शुक्रवार, मई 06, 2011

बहुआयामी अनुभूति के रंग

                       
 पिछला एक दशक हिन्दी कविता के लिए अप्रत्याशित रूप से निराश करने वाला रहा है। अनुभव का एकहरापन, घिसी – पिटी संवेदना, कल्पना और शिल्प में ठहराव ने इसके पांव रोक रखे हैं। यह अपनी पूर्ववर्ती कविता की नकल से ही ऊर्जा खिंचने की कोशिश करती रही है। यही वजह है कि हमेशा मुख्यधारा में रहनेवाली विधा किनारे जा लगी है। ऐसी नैराश्य स्थिति में भी कई कवि एक जिद की तरह बेहतरीन कविताएं रचने की कोशिश कर रहे हैं। गीत चतुर्वेदी उन्हीं कवियों में एक हैं।
“आलाप में गिरह” गीत चतुर्वेदी की बेहतरीन कविताओं का संग्रह है। विष्णु खरे की मानें तो उन्होंने इन कविताओं के कोलाज से एक ‘विश्व – दृष्टि’ भी हासिल की है। गीत की संवेदनाएं व्यष्टि से समष्टि तक फैली – पसरी है। वे बार – बार जीवन में लय और सौंदर्य  पाने की कोशिश में कविताएं रचते जाते हैं। सुर यानी ईश्वर यानी सत्य, शिव और सौंदर्य को साधने की कोशिश करते हैं लेकिन हर बार उसमें गांठ पङ जाता है। ‘जाने कितनी बार टूटी लय / जाने कितनी बार जोङे सुर / हर आलाप में गिरह पङी है’। यह गांठ समय और समाज की विद्रूपताओं से ऊपजता है। मनुष्यता विरोधी कार्यवाही से। घृणा और नफरत से। सांप्रदायिक दंगे और गुंगा, बहरा एवं अंधा हो चुके लोकतांत्रिक प्रणाली से। सत्ता की आपराधिक चरित्र से। गीत की कविताएं इस यथार्थ के बरक्स ही नये यथार्थ की तलाश की कविताएं हैं।
बींसवी सदी के ढलते वर्षों ने ऐसे अंध बाजारीकरण, उपभोक्तावाद, विज्ञापनवाद और बाजार आधारित सौंदर्यवाद को जन्म दिया है जिसमें सौंदर्य के सारे प्रतिमान बदल गए हैं। सुघङ दिखना व्यक्ति की अपनी रुचि का मसला नहीं रह गया है बल्कि वह बाजार की जरुरत हो गया है। गीत ‘कॉस्मेटिक सर्जरी’ कविता में हमारे समय की इस विडम्बना को अभी – अभी जन्मे बच्चे के हवाले से तो उठाते ही हैं, प्राकृतिक सौंदर्य और जीवन के खिलाफ पूरी दुनिया में चल रही कृत्रिमता और बाजार की ठगी पर भी सवाल उठाते हैं –‘उसे दूध से नहला दूं ताकि वह गोरा हो जाए / क्या करूं उसके बालों का जो इतने घुंघराले हैं / उसकी नाक मेरे वक्त की प्रचलित नाकों – सी नहीं / गाल भी इतने फुगे – फुगे / क्या करूं इस चर्बी का, छील कर फेंक दूं’। 
अबाध गति से बहने वाला पूंजीवाद, साम्राज्यवाद, मल्टीनेशनल कंपनियों के हितों में काम करने वाली लोकतांत्रिक सत्ताओं के गठजोङ ने दुनिया में दुखों और पीङाओं का निजीकरण और विकेंद्रीकरण कर दिया है। जैसे – जैसे उदारीकरण, निजीकरण और बाजारीकरण हमारी दुनिया में बढ़ा है खुशहाली सिमटी है। आत्महत्याएं बढ़ी है। लोग कंगाली की तरफ बढ़े हैं। दुखों का मकबरा पहाङ की ऊंचाई ले रहा है। लोगों की दिलों पर ‘नश्तर’ चलने लगे हैं। गीत अपनी कविताओं में ‘नश्तर’ के इस प्रयोग से खौफजदा हैं। उनके दुख का एक कारण यह भी है कि ‘हमारे खण्डहरों की मेहराबों पर आ – आ बैठती है भूखमरी’। भले ही हम सब एक तरीके से पैदा हुए हों लेकिन ‘हम सब अद्वितीय तरीकों से मारें जाएंगे’ क्योंकि अद्वितीय तरीके से मारने के लिए व्यवस्थाएं कटिबद्व है। वह रोज शक्तिशाली के हितों का पोषण कर रही है।
सभ्यताओं के बेहद विकृत और क्रूर रुप गीत चतुर्वेदी की कविताओं में जहां – तहां फैले पङे हैं। इतिहास में दफन हो चुके युद्वों को अपनी स्मृतियों में अब भी कवि ने समेट रखा है। वह जानता है कि सुपुर्दे खाक हो चुके अतीत उसका कुछ नहीं बिगाङेंगे लेकिन उसकी भयावहता से बच्चों को अब भी सावधान करता है। इस बात की तसदीक करता है कि अब युद्वों के लिए मैदान की जरुरत नहीं रही। अब यह गली नुक्कङ और मुहल्लों में बदल गया है। साम्राज्यवादी क्रूरताओं का ही एक रुप ‘राख – इराक’ कविता में मौजूद है। यह कविता ताकत, झूठ, फरेब और इंसानी नृशंस्तता की एक ध्रुवीयता को बयान करती है।
गीत चतुर्वेदी की कविताएं अनुभव के एकहरेपन के खिलाफ एक प्रतिसंवाद रचती नजर आती है। वह अपनी संवेदना के बहुआयामी धरातलों के स्पर्श की मांग करती दिखाई पङती है। उनकी कविता में जहां समय की बर्बरता, मनमानी, धोखा, हिंसा और त्रासदी अभिव्यक्त हुई हैं वहीं कहीं कोने में दबी – छुपी विवशताएं और बेबसी भी हैं। उदासी और नैराश्य भी। कुछ आत्मस्वीकृतियां भी। ‘मैं भय विनाश भूख और त्रासदी से निकला हूं / सिर्फ एक अनुभव से नहीं समझा जा सकता जिन्हें / सेब की फांक पर उभरे लोहे से चाकु नहीं बनता’। यानी यथार्थ और प्रतियथार्थ के अंतर्गुम्फन में धंसे बगैर कविता अपने बहुलार्थ को खोलने से हिचकती है। इनकार करती है। क्योंकि यह कविता आंसूओं, दुखों और पीङाओं और उन्हीं के अवशेषों से रची हैं। गीत की कविता दुनिया के दुखों, तकलीफों के रंगों को समझने से पैदा हुई है।
सांप्रदायिक दंगों में मार दिए गए लोगों एवं गुमशुदा व्यक्तियों की तकलीफ अलग रंग की है तो शहर की सङकों पर अवारा घुम रहे पागलों की एक तरह की। उनकी जिनकी जमीन, जंगल, घर सब सत्ता के दलाल तथा कंपनियों ने छिन लिए और जिन्हें विस्थापित जीवन जीने के लिए बाध्य किया गया उनकी तकलीफें अलग रंग की हैं। ‘तुम कदम – कदम पर खीजते थे / चाहते थे कि तुम्हारे घर तक आए पानी / सूखा न रहे बाथरूम का नल / सिर्फ जन्मदिन पर खरीदनी पङे मोमबत्ती... अक्सर नहीं आता पानी / गुल रहती है बिजली’ – ये गांव से लेकर नगरीय जीवन के रोजमर्रा के दुख हैं जो बेहद सघन अनुभूतियों के साथ व्यक्त हुए हैं। सङक पर निर्वस्त्र घुम रही स्त्रियों को कवि ने व्यापकता दी है कि वह हमारे समाज के दुख के साथ एकाकार हो गया है। साथ ही एक धिक्कार और आक्रोश का मिश्रित भाव भी बहुत ही तीखे रुप में उभरा है – ‘ये हम कैसे दोगले हैं जो नहीं जुटा पाए इनके लिए तीन गज कपङा’।
गीत की अ – राजनीतिक लगने वाली कविताएं भी गहरे अर्थों में राजनीतिक है। वे मरने वाली हर लङकी चाहे जन्मी हो या अजन्मी को एक साजिश का हिस्सा मानते हैं। मुंबई के जीवन और वहां पसरे लुम्पेनिकता को भी खोल के रख दिया है। ठगी के कारोबार बेपर्दा किया है। विस्थापित जीवन की विडम्बनाओं को सामने रखा है। गीत चतुर्वेदी ने कस्बाई जीवन से लेकर नगरीय जीवन और उसमें समायी वैश्विक समस्याओं तक के अनुभव के विस्तार को अपनी कविता में संवेदात्मक जगह दी है। 
          
पुस्तक – आलाप में गिरह
लेखक – गीत चतुर्वेदी
प्रकाशक – राजकमल प्रकाशन, दिल्ली
मूल्य – 195 रुपए