीना कुमारी भी उन्हीं में से एक थी। ‘गम की तलाश’ में लिखती हैं – ‘यह सामने / गम ही का साया तो है / यह गम के कदमों की ही चाप है / जो चुपके – चुपके साथ चल रहा है’। कई बार उन्हें लगता है कि सब साथ छोङ गये मगर अपना साया ही है जो पहले भी साथ था अब भी है।
मीना कुमारी ने एक जीवन के भीतर कई जीवन जिया था। कई परतों में पसरा था उनका जीवन। ‘टूटे रिश्ते झूठे नाते’ में उसकी एक झलक यूं दिखती है – ‘इस दुनिया में कौन किसी का / झूठे सारे नाते / बस चलता तो / हम पहले ही इस दिल को समझाते / हम भी न समझे दिल भी न समझा / कैसी ठोकर खाई / अब हम हैं और जीते जी की / दर्द भरी तन्हाई’ तो दूसरी यूं – ‘मेरी रूह भी जला – ए – वतन हो गई / जिस्म सारा मेरा इक सेहन हो गया / कितना हलका सा, हलका – सा तन हो गया / जैसे शीशे का सारा बदन हो गया’।
  मीना कुमारी अपनी रचनाओं से अपना नया अक्सं छोङ जाती हैं। अपनी फिल्मी छवि से अलग छवि और पहचान बनाती हैं। पाठकों के लिए मीना कुमारी की यह दुनिया नई है। जिसमें ‘हर नुक्ते का सीना छलनी / हर लम्हे को जीना मरना’ है। अपनी ही ख्यालों के कैद में बंधी मीना कुमारी इस ख्वाहिश को बेपर्दा करती हैं कि ‘तू जो आ जाए तो इन जलती हुई आंखों को / तेरे होंठों के तले ढेर – सा आराम मिले’।
   प्यार की तलाश में भटकती ये रचनाएं दुखों का ऐसा महाख्यान रचती है जिसमें जीवन का अहसास, माजी का हाल, ख्बाबों की उङान और तितली की तरह फुर्र से उङते सुख, न कटने वाली अंधेरी रातें और जमाने की फरेबी चालें हैं, जो नियति की तरह जीवन के अंकुर पर कुंडली मार कर बैठ गई है।  
आइये उनकी कुछ रचनाओं से रु – ब – रु होते हैं –
                        ग़ज़ल
      टुकङे – टुकङे दिन बीता, धज्जी – धज्जी रात मिली
      जितना – जितना आंचल था, उतनी ही सौगात मिली
     
रिमझिम – रिमझिम बूंदों में, ज़हर भी है और अमृत भी
      आंखें हंस दी दिल रोया, यह अच्छी बरसात मिली

      जब चाहा दिल को समझें, हंसने की आवाज़ सुनी
      जैसे कोई कहता हो, ले फिर तुझको मात मिली

      मातें कैसी घातें क्या, चलते रहना आठ पहर
      दिल – सा साथी जब पाया, बेचैनी भी साथ मिली
      होंठों तक आते – आते, जाने कितने रूप भरे
जलती – बुझती आंखों में, सादा – सी जो बात मिली
 2
उदासियों ने मेरी आत्मा को घेरा है
रुपहली चांदनी है और धुप अंधेरा है
कहीं – कहीं कोई तारा कहीं – कहीं जुगनू
जो मेरी रात थी वह आपका सवेरा है

क़दम – क़दम पे बबूलों को तोङने जाएं
इधर से गुजरेगा तू, रास्ता यह तेरा है

उफ़क़ के पार जो देखी है रौशनी तुमने
वह रौशनी है ख़ुदा जाने या अंधेरा है

सहर से शाम हुई, शाम को यह रात मिली
हर एक रंग समय का बहुत घनेरा है 

ख़ुदा के वास्ते ग़म को भी तुम न बहलाओ
इसे तो रहने दो, मेरा, यही तो मेरा है 
             3
कोई चाहत है न ज़रुरत है
मौत क्या इतनी ख़ूबसूरत है

मौत की गोद मिल रही हो अगर
जागे रहने की क्या जरुरत है

ज़िन्दगी गढ़ के देख ली हमने
मिट्टी गारे की एक मूरत है

सारे चेहरे जमा हैं माज़ी के
मौत क्या दुल्हिनों के सूरत है
          4
साथी तेरा नाम अलग है
साथ हैं दोनों, साथ अलग हैं

आंख होंठ की बात समझ लो
दिन से जैसे रात अलग है

मुद्दत हो गई अब तो रोए
बरसों से बरसात अलग है  
पुस्तक – मीना कुमारी की शायरी
संपादक – गुलजार
प्रकाशक – हिन्द पाकेट बुक्स
दिल्ली – 3
मूल्य- 150 रुपये

                     (राजकुमार)



बुधवार, अक्तूबर 06, 2010

‘अधूरा इतिहास’

       अरुणाकर पाण्डेय युवा लेखक एवं समीक्षक हैं। गंभीरता के साथ – साथ भाषायी खिलंदङेपन में आपको महारत हासिल है। नयी विचार शैली और भाषा के नये प्रत्ययों का इस्तेमाल इनकी लेखनी में आसानी से पकङा जा सकता है। आपने पहले भी ‘अमरबेल’ के लिए कई रचनाएं भेजी हैं। इस बार ‘अधूरा इतिहास’ कविता----------

दो पुस्तकों के बीच
द्वन्द्वात्मक होता समय
बहता है कुछ इस तरह
कि साइबेरिया के पंछी
मौसम लौटने पर वापस न आयें
और हम सोचते रहें
उनके विस्थापन पर बार-बार !

हाथ में चाय का गिलास लिए
पूछते हैं पूर्वजों के संगी
चाँद से,
जो नहीं लगता बादशाह की
अंगूठी का नगीना
याकि सुलगती बीड़ी के आखिरी कश सरीखा

किन्तु लौट जाता है
वह भी
आज के दोस्त की तरह
अनुत्तरित
रोज़ सबेरे |
                                        


मंगलवार, अक्तूबर 05, 2010

“कुत्ता – 1”


पूर्व प्रधानमंत्री राजीव गांधी और तीन बार से लगातार किसी विरोध के कांग्रेस अध्यक्ष बन रही सोनिया गांधी  के सुपुत्र तथा राष्ट्रीय महासचिव राहुल गांधी ने मध्यप्रदेश में युवाओं को नसीहत देते हुए कहा है कि वे चमचागीरी छोङ दें साथ ही भाई – भतीजावाद भी। नेहरु खानदान के नये वारिश के मुंह से यह सुनकर आपको भी उतना ही अटपटा लगेगा, जितना मुझे। चमचागीरी और भाई – भतीजावाद तो कांग्रेस के पोर – पोर में लहू बनकर  तब से दौङ रहा है जब राष्ट्रपिता जिंदा थे। राष्ट्रपिता ने भले ही भाई – भतीजावाद नहीं किया लेकिन इतिहास बताता है कि इनकी वजह से उनके भी दामन पर झींटे पङे। आज जब वे जब चमचागीरी और भाई – भतीजावाद छोङने की बात कर रहे हैं तो ये शब्द बेहद शर्मिंदा महसूस कर रहे हैं। सच्चाई यह है कि कांग्रेस चमचों का वह अखाङा है जो रचनात्मकता की दृष्टि से मुर्दों का टीला नजर आता है। मंत्री से लेकर छुटभैये तक 10 जनपथ की चमचागीरी की प्रतिस्पर्धा में चारणों को मात कर रहे हैं। अगर राहुल गांधी चमचागीरी से इतने ही त्रस्त हैं तो होना यह चाहिए कि चमचागीरी का विरोध न कर चमचागीरी के स्रोत को बंद करें। उन तमाम रास्तों को भी जहां से चमचागीरी पनपती है। यह बात इंदिरा गांधी के शासनकाल में सर्वेश्वरदयाल सक्सेना ने “कुत्ता – 1” कविता में पहले ही संकेत कर दिया था। आप भी उसकी बानगी अमरबेल पर देखिए ---               

“कुत्ता – 1”

कुत्ते की दुम काट दो
दुम हिलाने का भाव
नहीं जाएगा ।

सभी कुत्तों की दुम काट दो
फिर भी
दुम हिलाने का भाव
नहीं जाएगा ।

क्योंकि कुत्ता
आदत से टुकङखोर है
तुम्हें टुकङखोरी के रास्ते
बंद करने होंगे ।    

रविवार, अक्तूबर 03, 2010

“राग डींग कल्याण”

      आज दिल्ली में कॉमनवेल्थ गेम का शुभारंभ हो रहा है। इस अवसर पर अमरबेल सर्वेश्वरदयाल सक्सेना की कविता “राग डींग कल्याण” पेश करता है-  


तेरी भैंस को डण्डा कब मारा
मैंने भैंस को डण्डा कब मारा!
     तेरी भैंस है प्रज्ञा पारमिता
     उसने मेरी खेती खाई थी।
     तेरी भैंस है जनता की प्रतिनिधि
     उसने मेरी छान गिरायी थी।
     तेरी भैंस ने खाया कामसूत्र
     तेरी भैंस ने खा डाली गीता
     तेरी भैंस से अब क्या शेष रहा
     तेरी भैंस से ही यह युग बीता
तेरी भैंस के संग सब भैंस हुए
तेरी भैंस के होवे पौबारा।
तेरी भैंस को डण्डा कब मारा?
मैंने भैंस को डण्डा कब मारा?
     तेरी भैंस का होगा अभिनन्दन
     तेरी भैंस का मैं करता वन्दन
     तेरी भैंस शांति की सूत्रधार
     तेरी भैंस आत्मा की क्रन्दन
     तेरी भैंस के पागुर में भविष्य
     तेरी भैंस के पागुर में अतीत
तेरी भैंस के आगे शीश झुका
तेरी भैंस सभी से रही जीत!
तेरी भैंस ही है मेरा जीवन
तेरी भैंस ही है मेरा नारा!
तेरी भैंस को डण्डा कब मारा?
मैंने भैंस को डण्डा कब मारा?
     तेरी भैंस के आगे बीन बजी
तेरी भैंस के आगे शहनाई
तेरी भैंस घुस गई संसद में
सब संविधान चट कर आयी
तेरी भैंस के भैंस में भैंस रहे
तेरी भैंस के भैंस में भैंस बहे
तेरी भैंस करे जो जी चाहे
तेरी भैंस से अब क्या कौन कहे?
तेरी भैंस मेरे सिर - माथे पर
तेरी भैंस पे यह तन – मन वारा!
तेरी भैंस को डण्डा कब मारा?
मैंने भैंस को डण्डा कब मारा?