शनिवार, सितंबर 18, 2010

बसंत लोक की गायें

     दिल्ली स्थित बसंत लोक मार्केट अपने स्टेटस के लिए विख्यात है | इस मार्केट में एक से बढ़कर एक अन्तर्राष्ट्रीय ब्रांड अपनी नवीनतम शैलियों के साथ उपलब्ध हैं | यहाँ स्थित पीवीआर प्रिया  सिनेमा आज भारत में किसी परिचय का मोहताज नहीं है | सर्वविदित है कि इस मार्केट के इर्द – गिर्द फोरेन दूतावास बसे हुए हैं, और यहाँ रहनेवाले लोग अधिकतर इस मार्केट को एक वैश्विक दर्जा दिए हुए हैं | सफ़दरजंग का कमल सिनेमा, चाणक्यपुरी का चाणक्य सिनेमा और वसंत लोक का प्रिया सिनेमा मूलतः अंग्रेजी चलचित्रों को प्रदर्शित करने को इन्ही लोगों के लिए विकसित और निर्मित किया गए थे | इस मार्केट की ग्लोबल छवि का लाभ इस रूप में उठाया गया कि यहाँ ज़मीन और मकानों के दाम भी इतने अधिक बढ़ते गए कि एक आम आदमी के लिए इस जगह मकान खरीदने का स्वप्न देखना भी बेमानी है | यही नहीं, यदि पब – संस्कृति का गंभीर और विषद अध्ययन करना हो, तो भी यह जगह निराश नहीं कर सकती | इसके साथ ही इस मार्केट की खासियत यह है कि यहाँ समय – समय पर ब्रांडो को लॉन्च करने के लिए संस्कृति – उद्योग के नामचीन चेहरे भी अक्सर दिखाई देते हैं | स्कूल, कॉलेज, मार्केटिंग आदि विषयों के विद्यार्थी भी यहाँ अपने भविष्य का आस्वादन खोजते – सीखते मिल जाते हैं | संस्कृति – उद्योग के इस छोटे बियाबान में आपको ची गुवारा रीबोक के द्वारा बिकते हुए नज़र आ सकेंगे | यानी यहाँ पर बेचना ही धर्मं है और मैक्लुहान के इस सत्य का बोध की व्यापार हमारी संस्कृति है और संस्कृति हमारा व्यापार बेहद तीव्रता के साथ होता है |
    बाजारवाद और संस्कृति के इन लोकल चित्रों को झुठलाया  नहीं जा सकता लेकिन यह जानना अब भी बाकी रह जाता है कि सांस्कृतिक विनिमय के इस खेल में बसंत विहार से अमरीका, यूरोप और बाकी ग्लोबल स्थलों को क्या निर्यात हो रहा है ? बसंत लोक कि इस मार्केट में भीतर एक गोल – चक्कर है जिसके चारों ओर बड़े ब्रांड की दुकाने और शोरूम हैं | इस गोल चक्कर के बीच में एक भव्य फव्वारा लगा है, और इसकी मुंडेर पर युवा और युगल अक्सर आकर बैठते हैं और अपनी शाम बिताते हैं | यह मार्केट दूतावासों में रहनेवाले व विदेशियों के लिए विकसित की गयी थी, लेकिन अब वे अपने फोन के कैमरों में गोल चक्कर के समीप मँडराती – रम्भाती गायों के छायाचित्र यहाँ कि दुरावस्था का मज़ाक बनाते हुए खीच रहें हैं | जिज्ञासा उठती है कि एक “विकसित” भारतीय का इस छोटी सी घटना पर क्या रवैया हो सकता है ! निश्चय ही वह इसमें विकास के पीछे छिपे हुए पिछड़ेपन को देखेगा | एक मध्यवर्गीय भारतीय को इससे शायद ही कोई फर्क पड़े तथा अन्य मुद्दों की तरह वह इसे भी अनदेखा कर दे, लेकिन विकसित और विदेश यात्रा कर चुके ग्लोबल भारतियों के लिए यह आत्मीयता का विषय है, भले ही उनकी समझ में विदेश यात्रा करने भर से ही वे ग्लोबलाइज़ हो गए हों ! उनके लिए इससे फर्क भी क्या पड़ता है कि वैश्वीकरण की व्याख्या क्या है, बस भीतर एक स्वाद सा जगा रहना चाहिए | इस मार्केट में मँडराती गायों के मुद्दे पर स्थानीय नेताओं और राजनीतिज्ञों से भी कोई उम्मीद करना बेकार है क्योंकि वे बेचारे तो अब मीडिया में भी अप्रासंगिक हो चले हैं और यों भी वैश्वीकरण पर उनकी कोई सीधी समझ दर्ज नहीं है |
     वास्तव में गाय यहाँ अवचेतन की तरह अचानक ही प्रकट होती है और हम ‘विकसित’ और ‘विकासशील’ भारतीयों को हमारी असली आदतों और सोच से वाकिफ़ कराती है | कल्पना कीजिये कि एक मेट्रोपोलिटन कोई ट्रांसनेशनल ब्रांड खरीदता है और जैसे ही वह आउटलेट के बाद कदम रखता है, उसे एहसास होता है कि उसके नाज़ुक पैर व महंगे जूते – चप्पल गोबर में सन गए हैं तो स्वयं की उसकी निर्मित ग्लोबल छवि का क्या होगा ! बल्कि तीसरी दुनिया के वे देश जो अपने महानगरों को शंघाई जैसे ब्रांड शहरों में तब्दील करना चाहते हैं, अवचेतन के ऐसे प्राकट्य से बच नहीं सकते ! यह उनके लिए विचारणीय प्रश्न है | ज़ाहिर है,इसके लिए भी रास्ता उसी सोच से मिलेगा, जो उदारवाद से विकास चाहती है | गायों को हटाने का काम भी बहुत व्यावसायिक रूप अख्तियार कर सकता है, यदि सरकारें और नीति निर्धारक इस समस्या को भी बहुराष्ट्रीय निगमों को बाइज्ज़त सौंप दें | ब्रांडिंग के बरक्स अनुभव को स्थपित करने की प्रक्रिया में उपभोक्तावाद की गोबर रहित मांग यही हो सकती है, जबकि नागरिकता हमेशा की तरह फिर संदेहों के घेरे में है |
    यह जानना कठिन नहीं है कि इस छोटे से खींचे गए यथार्थ चित्रण पर एक सामान्य भारतीय का नजरिया इसे टालने और इसके प्रति भावुक होने का है | लेकिन यहीं पर यह समझ बनानी ज़रुरी है कि ग्लोबल और इस प्रकार के लोकल में सह-अस्तित्व का कोई कारण नहीं है | जहाँ व्यवस्था ग्लोबल खरीददारी की है, वहाँ गोबर के लिए कोई जगह नहीं हो सकती,अब तक का माल कल्चर भी यही सिद्ध करता है | इन बड़े बाज़ारों के बीच घूमती – टहलती गायों ने भारत बनाम इंडिया के प्रश्न को उठाते हुए यही पूछा है कि क्या यही विकास है ? बड़ी नामी दुकानें यही प्रज्ज्वलित करती हैं कि यही विकास है, लेकिन उस आम भारतीय के भीतर वह असल आंतरिक शक्ति नहीं है जो सारी व्यवस्थाओं को झुठलाकर यह सत्यापित करती है कि जिसे हम मानसिक रूप से सच्चा विकास कहेंगे वह दरअसल नदारद है | वह ऊपर से विकसित दिखता है पर भीतर से खोखला है | वह सिर्फ खरीदना चाहता है और इसके लिए बिकने को तैयार है|
                        अरुणाकर पाण्डेय
                                 
                  

शुक्रवार, सितंबर 17, 2010

कहां है राह में मुश्किलें

                                                         प्रकाशित - राष्ट्रीय सहारा, 14 अगस्त, 2010
           हम एक ऐसे भारतीय समाज के हिस्सेदार हैं जो अपनी बुनियादि सोच में सामंती और लद्दङ है। किसी भी किस्म के क्रांतिकारी परिवर्त्तन के खिलाफ। लगभग अतीतजीवी। यथास्थिति को कायम रखनेवाला। साहसिक परिवर्त्तन को लगभग नकार देनेवाला। कहना न होगा, ये बातें भारतीय शिक्षा पद्धति और प्रणाली पर भी लागू होती है। मानव संसाधन विकास मंत्री कपिल सिब्बल इस यथास्थितिवाद को तोङना चाहते हैं। इस दिशा में उन्होंने क्रांतिकारी परिवर्त्तन का आगाज किया है।
     अपनी दृढ़ इच्छाशक्ति और निश्च्य का परिचय देते हुए कपिल सिब्बल ने दसवीं बोर्ड परीक्षा प्रणाली को ध्वस्तकर न सिर्फ अपने मजबूत इरादे का परिचय दिया है बल्कि पचास साल से अधिक समय से चली आ रही परीक्षा पद्धति को एक झटके में बदल दिया। अब दसवीं की परीक्षा एक अनिवार्यता नहीं वैकल्पिक चुनाव है। यह एक ऐसी कोशिश है जो बच्चों को मशीनीकृत होने से रोकेगी। अनंत प्रतिस्पर्धा के अंतर्जाल में फंसकर आत्महत्या का रास्ता चुनने से भी रोकेगी। दूसरे शब्दों में कहें तो ‘तनावराज’ को खत्मकर ‘नयी स्वतंत्रता’ या आजादी चुनने का विकल्प मुहैया करायेगी। आंतरिक मूल्यांकन और ग्रेडिंग प्रणाली निश्चय ही जैसे – तैसे सफल होने की प्रतिस्पर्द्धात्मक परीक्षा प्रणाली की तुलना में बेहतर विकल्प हैं। यह पद्धति प्रतिभा (टैलेंट) को निखरने, खिलने और प्रस्फुटित होने का अवसर प्रदान करेगी। बच्चे अपनी रुचि का विषय चुनकर बेहतर परिणाम दे सकेंगे। सर्वांगीण विकास के लिए चुनाव का दायरा भी काफी व्यापक हो सकता है। मसलन कला, साहित्य, संगीत, सिनेमा, नाटक, वैज्ञानिक अविष्कार, खेलकूद आदि – आदि। बच्चे सफलता की बजाय सार्थकता को चुनेंगे। इससे उनके व्यक्तित्व में निखार और ऊचाइयां आयेगी।    
   लेकिन यही कपिल सिब्बल की राह के रोङे भी हैं। जो विचारक, चिंतक, शिक्षाविद या राजनीतिक पार्टियां विरोध कर रही है उनके तर्कों में भी दम है। पहला, क्या दसवीं को विकल्प भर बना देने से समस्या का समाधान हो जायेगा? बारहवीं के बाद बच्चे फिर प्रतिस्पर्धा की उसी अंधी खाई में गिरेंगे। आगे के सारे रास्ते कंपटीटीव एक्जाम से भरे हैं। ऐसे में परिवार का दबाब होगा, सफल बनाने की। कहने का मतलब जब तक मानसिकता के स्तर पर बदलाव नहीं होगा बच्चे ‘गलाकाट प्रतियोगिता’ के लिए ‘खास नस्ल’ के रुप में तैयार होते रहेंगे। यानी उचित शैक्षणिक वातावरण का निर्माण भी सिब्बल की चुनौती है।
    दूसरा, यह प्रणाली शहरी क्षेत्रों में तो संभव है लेकिन उन ग्रामीण क्षेत्रों का क्या होगा जहां स्कूलों में बुनियादी सुविधायें – पानी, ब्लैकबोर्ड, शिक्षण साधन और यहां तक की शौचालय भी उपलब्ध नहीं है? अगर बच्चे की रुचि पेंटिंग में है, वह इससे संबंधित पुस्तकें पढ़ना चाहे तो अच्छी लाइब्रेरी की आवश्यकता पङेगी या फिर अपनी पेंटिंग की प्रदर्शनी लगाने के लिए कलादीर्घा की। नाटक के लिए रंगशाला की जरुरत पङेगी। खेलने के लिए प्लेग्राउंड की। क्या यह आधारभूत संरचनात्मक बदलाव और सुविधाओं के बगैर संभव है? व्यक्तिगत स्तर पर देखें तो बीस रुपये से कम कमानेवाला 78 करोङ आबादी विकल्प चुनने के लायक है? इन कामों के लिए काफी पूंजी की जरुरत पङेगी। ऐसे में गांधी का फंडा कमाओ और पढ़ोवाला कारगर हो सकती है।     
   हालांकि कपिल सिब्बल शिक्षा के क्षेत्र में प्रत्यक्ष विदेशी पूंजी निवेश (एफ. डी आई) के पक्षधर हैं। यह सराहनीय कदम हो सकता है। लेकिन ध्यान रखना होगा कि शिक्षा का क्षेत्र महज व्यापारिक उद्योग बनकर न रह जाए। वाम पार्टियां व सरकार इसका पुरजोर विरोध कर रही हैं। उनका मानना है कि इसका लाभ सिर्फ उच्चवर्ग के लोभ उठा पायेंगे। इसका सशक्त उदाहरण पब्लिक और प्राइवेट स्कूल के बीच फैली विषमतम खाई है। जैसे इन दोनों के बीच ढ़ांचागत परिवर्त्तन की जरुरत है वैसे ही प्रत्यक्ष विदेशी पूंजी निवेश में भी होगी। ताकि बहुसंख्यक हिंदुस्तान इसका लाभ उठा सके। ऐसे में कपिल सिब्बल के लिए शिक्षा का समान वितरण भी सबसे बङी चुनौती होगी।
    चौदह साल तक के बच्चों के लिए शिक्षा का अधिकार फ्री और अनिवार्य करना कपिल सिब्बल के द्वारा उठाया गया ऐतिहासिक कदम है। ‘नेशनल लिटरेसी मिशन’ के तहत स्त्रियों को शिक्षित करने की कोशिश, मुस्लिम बच्चों को मोडेरेट करने के लिए मदरसे को ज्ञान – विज्ञान, तकनीक और वैज्ञानिक शिक्षा पद्धति से लैस करना, आधुनिक विषय पढ़ाने पर बल देना, सस्ते दामों में लैपटाप उपलब्ध कराने की दिशा में सकारात्मक पहल करना, बाडबैंड और इंटरनेट से स्कूलों को लैस करना, एसी. एसटी. बच्चों के लिए अलग से कोचिंग चलाने की दिशा में आगे बढ़ना, प्राइवेट और पब्लिक पार्टनरशिप बनाने की कोशिश करना बेहद अनिवार्य और सराहनीय कदम हैं। उम्मीद करनी चाहिए कि इसके बेहतर परिणाम आयेंगे।
   जहां तक उच्च शिक्षा का सवाल है कपिल सिब्बल ने कई महत्वपूर्ण फैसले को अंजाम देने की दिशा में काम किया है। पूरे देश में सेमेस्टर प्रणाली के तहत पढ़ाने के लिए जोर देना कई मायनों में जरुरी है। हमें यह मानना होगा कि हिंदुस्तान वैश्विकृत दुनिया का अनिवार्य हिस्सा हो चुका है। अगर शिक्षा में विश्व रैकिंग सुधारना है तो उन्हीं प्रणाली में शामिल होना होगा। विकसित दुनिया के लगभग सभी देशों में सेमेस्टर प्रणाली लागू है। विस्थापन की स्थिति में या बेहतर विश्वविद्यालयी विकल्प की तलाश में यह सबसे कारगर पद्धति है। इससे गवर्नेंस में ट्रांसपेरेंसी तो आयेगी ही बाहरी और अच्छी फैकल्टी बुलाने में सुविधा होगी। अमर्त्य सेन विदेश में पढ़ाते हैं तो भारत सरकार की भी कोशिश होनी चाहिए कि आक्सफोर्ड और कैंब्रिज के शिक्षक यहां हों। यह सेमेस्टर के द्वारा आसानी से संभव है। आखिर हिंदुस्तान के बङे पैमाने पर शिक्षक विदेशी विश्वविद्यालय में सेमेस्टर के भीतर ही पढ़ाते हैं। इनटरडिसिपलिनरी के इस दौर में यह कारगर कोशिश होगी। परीक्षा एवं मूल्यांकन पद्धति में सहुलित हो जायेगी। अध्ययन – अध्यापन और शोध की गुणवत्ता पर भी फर्क पङेगा। इस व्यवस्था में सत्ता, राजनीति और ब्यूरोक्रैटिक सेटअप को कुछ कदम पीछे हटना पङेगा। यह और बात है कि फेडकुटा इसका जबरदस्त विरोध कर रही है।
    पूरे देश में विज्ञान, गणित, कामर्स, आदि को एक ढ़ांचे में लागू करने या एक ही सेलेबस होने का आशय स्पष्ट है बाजार और पूंजी केंद्रित शिक्षा व्यवस्था को लागू करना। अब यह मान लेना चाहिए कि शिक्षा एक ‘सोसियो – इकॉनोमी’ एक्टिविटी है। इसका जबरदस्त विरोध हो रहा है। विरोध का कारण शिक्षा में क्षेत्रीय विविधता का नष्ट हो जाना, पूंजी और शिक्षा का केंद्रीकरण हो जाना, पश्चिमी देशों का पिछलगू हो जाना, बाजार की शक्तियों के हाथों पराजित हो जाना, स्थायीपन की जगह टेम्पररी यानी दरबदर के जीवन में आ जाना है। सिब्बल की चुनौती है कि इन तर्कों के आलोक में अपने कदम बढ़ायें। सरकारी दामाद बन जाने की मानसिकता को तोङे। शोध के लिए इंफ्रास्टक्चर विकसित करें और प्रोत्साहन दें। पंकज कपूर वाली फिल्म ‘एक डाक्टर की मौत’ में दिखाये गये गतिरोध को आमूल – चूल बदलें। उच्च शिक्षा में कैपिटेशन फी को रोकने, सुविधाएं बढ़ाये जाने, ताकि छात्रों के साथ धोखा न हो स्वागत योग्य तो हैं ही, साथ ही कॉपीराइट एक्ट को मजबूत करने की दिशा में उठाया गया कदम भी बेहद अनिवार्य एवं प्रसंशनीय । 
                          ( राजकुमार )             
                

गुरुवार, सितंबर 16, 2010

आरक्षण की मांग और खेल भावना

    आरक्षण का मुद्दा सामाजिक न्याय की अवधारणा के आधार पर खड़ा हुआ है | किसी जाति या वर्ग द्वारा अपने लिए आरक्षण की मांग किसी भी तरह से गैर क़ानूनी नहीं ठहरायी नहीं जा सकती, लेकिन मांग करने के उसके तरीके का अध्ययन किया जाय तो स्पष्ट पता लगता है कि कि वह अपनी मूल संरचना में किस मानसिकता के साथ उपजी है | कई बार ऐसा हो जाता है कि आरक्षण की मांग में सामाजिक न्याय की प्रक्रिया लुप्त हो जाती है, और उसकी जगह हिंसा, उग्र प्रदर्शन तथा राजनीतिक वर्चस्व ले लेते हैं | ऐसे में जो मांग उचित तरीके से संपूर्ण नागरिक जिम्मेदारी के साथ उठायी जानी चाहिए, वह शक्ति प्रदर्शन की गैर लोकतांत्रिक तथा गैर संवैधानिक उग्रता में दब जाती है| असल मुद्दे के पीछे छूट जाने के अलावा एक और नुक्सान जो इसके कारण होता है, वह यह कि यह साथ ही साथ अन्य को भी प्रतिक्रियावाद की भेंट चढ़ा सकता है | इसके साथ ही ऐसी मानसिकताओं से आम जनता और व्यावसायिकता का भी ह्रास हो सकता है |
        हाल ही में, दिल्ली में अखिल भातरीय जाट आरक्षण संघर्ष समिति द्वारा आरक्षण जल्दी न देने पर इस धमकी का दिया जाना कि वे कॉमनवेल्थ गेम्स साइट्स और कार्यालय पर हमला बोल सकते हैं, मुद्दे के लीक से भटकने का उत्कृष्ट उदाहरण है| आरक्षण जल्दी देने का यह सन्देश देशवासियों तक पहुँचाने के लिए ये लोग एक योजना के तहत टिकट खरीदने के बहाने कॉमनवेल्थ गेम्स के मुख्यालय में घुसे, वहाँ तोड़-फोड़ की और उत्पात मचाया | कॉमनवेल्थ गेम्स के साथ पहले ही बहुत से विवाद जुड़ गए हैं, उस पर इस प्रकार की धमकी जहाँ सरकार के लिए प्रशासनिक सरदर्दी बढ़ाने का काम करेगी, वहीँ दिल्ली कि आम जनता के लिए यह कानून और सुरक्षा की समस्या बढ़ाएगी | उक्त तोड़ – फोड़ और हिंसात्मक गतिविधियों का नतीजा यही निकला कि पुलिस द्वारा लाठी चार्ज किया गया और तेरह लोगों की गिरफ्तारी हुयी | इस पर भी समिति के राष्ट्रीय अध्यक्ष का यह कहना है कि यदि उन्हें आरक्षण नहीं मिला तो वे छापामार गोरिल्ला नीति के माध्यम से अपना आंदोलन चलाएंगे | इस प्रकार जितने भी आंदोलन संचालित किये गए हैं, भले ही उन्हें कुछ आरंभिक सफलताएं ही क्यों ना मिली हों, लेकिन उनसे जुड़े हुए लोगों और उनके समाज की जीवन पद्धति ही अलगाववाद की ओर मुखरित हुयी है | यही नहीं उनकी सामाजिक पहचान में भी बदलाव आये हैं | इस प्रकार लोकप्रिय होने की उनकी आरंभिक सफलता भी उनकी एकमात्र स्थायी पहचान में रूपांतरित हो जाती है जिससे उनका अलगाववाद और पुष्ट ही होता है | इसके सबसे ताज़े उदाहरणों में से राज ठाकरे और उनकी महाराष्ट्र नवनिर्माण सेना को देखा जा सकता है, जिसने अपने मराठी मानुस के सांस्कृतिक मुद्दे को स्वयं ही अन्य पर हमले के आपराधिक मुद्दे में तब्दील कर दिया | इसका हासिल यह हुआ कि नयी पार्टी के रूप में, एक बड़ी तादाद में उन्हें अपने राजनितिक – सांस्कृतिक समर्थन को खो देना पड़ा | वे संवैधानिक, सामाजिक, तथा बौद्धिक दृष्टी से अतार्किक तो थे ही, लेकिन उन्होंने अलगाववादियों सरीखी जैसी अपनी पहचान बना ली है | राजस्थान के गुर्जर आरक्षण आंदोलन में तो स्थिति और भी पीड़ादायी हो गयी क्योंकि वहाँ लोगों को अपनी जान से हाथ तक धोना पड़ गया | कहने का अभिप्राय यह कि आरक्षण की  मांग अनैतिक या असंवैधानिक नहीं है, लेकिन यदि उसकी जगह भड़कती भावनाओं के प्रदर्शन से ही काम चलाया जाएगा तो यह निश्चित ही अराजकता का चुनाव होगा | इसमें आंदोलन को जन समर्थन तो नहीं ही मिलता और अंततः कानून का ही सर्वोपरि होना सिद्ध होता है | कॉमनवेल्थ गेम्स के कार्यालय पर हमले वाले मामले में भी अंततः लोग गिरफ़्तार ही किये गए और बाद में जमानत पर छूटे | यह नतीजा अवश्यम्भावी था, लेकिन इससे आरक्षण प्राप्त करने की दिशा में तो कोई उपलब्धि नहीं मिली | इससे यही साबित होता है कि अपनी मांग को जायज़ तरीके से संप्रेषित करना ही आंदोलन को सही दिशा में ले जाना है क्योंकि अंततः हम सभी कानून कि व्यवस्था के अधीन हैं |
      शिक्षा और खिलाड़ियों के नज़रिये से देखें तो विवादों के बावजूद कॉमनवेल्थ गेम्स के आयोजन को खेल भावना से विलगाया नहीं जा सकता | खेल भावना तथा उसकी संस्कृति पर किसी का एकल अधिकार नहीं है, वह तो मनुष्य मात्र के विकास और शिक्षा का एक अनिवार्य तत्त्व माना गया है | इसमें हर देश के वर्ग और जातियों के खिलाड़ियों ने अपना योगदान दिया है | इसी दृष्टी से यदि खेलो में जाटों के योगदान का अध्ययन किया जाय तो एक समृद्ध परंपरा देखने को मिलती है | इसमें चन्दगीराम, दारा सिंह, गामा सिंह, कपिल देव जैसे दिग्गजों के नाम शामिल होते हैं तो युवा खिलाड़ियों में वीरेंद्र सहवाग, युवराज सिंह से लेकर विजयेन्द्र सिंह, ज्योति रंधावा तथा साएना नेहवाल तक ऐसे ही और अनगिनत नाम गिनाए जा सकते हैं | ऐसे में यदि जाट समुदाय अपने आरक्षण की मांग के लिए कॉमनवेल्थ गेम्स पर आक्रमण की रणनीति को ही चुनता है, तो खेल भावना के उसके योगदान में यह उसका एक नया अभूतपूर्व सम्बन्ध ही बनेगा, जो उसे भी नकारात्मक रूप में अलगाववाद की पहचान दे सकता है | कहने की आवश्यकता नहीं कि यह हर हाल में दुखदायी ही होगा |
                          ( अरुणाकर पाण्डेय )
                                                                      
                                                                                                                                      

बुधवार, सितंबर 15, 2010

अश्लील साहित्य का कारोबार

                                        प्रकाशित - आभासी दुनिया, जनसत्ता, 23 जून, 2010
       अश्लील साहित्य की दुनिया के बेताज बादशाह का ब्रांड नाम  मस्तराम है। प्रकाशक के अलावा शायद ही किसी को मालूम हो कि यह असली नाम है या काल्पनिक। मस्तराम नाम से छपने वाला लेखक भी किसी निश्चित प्रकाशन से शायद ही  छपता है। कहा तो यहां तक जाता है कि कानून से बचने के लिए यह छदम नाम चुना गया। अश्लील साहित्य की दुनिया में मस्तराम इतना चर्चित और ऊंचे ब्रांड का नाम है कि कई लिक्खाङ पैसे के लोभ में इसी नाम से लिखते हैं। हर प्रकाशक का विज्ञापन बार – बार इस बात पर बल देता रहा है कि वही असली प्रकाशक है और उसके यहां छपने वाला लेखक असली। आखिर अश्लीलता रचने और परोसने में भी असली – नकली का झगङा है। दावेदारी कहें तो और बेहतर हो। फिलहाल यह कॉपीराइट किसके पास है नहीं मालूम। बेचने वाला चूंकि पुलिस के डर से चोरी छिपे बेचता है और अक्षर ज्ञान भर रखता है इसलिए यह जानना कठिन है कि असली लेखक और प्रकाशक कौन है?
     कारण चाहे जो हो लेकिन ‘मस्तराम’ नाम में श्लेष है। नामारुप ही मस्ती और सेक्स का साहित्य रचता है। यहां शब्द नंगे हैं। आवरणहीन। शिष्ट या मुख्यधारा के साहित्य में भी अगर दो जोङी शरीर नग्न होते हैं तो शब्द उन्हें कल्पनात्मक बिंबों से ढक लेता है। मस्तरामी साहित्य में जिस्म और शब्द दोनों नंगे, बेलौस उघङें, कामोत्तेजक, देहभक्षक हैं। देह से ज्यादा शब्दों में सनसनी है। यहां सेक्स प्रदर्शन और उत्तेजना का विषय है। दमित कुंठाओं को तृप्त करने वाला नहीं बल्कि असीमित अतृप्ततता जगाने वाला। भङकाने वाला। अगर वह पाठकीय कुंठाओं को संतुष्ट करता तो मृत्यु को प्राप्त करता। ब्रांड भी विश्वसनीयता खो देता। इस ब्रांड की खासियत यही है कि वह पाठकों को लगातार पाठकीय अतृप्तता की ओर ले जाता है। पाठक पुस्तक की समाप्ति की ओर नहीं बल्कि “ये दिल मांगे मोर” की तरफ बढ़ता है। इस कारण ब्रांड वैल्यू बनी रहती है।
      शिष्ट साहित्य में सेक्स संबंधों की अपनी मर्यादा और नैतिकताएं होती है। अंतरंग संबंध भी उत्तेजना पैदा करने की बजाय सौंदर्य की अनुभूति करानेवाले विशिष्ट अनुभव संपन्न होते हैं लेकिन घासलेटी साहित्य सुसुप्त कामनाओं को गुदगुदानेवाला। स्नायू तंत्रों को उत्तेजित करनेवाला। पाठकीय आस्वाद में कामनाओं का जहर दौङानेवाला। 
     घासलेटी साहित्य की दुनिया में मस्तराम ब्रांड को लंबे समय तक टक्कर देने वाला कोई दूसरा ब्रांड नहीं था। अब यह ब्रांड अपनी आखरी सांसे गिन रहा है। वैश्विकरण और सूचना क्रांति ने दुनिया को आर्थिक चमक ही नहीं दी बल्कि अश्लील साहित्यिक दुनिया को भी नये ढंग से गुलजार कर दिया। सैंकङों अश्लील पोर्न साइट न सिर्फ दृश्य के लिए चौबीसों घंटे उपलब्ध हैं बल्कि पठन के लिए भी। मस्तरामी साहित्य का नैरेटर मर्द थे / हैं। इंटरनेट पर उपलब्ध साहित्य में दमदार नैरेटर महिलाएं हैं। वैसे भी इस मर्दाना जगत में सेक्स संबंधित अनुभव अगर महिलाएं सामने रखती हैं तो जाहिर है उसकी ब्रांड वैल्यू बढ़ जाती है। यह अनुभव जगत के नये क्षेत्र हैं / और बहुत तेजी से बन रहे हैं। महिलाएं धङाधङ अपने सेक्स संबंधों को सत्यकथाओं की लङी में, मनोरम कहानियां की तरह पेश कर रहीं हैं। ग्रूप सेक्स अब तक दृश्य और फिल्मांकन के विषय थे, (वहीं तक सीमित थे) लेकिन अब अध्ययन और पठन के विशेष सामाग्री के तौर पर उपलब्ध हैं। मस्तरामी ब्रांड ने सामाजिक – पारिवारिक संबंधों को छिन्न – भिन्न नहीं किया था। लेकिन वर्चुअल दुनिया के इस बनते ब्रांडों ने सामाजिक – पारिवारिक संबंधों को लगभग रगङ दिया है। कोई नैतिकता शेष नहीं बची है। सामाजिक पारिवारिक मूल्यों की अर्थी सजी है। भाई - बहनों तक के संबंध जिस्मानी यौनेकांक्षा की उत्तेजना और भूख से पारिभाषित हो रहे हैं।
      समाज के वे ठेकेदार जो खाप पंचायत की आङ में जाति, वर्ण, गोत्र के नाम पर प्रेमियों और विवाहितों की हत्याएं करके छुट्टे सांढ की तरह घुम रहे हैं, भाई – बहन बनने पर बाध्य कर रहे हैं उन्हें दकियानुसी मानसिकता से बाहर निकल वर्चुअल दुनिया पर भी एक नज़र मारनी चाहिए। जो आने वाली पीढ़ियों को अतृप्त कुंठाओं के मकङजाल में उलझा रही हैं। उन सत्ताधिशों और सत्तालोलुपों को सावधान हो जाना चाहिए जो मरणशील प्रवृतियों को सिर्फ इसलिए जिंदा रख रहे हैं कि कहीं पंचायत उनके वोट न खराब कर दे। उन्हें गहराई से आत्ममंथन करना चाहिए। जो लोग संस्कृति के नाम पर राजनीति चमकाते रहते हैं और जब – तब हमलावारों की तरह छोटी – छोटी गुफाओं, द्वीपों से चिटियों की झूंड की शक्ल में निकल आते हैं उन्हें इस खतरनाक प्रवृति पर विचार करना चाहिए। वे लोग जो तसलीमा नसरीन, एम. एफ. हुसैन और वैद जैसे लेखकों, कलाकारों पर पोर्न और अश्लीलता रचने का आरोप लगाते हैं उन्हें अपने बिलों से निकलकर बाहर झांकना चाहिए।
    चीन की आर्थिक और सामरिक शक्ति की चमक और धमक से घबराने वाला हिन्दुस्तान क्या उससे यह सीख पायेगा कि कुंठाओं, उत्तेजनाओं और यौनेकांक्षा का चित्कार – सित्कार कर सनसनी फैलानेवाले और गुदगुदी करनेवाले इन खिङकियों को बंद रखा जाए। भले ही अमेरिकी दादागीरी कितना ही दबाब क्यों न बना ले। क्या गांधीजी ने अपनी खिङकियों और दरवाजों को इन्हीं विचारों के लिए खुले रखने के लिए कहा था? क्या यह हमारी नज़रों से चुक रहा है कि चीन अपनी शर्त्तों पर इन्हें आने दे रहा है न कि मुक्त बाजार के प्रलोभन और दबाब की शर्त्त पर?
                       ( राजकुमार )
                        

रफ़्तार – संस्कृति और मीडिया

    सभ्यता के विकास के साथ रोज़मर्रा के काम करना अब सचमुच एक टेढ़ी खीर होता चला जा रहा है| दैनिक जीवन जीना लगातार इतना महंगा और संशलिष्ट हो चला है कि अब रोज के साधारण समझे जानेवाले कामों में आने वाली रूकावटो कि वजह से मनुष्य मरने मारने पर उतारू हो जाता है | वह अपने गुस्से को काबू में नहीं रख पाता,और कई बार बात इस हद तक बिगड़ जाती है कि हिंसात्मक होने पर भी उसे अब कोई गुरेज़ नहीं है | आश्चर्य का विषय यह है कि लोग ऐसा अपनी समय और उर्जा बचने के लिए नहीं कर रहे | साथ ही यह हिंसा भाव उनकी रोटी से भी नहीं जुड़ा| इसका प्रमुख कारण यही समझ आता है कि रोज़मर्रा के ये काम उनकी साख से इस कदर जुड़ गए है कि वे इसके द्वारा अपना आधिपत्य अन्य पर जमाना चाहते हैं |
                                    यदि आजकल अपराध मीडिया के स्थायी भावों में से एक है,तो उसके सामाजिक – सांस्कृतिक आधार भी मिलते हैं | लेकिन घटनाएं और ख़बरें जब ऐसी आने लगें कि सड़क पर गोली मारने का कारण ओवरटेकिंग हो या फिर पार्किंग का विवाद,तो ऐसे में इस नतीजे पर पहुँचना कि हम लगभग सामंती हो चले हैं,अतिशयोक्ति नहीं हो सकता | वैसे तो ऐसी घटनाओं कि ख़बरें प्रकाशित होती ही रहती हैं,लेकिन चंद दिनों पहले दिल्ली के मयूर विहार में एक बस चालक ने एक कार चालक के कंधे पर इसलिए गोली चला दी,क्योंकि कार ने बस को ओवरटेक कर लिया था | एक समय हिंदी के एक कवि नागार्जुन ने एक बस ड्राईवर के चरित्र पर एक कविता लिखी थी और यह बताया था कि उसने बस के गियर पर अपनी बेटी के लिए हरे कॉच की चूडियाँ लटका रखी थीं,जिससे उसके वात्सल्य भाव के प्रति पाठक के मन में जगह बनी थी |लेकिन गोली मरने वाले ड्राईवर की खबर तो धीरे – धीरे साधारण मनुष्य के अराजक तथा बर्बर होने की कहानी कहती है | उस बस ड्राईवर के पास हथियार का होना अपने आप में बहुत आश्चर्य का विषय तो है ही,लेकिन उससे राह चलते किसी भी नागरिक अथवा व्यक्ति का गैरसंवेदंशील अपराधी प्रवृत्ति का होना मन में असुरक्षा बोध और भय को ही जन्म देता है |यदि एक बस ड्राईवर  के पास हथियार रखने और उसके दुरूपयोग का माद्दा हो सकता है, तो वह फिर किसी के पास भी हो सकता है |
     यदि मीडिया पर ही भरोसा किया जाय ,तो वो ऐसी मानसिकता के विकास और उसके प्रति सजगता, दोनों के ही नज़रियों को पोषित करता है | उसने सड़क पर बढ़ती हुई रफ़्तार,गेजेट्स के बढ़ते हुए उपयोग,बेशुमार ताकत तथा सुविधाओं वाली गाड़ीयों के साथ ऐसे मेगाहिट चरित्र भी अचैतनिक रूप से दर्शक-पाठक –श्रोता में पिरोये हैं की उससे अपराध भी ग्लेमरस हो, लाइफस्टाइल की तरह कुछ स्थापित हो चला है | आज का उपभोक्ता-नागरिक इसे स्वतंत्रता के अधिकार, सेक्स अपील तथा हीरोइज़्म के रूप में देखता है, और इसे सत्तात्मक बनाता है | वर्चुअल की छद्म सफलता की उपस्तिथि उसे उद्वेलित तथा आंदोलित करती है , कि वह उसे अपने अद्यतन आदर्श की तरह स्वीकार करे, क्योंकि यही वह स्वाद है जो उसे सर्वश्रेष्ठ घोषित करेगा, उसे स्टेटस सिंबल प्रदान करेगा | कहने की आवश्यकता नहीं है कि अंततः यह हिंसा की जड़ो को मजबूत करने का अप्रस्तुत माध्यम है | इस बाबत ‘जेम्स बौंड’,’फास्ट एंड फ्यूरियस’,’ट्रांसपोर्टर’,’धूम’,’डान’ तथा ऐसे ही अनेक उदहारण गिनाए जा सकते हैं | इन चरित्रों की लोकप्रियता तथा लगातार मीडिया द्वारा इनका प्रस्तुत किया जाना जन समाज में इन्हें स्थाइत्व प्रदान करता है | ’ट्रांसपोर्टर’ के नायक के लिए तो उसकी गाड़ी ही हथियार का काम करती है और इसके तीसरे संस्करण में वह उसी लड़की से भावनात्मक एवं शारीरिक सम्बन्ध बनाता है जो मंत्री की बेटी है और स्थानान्तरित करने का माल भी | इसी फिल्म में वह अपनी संयंत्र गाड़ी से ही रेलगाड़ी पर भी प्रहार करता है और फिल्म के विलेन का भी काम तमाम करता है | यहाँ अपराध फैशन और स्टाइल की मानसिकता को बढ़ावा देता है और हमारी असल दुनिया में इसका यह प्रभाव पड़ सकता है की बस चालक द्वारा गोली चलाने जैसे परिणाम सामने आते हैं | कहने का अभिप्राय यह नहीं कि मीडिया द्वारा प्रायोजित ‘रफ़्तार’ का साधारण मनुष्य पर कोई कार्य – कारण जैसा प्रभाव पड़ता है,अपितु वह तो पोषक का काम करती है, जिससे ऐसी मानसिकता बनने में मदद ही मिलती है |
      आपराधिक प्रवृत्तियों के सांस्कृतिक आधार को पोषित करने में जहां मीडिया सहभागी बनता है, वही पर वह उसे नियंत्रित भी करना चाहता है | उसके प्रति मीडिया सजगता भी पैदा करता है, लेकिन वह उसे मानसिक रूप से मिटा नहीं सकता | अंततः यह उसके लाभ में नहीं है, और मार्केटवादी मीडिया व्यवस्था में तो कतई नहीं | यही कारण है कि जहाँ वह रफ़्तार और अपराध से सम्बंधित सामग्री प्रसारित करता है, तो भयंकर परिणामों को भी उसी रोचकता से सराबोर कर प्रस्तुत करता है |
       विदेशी एक्शन चैनलों पर अक्सर कुछ ऐसी विडियो का संग्रहण प्रस्तुत किया जाता है जिसमे मदहोश या अपराधी कार चालक बहुत तेज रफ़्तार से अपनी गाड़ी भगा रहे होते हैं, और वहाँ कि पुलिस अपनी पूरी ताकत और यंत्रों सहित उनका पीछा लाइव कमेंट्री के साथ कर रही होती है | इसमें अक्सर ऐसे दृश्य आते हैं जिनमे अपराधी अपनी गाड़ी बेतहाशा भगाते हैं | कभी वे गलत दिशा में गाड़ी भगाते हैं, तो कभी कई गाड़ियों से टकराने के बादवजूद भी वे रुकने का नाम नहीं लेते और भागते चले जाते हैं | इस भागमभाग में कई बार हथियारों का इस्तेमाल किया जाता है तो शहर के ऊपर कैमरे से लैस हेलीकाप्टर भी मंडराते हुए दिखते हैं| इस समूची कार्यवाही कि रिकॉर्डिंग और कमेंट्री साथ – साथ हो रही होती है | अंततः चालक या अपराधी पकड़ा ही जाता है और इसे पुलिस कि विजय भंगिमा का पुट दिया जाता है | इसके लिए अक्सर अपराधी द्वारा दोनों हाथ उठाकर समर्पण के प्रतीक के रूप में दर्शाया जाता है, और संदर्भित पुलिस अधिकारियों के विश्लेषण व अनुभव के साथ प्रस्तुत किया जाता है | यहाँ पर यही संदेश दिया जाता है कि चालक या अपराधी कितना ही चालाक या तेज – तर्रार हो, वह कानून या पुलिस की हदों से बाहर नहीं है | संभव है कि किसी दिन ऐसे मदहोश या अपराधी चालकों,मीडिया और पुलिस के सहयोग से इस प्रकार की रिएल्टी हमाए यहाँ भी निर्मित हो ने लगे | लेकिन यह विश्लेषण हमेशा नदारद रहता है कि जिस सन्देश को रोचकता और कौतूहल के साथ दर्शक के लिए रियल्टी के माध्यम से निर्मित किया गया है, उसके मूल में वही वर्चुअल ऊर्जा है जो अक्सर यह कहती सुनाई पड़ती है कि डान का इन्तज़ार तो ग्यारह मुल्कों की पुलिस कर रही है, लेकिन एक बात समझ लो, डान को पकड़ना मुश्किल ही नहीं नामुमकिन भी है |   
                         - डॉ. अरुणाकर पाण्डेय
  

सोमवार, सितंबर 13, 2010

ग्राउंड ज़ीरो के तनाव

ग्राउंड ज़ीरो के नजदीक मस्जिद तथा इस्लामिक सेंटर का निर्माण अब एक सांस्कृतिक युद्ध में तब्दील हो चुका है | इस सांस्कृतिक युद्ध के परिदृश्य में कई वादी और प्रतिवादी एक साथ आमने-सामने हैं | इसमें जहाँ आम न्यू-योर्कर अपनी भूमिका को सारी दुनिया के सामने बेबाकी से प्रकट कर रहा है, वहीँ अमरीकी शासन अपने अंतर्विरोधों के साथ दबाव में आता दिखता है | इसके अलावा इस मुद्दे पर ग्लोबल तथा पारंपरिक मुसलमानों के छिपे हुए तनाव भी प्रकट होते हैं |
                                       9/11 के हमले के बाद से प्रतिक्रिया स्वरुप जो राजनितिक एवं सामरिक हमले मुस्लिम देशों में हथियारों की खोज तथा अपराधियों की धरपकड़ के नाम पर हुए, उनसे मूलतः विकसित देशो के मुसलमानों के जीवन और उनकी अस्मिता के प्रति खतरे का भावबोध पैदा हुआ | इन देशों के गैर – मुसलमान नागरिकों में यह समझ विकसित ही नहीं हो पाई की हर मुसलमान ओसामा नहीं होता और इस कारण एक सांस्कृतिक,राजनितिक और सामाजिक अलगाव की धारणा पनपने लगी | इस समस्या से निपटने के लिए इन समाजों के मुसलमानों के पास यही रास्ता था कि वे अपनी एक पुख्ता ग्लोबल छवि पेश करें तथा यह सन्देश दें कि इस्लाम आतंकवाद का पर्याय नहीं है,वह तो विश्व में शांतिपूर्वक भागीदारी का धर्म है | इसी सोच के कारण यह समझ आता है कि ग्राउंड ज़ीरो के पास जिस स्थल पर मस्जिद प्रस्तावित है, वहाँ पर एक इस्लामिक सेंटर बनाने कि योजना भी है | इस जगह का नाम कोर्डोबा हाउस रखने की योजना है, जिसमे मस्जिद के अलावा स्विमिंग पूल, बास्केट बाल कोर्ट, सम्मलेन कक्ष, पाँच सौ लोगों कि क्षमता का सभागार, शादी-ब्याह सरीखे आयोजनों कि सुविधा, थिएटर, कला प्रदर्शनी तथा रसोई-कला के प्रावधान की बातें शामिल हैं | कहने की आवश्यकता नहीं कि यदि यह सब इस्लामिक सेंटर के लिए प्रस्तावित योजना में शामिल है, तो यह उसके ग्लोबल स्वरुप को ही सबके सामने लाने का प्रयास है | इस्लामिक सेंटर का यह चित्रण उस तालिबानी संस्कृति के बिलकुल विपरीत है, जहाँ फुटबाल, संचार माध्यम, दाढ़ी की अनिवार्यता, कला विरोध, तथा शरीर को पूरी तरह ढँकने की अनिवार्यता लिए होता था | इस्लाम के इस नये ग्लोबल चेहरे को उभारने में स्वयं मार्केटवादी मीडिया व्यवस्था ने भी अपना भरपूर योगदान दिया जिसका एक प्रबल उदाहरण शाहरुख खान की बहुचर्चित फिल्म ‘माई नेम इज़ खान’ है | इस फिल्म के एक दृश्य में तो इसका नायक रिज़वान खान एक अमरीकी मस्जिद में उस डॉकटर मुसलमान से लड़ता हुआ नज़र आता है, जो मिथक का सहारा लेकर वहाँ मौजूद बाकी मुसलमानों को आतंकवाद के लिए भ्रमित करने का काम कर रहा होता है | रिज़वान खान उसकी मिथकीय व्याख्या को सही करता हुआ उस डॉक्टर मुसलमान पर कंकड़ फेंकता है, और उसे शैतान की छवि देता है | यहाँ पर शैतान पर पत्थर फेंकने कि परंपरा अपनी नयी व्याख्या के साथ सामने आती है, जिसका पालन आज भी हज के दौरान किया जाता है | इसी फिल्म में रिज़वान की भाभी भी जब हिज़ाब को खुले आम पहनती है, तो बजाय वह धार्मिक चिह्न के, मुस्लिम स्त्री के आत्म विश्वास का प्रतीक बन जाता है | इसके अलावा रिज़वान की यात्रा का उद्देश्य ही यह होता है, कि वह प्रेसिडेंट ओबामा से मिले और उन्हें आत्म विश्वास और निडरता के साथ यह सन्देश दे कि ‘माई नेम इज़ खान एंड आई एम नौट अ टेररिस्ट’ | अत: इस निष्कर्ष पर पहुँचना गलत नहीं है कि ग्लोबल इस्लामिक  की एक ऐसी छवि प्रस्तुत हो रही है जो आज की दुनिया में बिना भेदभाव के अपनी सहभागिता चाहता है और परंपराओं की अपनी एक नवीन व्याख्या पेश करता है |     
                                       लेकिन गैर – मुसलमान ग्लोबल अमरीकी या न्यू योर्कर, ग्लोबल इस्लाम के इस नये रूप को स्वीकार करने के लिए तैयार नहीं है | वह तो खुलेआम यह धारणा व्यक्त कर रहा है कि ‘ग्राउंड ज़ीरो’ वास्तव में उसके लिए अमरीकी राष्ट्रवाद का प्रतीक है | वह उसके लिए एक पवित्र स्थान है, जिसके पास वह उस आतंकवादी धर्म के केंद्र को बर्दाश्त नहीं कर सकता, जिसके आधार पर उसके देश की पहचान ‘ट्विन टॉवर्स’ को गिरा दिया गया था | मस्जिद और इस्लामिक सेंटर के विरोध में जो सन्देश इन लोगों द्वारा दिए गए, उनमे से एक यह था कि ग्राउंड ज़ीरो पर मस्जिद बनाना 9/11 के हमले में शहीद हुए हमले की कब्र पर थूकने और उन्हें अपमानित करने के समान है | ज़ाहिर है कि यहाँ पर धर्मं बनाम राष्ट्र के तनाव की स्थिति पैदा कर दी गयी है | लेकिन इस तनाव में इस पर कोई विचार नहीं है कि 9/11 के हमले में मुसलमान भी मारे गए थे | दूसरे शब्दों में यह हमला किसी एक धर्मं या सम्प्रदाय के लोगों पर ही था, यह नहीं कहा जा सकता | परन्तु इतना तो ग्लोबल अमरीकी के लिए अवश्य विचारणीय होना ही चाहिए कि जिस हमले की वजह से ग्राउंड ज़ीरो की पहचान बनी है, उसमे इस्लाम को मानने वाले लोग भी मारे गए थे और इस कारण उन शहीदों के धर्मं से सम्बंधित एक केंद्र बनाया जा रहा है, तो उन्हें आपत्ति नहीं होनी चाहिए | इसके ठीक उलट वहाँ पर तो सर्वेक्षणों के द्वारा यही सिद्ध हो रहा है कि न्यू योर्क के तिरसठ प्रतिशत लोग इस विचार के हैं कि ग्राउंड ज़ीरो के पास मस्जिद या इस्लामिक केंद्र का निर्माण नहीं होना चाहिए और सत्ताईस प्रतिशत लोग इसके पक्ष में हैं | इतना ही नहीं, अमरीकी राष्ट्रवाद इतना उग्र रूप धारण कर चुका है कि फ्लोरिडा की एक मस्जिद को पाइप बम से ध्वस्त करने के प्रयास की खबर भी आई है | इससे साफ़ ज़ाहिर होता है कि ग्लोबल अमरीकी राष्ट्रवादियों के लिए मस्जिद एक भयानक जगह के रूप में चिह्नित होती है, और वे इस भय के आवेश में आकर ही अपने राष्ट्र का सुकून खोने की राह पर अग्रसर हैं | यह उनके विकसित होने के भ्रम को भी तोड़ता  है| अन्य को ना बर्दाश्त कर पाने कि यह स्थिति भी अमरीका के आंतरिक हालात के खतरे कि ओर कूच करने का संकेत हैं | पर, इतना तो तय है कि उनके लिए ग्लोबल हो या पारंपरिक, मुसलमानों के नागरिक सरोकारों से कुछ भी लेना – देना नहीं है |
                                         इस प्रकार मोटे रूप से जो चित्र सामने आता है, वह यही बयाँ करता है कि अमरीका के भीतर ग्लोबल बनाम ग्लोबल के विवाद की गंभीर स्थिति का आधार मौजूद है | ऐसे समय में अमरीकी प्रशासन की दुविधा भी सामने आती है | एकतरफ जहाँ उसे अपने संविधान के उस मूल कथ्य की रक्षा करनी है, कि अमरीका में किसी भी धर्मं का परिचालन अथवा मस्जिद निर्माण गैर क़ानूनी नहीं है, वहीँ, दूसरी ओर उसे यह भी देखना है कि उसके ग्लोबल अमरीकी नागरिक उससे खफा न हों | यह दुविधा ही वह मूल कारण है, जिसने राष्ट्रपति ओबामा तक को द्वंद्वात्मक स्थिति में ला दिया है | किसी भी एक ग्लोबल के लिए खुलकर पक्ष में आना उनके लिए लोहे के चने चबाने के समान है | यही कारण है कि ओबामा द्वारा दी गयी एक रोज़ा इफ़्तार पार्टी में यह कहने के बावजूद कि अमरीका में मुसलमानों को इस्लामिक सेंटर बनाने का अधिकार है, उन्हें ‘कोर्डोबा हाउस’ में मस्जिद बनाने पर अपनी निष्पक्षता ज़ाहिर करनी पड़ी | उन्होंने यह स्पष्ट कहा है कि अमरीका में धार्मिक स्वतंत्रता के चुनाव तथा उसके पालन के अधिकार को कोई चुनौती नहीं दे सकता, लेकिन इसके साथ ही अपने व्यक्तव्य के अर्थ को संकुचित करते हुए तथा सन्दर्भ देते हुए उन्होंने कहा है कि इसे ग्राउंड ज़ीरो से जोड़कर कदापि न देखा जाय | इसके साथ ही उनका यह भी  बताना कि भविष्य में भी वे ‘ग्राउंड ज़ीरो’ के निकट मस्जिद बनाने पर कोई टिप्पणी नहीं करेंगे, साबित करता है कि यह मुद्दा उनके लिए कॉटो भरा रास्ता ही है | इस प्रसंग में ओबामा के अतिरिक्त न्यू योर्क तथा अलास्का के गवर्नर भी मुखरित हुए हैं | न्यू योर्क के गवर्नर डेविड पैटरसन ने तो मस्जिद निर्माण के लिए वैकल्पिक स्थान के सुझाव पर विचार करने की बात कही है | उनका यही मानना है कि वे मस्जिद न बनाने के पक्ष में तो नहीं है, लेकिन आम न्यू योर्कर की भावनाओं का ख्याल करते हुए उसे ग्राउंड ज़ीरो पर नहीं बनाना चाहिए | पैटरसन कि इस सोच से स्पष्ट हो जाता है कि एक गवर्नर की हैसियत से वे भी इसी दबाव का सामना कर रहे हैं, लेकिन वे अधिक मुखर हैं | इनके अलावा अलास्का की गवर्नर सारा पौलिन ने तो ग्लोबल मुसलामानों से सीधे यह अपील की है कि उन्हें यह समझना चाहिए कि ग्राउंड ज़ीरो के पास मस्जिद का निर्माण अनाधिकार चेष्टा है | दूसरे शब्दों में तो वे खुलकर इस विवाद को एकपक्षीय ही बना रही हैं, और उन पर अमरीका के संविधान का कोई दबाव नहीं दिखता | इसे, यदि राजनीती के तहत समझा जाए, तो यह स्पष्ट समझ आता है कि यह मुद्दा एक ग्लोबल जन समाज में संविधान पर विचार किये बगैर अपनी लोकप्रियता में इजाफा करने का सुनहरा मौका भी देता है |   
                                               -   अरुणाकर पाण्डेय ,
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                                                                                                                  arunakarpandey@yahoo.co.in