रविवार, मार्च 13, 2011

दलित साहित्य का फैलता कैनवस

 

मराठी दलित साहित्य ने साहित्यिक सौंदर्यशास्त्र का नया प्रतिमान गढ़ा है। वह जितनी अपनी रचनात्मकता के कारण चर्चित हुई उतनी ही साहित्य की अभेद स्थापित अभिजात्य मूल्यों के प्रतिरोध के कारण। उसने साहित्य की तमाम परंपरागत मानदंडों, प्रतिमानों, मूल्यों और उन विचार सरणियों को तोङने का काम किया जो वृहत्तर मानवीय मूल्यों के नाम पर सरहानीय थे लेकिन अपनी सोच के सीमित दायरे में लिपटे थे। उनका दायरा सीमित है यह बात भी दलित साहित्य से मिलने वाली चुनौतियों और तीखे प्रश्नों से उभरकर सामने आए। लेकिन यह कार्रवाई भी एकतरफा नहीं रही। दलित साहित्य और उसकी रचनात्मकता की विस्फोटक विधा ‘आत्मकथा(ओं)’ पर भी तीखे प्रहार किए गए। एक बहुत ही जरुरी सवाल यह उठा कि दलित आत्मकथाएं अपने जीवन के इर्द – गिर्द ही घुमती रहती है। वह वृहत्तर मानवीय दायरे को अपने भीतर नहीं समेटती है। आत्मश्लाघा से ग्रस्त है। समाज को बदलने वाले तमाम बङी अवधारणाओं और विचारों को रिजेक्ट करती है। निश्चित रूप से यह जरुरी सवाल हैं और इन सवालों को मराठी दलित साहित्यकार, चिंतक, अर्थशास्त्री और शिक्षाविद भालचंद्र मुणगेकर अपनी आत्मकथा “मेरी हकीकत” में ध्वस्त करते हैं।
“मेरी हकीकत” में भालचंद्र मुणगेकर के जीवन के शुरुआती दिनों के संघर्ष को अभिव्यक्ति मिली है। यह आत्मकथा लेखक के सफरनामे को पूरी तरह व्यक्त नहीं करता है। लेकिन मुम्बई विश्वविद्यालय के कुलपति, भारत सरकार की योजना आयोग के सदस्य और इंडियन इंस्टीट्युट ऑफ एडवांस स्ट्डीज, शिमला के अध्यक्ष बनने के सफरनामे में जिन चीजों, घटनाओं, व्यक्तियों और परिस्थितियों की भूमिका रही है सबको व्यवस्थित एवं क्रमबद्ध तरीके से प्रस्तुत करती है।        
‘मेरी हकीकत’ में आत्मश्लाघा के अंश नहीं है। इसे ‘व्यक्ति पूजा’ की तरह भी नहीं पढ़ा जा सकता है। व्यक्तित्व का निर्माण एवं विकास का प्रक्षेपण इसमें जरुर है लेकिन वह उन तमाम हाशिए पर पङे लोगों और वंचित समाज के लिए आदर्श नजीर प्रस्तुत करती है जो भूख, अभाव और वर्णवादी दंश के भीतर जीवन जीते हैं। सुनील कुमार लवटे की मानें तो ‘यह आत्मकथा लेखक के होश संभालने तक के अठारह वर्ष की ऐसी विकासगाथा है जो ‘दलित’ सीमा को लांघकर मनुष्य़ की जिजीविषा का एक अदम्य स्त्रोत बनकर उभर आती है
यूं तो भालचंद्र के जीवन पर अन्य दलित लेखकों की तरह ही अम्बेडकर के जीवन और दर्शन का गहरा प्रभाव पङा है। लेकिन गौर करने वाली बात यह है कि वे जिन पांच तत्वों से अपने जीवन को संचालित मानते हैं या जिसके आसपास अपने को मससूस करते हैं वे उन्हें चिंतन के स्तर पर राममनोहर लोहिया के नजदीक खङा करती है। यह और बात है कि आत्मकथाकर ने लोहिया का नाम नहीं लिया है। भालचंद्र जाति और अस्पृश्यता निर्मूलन, स्त्री – पुरुष समानता, धर्मनिरपेक्षता, लोकतांत्रिक समाजवाद और मानवतावाद जैसे मूल्यों एवं तत्वों से अपने को संचालित महसूस करते हैं।
भालचंद्र इन मूल्यों के उल्लेख्य से कहीं न कहीं उन तर्कों का खंडन भी करते हैं जो यह कहता है कि दलित साहित्य अपनी परिधि और स्वयं के बनाये खोल से बाहर नहीं निकलता है। भालचंद्र का तर्क है कि ‘गुलामी मानवी समाज के विकास की अत्यंत मिलावटी और अनैतिक व्यवस्था है। मनुष्यों की खरीद बिक्री होना यानी उसका मनुष्यत्व को नकारना’ है। अस्पृश्यता गुलामी से भी बदतर बात है। भालचंद्र का कहना है कि जाति – व्यवस्था ने नैतिकता के सारे मानदंड को ध्वस्त कर दिया है। इसी की वजह से सत्ता, संपत्ति और प्रतिष्ठा के भीतर विषम विभाजन बना है। इसलिए इसका विरोध जरुरी है। इसके निर्मूलन के बगैर भारत एक सुसंस्कृत, अखंड और समर्थ राष्ट्र के रूप में खङा नहीं हो सकता।
भालचंद्र ज्योतिबा फूले की तरह ही स्त्री मुक्ति का सवाल उठाते हैं। उसके दुख – दर्द, अथक परिश्रम के प्रति करुणार्द्र हो उठते हैं। उन्हें पुरुषों की कष्ट की तुलना में स्त्रियों का कष्ट अधिक मूल्यवान लगता है। बहुभाषिक, बहुधार्मिक और बहुसांस्कृतिक समाज में उन्हें धर्मनिरपेक्षता की बहुत जरुरत महसूस होती है। वे धर्मनिरपेक्षता की नयी परिभाषा गढ़ते हुए कहते हैं कि विवेक, संयम, सहनशीलता और दूसरों के प्रति आदर का भाव ही धर्मनिरपेक्षता है।
प्रजातांत्रिक समाजवाद में विश्वास रखने वाले भालचंद्र मानते हैं कि भूख, बीमारी, निरक्षरता और बेरोजगारी से मुक्ति ही स्वतंत्रता है। यही आत्मसम्मान है। आर्थिक विषमता की खाई पाटे बगैर और हर व्यक्ति को आर्थिक सुरक्षा दिए बगैर राजकीय प्रजातंत्र को हासिल नहीं किया जा सकता है। यह हमारे सामने एक कठिन चुनौती है जिससे लङना ही होगा। मानवी समाज से प्रेम करना ही मानवतावाद है। लेकिन जाति, वर्ण, क्षेत्र, रंग, धर्म, अलग संस्कृति में विभाजित हमारा समाज भातृत्व प्रेम को सहेज नहीं रहा है। संसाधनों पर कब्जे की लङाई, राष्ट्र के प्रति अनुदारता युद्ध, दंगे आतंकवाद आदि इसे भंग करते रहते हैं। भालचंद्र एक राष्ट्रवादी विमर्शकार की तरह इससे लङने की चुनौती को सामने रखते हैं।
भालचंद्र अपने जीवन में उभरे इन मूल्यों को तीन बातों से निर्मित मानते हैं। पहला, पिता की व्यक्तिगत जीवन। दूसरा, गुरु और तीसरा मराठी साहित्य। भालचंद्र मानते हैं कि मेरे पहले गुरु मेरे पिता हैं। वहीं मेरे जीवन के शिल्पकार हैं। वे अपने उन सगे संबंधियों को भी याद करते हैं जिन्होंने इनके जीवन को बनाने में बहुत त्याग किया है। वे शरतचंद्र, अनंतराव चित्रे, बा.बा. ठाकुर और लीला आवटे आदि शिक्षकों के प्रति भी असीम श्रद्धा से भरे हैं जिन्होंने इनके जीवन को दिशा दी। गुरु की महत्ता को इन्होंने पूरी ताकत से स्थापित किया है। जो इन दिनों विरल होती जा रही है। अच्छा अर्थशास्त्री बनने की बात उन्होंने अपने गुरुओं से ही सिखी। वे मानसिक भावविश्व के निर्माण का श्रेय मराठी साहित्य को देते हैं।
दुख, दारिद्रय, अभाव, भूख, जातिय - वर्णवादी दंश के बीच ही बचपन में किसी व्यक्ति के मानसिक गठन का निर्माण कैसे होता है? वह किन – किन चुनौतियों और सवालों से टकराता है? उपेक्षित और कमतर मनुष्य होने का भाव कैसे उसके विशाल मानस को तोङती है? कुंठाओं की एक भयावह दुनिया कैसे अस्तित्व में आती है? ये बेहद बेचैन करने वाले प्रश्न हैं। भालचंद्र मुणगेकर का नैरेटर इन सवालों से न जूझता आया है बल्कि उसका समाजशास्त्रीय विश्लेषण भी आत्मकथा के माध्यम से सामने लाया है। कुल मिलाकर कहें तो यह आत्मकथा दलित साहित्य के कैनवास को फैला देता है।

                                                                  पुस्तक – मेरी हकीकत
                           लेखक – भालचंद्र मुणगेकर