शनिवार, जून 04, 2011

प्रेम की सैद्धांतिकी

वरिष्ठ कवि – कथाकार – आलोचक रमेशचंद्र शाह का सातवां उपन्यास “असबाब-ए-वीरानी” संभवत: हिन्दी में इस मायने में अनूठा और अकेला उपन्यास होगा कि यह प्रेम को सुनियोजित - प्रायोजित रूप में प्रस्तुत करता है। यह प्रायोजित प्रेम पति के कहने या उकसावे पर घटित होता है। और आश्चर्य ! उसकी युवा पत्नी रिटायर्मेंट की दहलीज पर खङे पति के वरिष्ठ सहयोगी - सहकर्मी – गुरु से प्रेम करती है। वह इस बात की पूरी जानकारी अपने पति को देती है कि वह उसके सहयोगी से प्रेम करती है। हैरान करने वाली बात यह है कि तात्कालिक रूप से उसके पति को आश्चर्य और खुशी का ठिकाना नहीं रहता है। बाद में नाटकीय रूप से चीजें बदल जाती हैं। संबंधों में तनाव उसी तरह पैठ बनाते हैं जैसे बारिश के थपेङे दीवारों के भीतरी हिस्सों में सीलन पैदा करते हैं।
इससे पहले की कथा की अंतर्वस्तु में प्रवेश किया जाए “असबाब-ए-वीरानी” की टेक्नीक पर गौर किया जाए। शाह जी ने एकदम से विशिष्ट शैली अख्तियार की है। यह उपन्यास तीन भिन्न लेखकों का उपक्रम है। द्विवेदी जी के उपन्यास ‘बाणभट्ट की आत्मकथा’ की शैली का रूप यहां देखा जा सकता है। बाणभट्ट... में लेखन के लिए मिस कैथरीन ‘रॉ मैटेरियल’(अधूरा दस्तावेज) उपलब्ध कराती है। ‘असबाब-ए-वीरानी’ में प्रेम का अधूरा दस्तावेज (जिसे ठीक – ठीक अधूरा कहना भी मुश्किल है) एक डायरी की शक्ल में एक चिट्टी के साथ अनामगिरि नामक व्यक्ति छोङ जाता है। दारूका वन के डाकबंगले में। उसे मालूम है कि एक लेखक यहां एकांत में लेखन के लिए आता है। अनामगिरि उस लेखक के लेखन से भली - भांति परिचित है जिसका हवाला भी चिट्टी में देता है। साथ ही उससे उम्मीद करता है कि मेरे इस अधूरे ‘आपबीती’ दस्तावेज को लिख दें क्योंकि लेखन में मेरे हाथ तंग हैं।
अनामगिरि लेखक को यह छूट देता है कि मेरी आपबीती को आप अपने ढंग से लिखें ‘परंतु...वह लेखक ही क्या, जिसे किसी और की आपबीती भी अपनी ही आपबीती सरीखी न लगे’। लेखक को यह लगता है कि इस कथात्मक डायरी से मिलती – जुलती कथा दिल्ली – उदयपुर यात्रा के दौरान ट्रेन में एक सहयात्री ने भी सुनायी थी। बहरहाल संक्षेप में कथा के तीन प्रतिनिधि नैरेटर हैं। अनामगिरि जिसका प्रतिनिधित्व लेखक करता है और इस लेखक का प्रतिनिधित्व रमेशचंद्र शाह करते हैं।
रमेशचंद्र शाह के लेखक के अनुसार अनामगिरि फॉरेस्ट विभाग का उच्च अधिकारी है। अपने काम के प्रति ईमानदार और सिनसियर। वह कभी लाभ – लोभ में न पङा। सत्ता – प्रतिष्ठान, रुतबे और ओहदे से हमेशा अप्रभावित रहा। जुनियर अधिकारियों की मदद करना, आगे बढ़ाना और प्रोत्साहित करने को अपने धर्म की तरह लिया। नीतीश जो बेहद प्रतिभाशाली – परिश्रमी कनिष्ठ अधिकारी है उसे तराशने और आगे बढ़ाने में हमेशा मदद की। वह इस बात पर गर्व करता है कि नीतीश उससे ज्यादा प्रतिभाशाली तथा मौलिक है और उसके काम को आगे बढ़ायेगा।
साहित्यिक मिजाज के अनामगिरि का संबंध नीतीश से बेहद नजदीकी है। दोनों में एक – दूसरे के प्रति सम्मान का भाव है। नीतीश की पत्नी अनु भी अंग्रेजी साहित्य की छात्रा रह चुकी है। इसलिए संबंध में प्रगाढ़ता बढ़ने लगती है। अनामगिरि उपन्यास पसंद पाठक हैं, अनु की रूचि कविता में है। दोनों में साहित्यिक टकराव होता रहता है। इनकी आपसी बहस में जब – तब नीतीश शामिल होता है लेकिन ये दोनों उसे इस बहस से बाहर ही रखते हैं। साहित्यिक बहसें दोनों में भीतरी बदलाव लाता है। अनामगिरि का रुझान कविता के प्रति और अनु का उपन्यास के प्रति होता है।
रमेशचंद्र शाह उपन्यास में जिसे साहित्यिक बदलाव के रूप में दिखलाते हैं यह प्रेम के उभर आने का एक सांकेतिक रूप है। जंगल में सैर करते – भटकते हुए दोनों साहित्यिक चर्चा में मशगूल होते हैं। एक दिन अचानक डाकबंगले में लौटकर दोनों के बीच की भौतिक सारी दूरियां टूट जाती है। शाह का लेखक लिखता है –“मैंने ही उसे खींच लिया अपनी बांहों में? कि वही खुद मुझसे आ चिपटी?...उसने पहले मेरी आंखों को चूमा कि मैंने पहले उसकी आंखों को? पहले मेरे होंठ उसके होंठों से जा लगे कि उसके?...कुछ भी तो भान नहीं मुझे। जाने कित्ती देर तक हम चूमते और चूसते रहे एक दूसरे को...मुझे तो ऐसा ही याद पङता है कि उसी ने वह सब किया था...मैं तो अपनी सुध – बुध ही गंवा बैठा था...”।
लेखक ने इसके बाद उपन्यास में बेहद नाटकीय ढंग से कथा बदल दी। इस शारीरिक प्रेम ने अनामगिरि को धिक्कारा। आत्मालोचन को बाध्य किया। लेकिन अनु ने सब सहज कर दिया। उसने पति को यह घटना बता दी। नीतीश इस बात के लिए अनामगिरि की सराहना करता है कि वह अनु के अंदर स्त्रीत्व को जगाया जो अब तक सुप्त थी। नीतीश ने कभी उसे महसूस नहीं किया था। दोनों के संबंधों ने उसे जगा दिया। वह कहता है ‘प्रेम किसी की मिल्कियत नहीं। हमें खुलकर अपनी भावनाओं को, अपनी इच्छाओं और आवेगों को जीना चाहिए। इसमें कैसा परदा और क्यों? मेरा ब्याह हुआ है इससे - क्या महज इसलिए मालिक बन गया मैं – इसकी भावनाओं का भी’?
बाबजूद इसके अनामगिरि इस घटना के बाद अपने परिवार और नौकरी में लौट आता है। लेकिन दोनों के बीच फोनालाप शुरू हो जाता है और प्रेम की उत्कंठा, बेबसी, भावप्रवणता, रिक्ति, एकालाप और संवादों का अंतहीन सिलसिला शुरू होता है। यहां रमेशचंद्र शाह ने अंतर्मन की ध्वनियों की व्याप्ति और सामाजिक संबंधों की सीमाओं को महीन धागे में पिरो दिया है।
इस क्रम में रमेशचंद्र शाह इस प्रेम की सभ्यता समीक्षा भी प्रस्तुत करते हैं। यह प्रेम पाप – पुण्य की श्रेणी से बाहर निकल आता है। सामाजिक – पारिवारिक नैतिकता – अनैतिकता की कैटेगरी से भी। सिर्फ चाहत की उज्ज्वल लकीरें फैली है। लेकिन यही प्रेम पुरुष की उस दोहरी मानसिकता को भी खोल देती है जो इन संबंधों में फैली है। अनामगिरि अपने प्रेम को अपनी पत्नी से छुपाता है। नीतीश जो हर वक्त अपनी पत्नी को पारिवारिक – सामाजिक दबाबों से प्रोटेक्ट करता था उसकी रुचियों का ख्याल रखता था, अनु - अनामगिरि के साथ को बढ़ावा देता था, साथ घुमने और अपनी भावनाओं को उसके साथ बांट लेने को कहता था अचानक बदल जाता है। वह दोनों के प्रेम को बर्दाश्त नहीं कर पाता है। उसकी सैद्धांतिक बातें खोखली साबित होने लगती है। वह उस प्रेम पर पहरा बिठा देता है। एक प्रेम जो उर्ध्वमुखी रास्ते पर दौङना चाहती थी अधोमुखी गिरती है।
क्या यह उपन्यास प्रेम की त्रासदी है या दाम्पत्य संबंधों की? या प्रेम और भ्रांति के बीच फैला वितान? या प्रेम पर लिखा आलोचनात्मक भाष्य? या स्त्री – पुरुष संबंधों के खुलापन पर एक टिप्पणी? या अंत:करण की पुनर्परीक्षा? या सेल्फ कंफेशन की त्रासदी? शाह का लेखक न सिर्फ इस पर सैद्धांतिक बहस को आगे बढ़ाता है बल्कि आध्यात्म और दर्शन की उस कठिन राह को पकङ लेता है जो पाठक को दुर्गम गलियों में ले जाता है और जीवन की गुत्थियां सुलझाने लगता है।      
पुस्तक - असबाब-ए-वीरानी
लेखक – रमेशचंद्र शाह
प्रकाशक – वाणी प्रकाशन, दिल्ली
मूल्य – 250 रुपये


स्त्री विमर्श के नए तेवर

बींसवी सदी के उत्तरार्द्ध में पश्चिमी अकादमिक जगत में स्त्री चिंतन की व्यवस्थित और बङी दुनिया खुलकर सामने आयी। इसका असर भारतीय उपमहाद्वीप पर भी पङा। स्त्रियों से संबंधित तमाम मसले चाहे वह लिंग संवेदना, स्त्री यौनिकता, देह विमर्श, स्त्री मन, लेस्बियनिज्म हो या उनकी कार्य – कुशलता / योग्यता की समानता, समान मजदूरी आदि - आदि पर गंभीर विचार – विमर्श हुए हैं। प्रमीला के.पी. ने अपनी आलोचनात्मक पुस्तक “स्त्री : यौनिकता बनाम आध्यात्मिकता” में स्त्रियों से संबंधित इन सैद्धांतिक मसलों पर बहस की ही है उसे व्यावहारिक एवं साहित्यिक रूप भी देने की कोशिश की है।
प्रमीला अपनी दृष्टि में कोई झोल झाल नहीं रखती। बहुत ही स्पष्टता से स्त्री – पुरुष समानता की सैद्धांतिक बहस जो पश्चिमी दुनिया से चलकर अन्य भूभाग तक फैली को खारिज कर देती हैं। ‘समानता’ की इस आदर्श स्थिति की जगह वह ‘लिंग संवेदना’ को महत्व देती हैं। स्त्री – पुरुष पूरकीय स्थिति की। उनका मानना है कि न सिर्फ जैविक रूप से स्त्री – पुरुष असमानता है बल्कि सांस्कृतिक – सामाजिक – राजनीतिक स्तर पर भी है। दोनों को कसने की कसौटी भी अलग – अलग हो सकती है। इसलिए पितृसत्तात्मक समाज में समान अवसर उपलब्ध कराना वक्त की जरूरत है।
मध्यकालीन समाज में फैली स्त्री – पुरुष असमानता और स्त्री प्रतिमान भी औपनिवेशिक काल और उसके उत्तरार्द्धमें परिवर्त्तित रूप में जिंदा रही। औपनिवेशिक भारत में स्त्रियों के प्रतिमान लगभग विक्टोरियन या ओरियंटल – प्राच्यवादी ही प्रतिष्ठित हुए। राष्ट्र्वादी दौर में भी स्त्री - प्रतिमान मर्दों ने अपने अनुकूलन के हिसाब से गढ़ी। ग्रामीण और शहरी स्त्रियों की अलग – अलग स्टीरियोटाइप छवि बनाई। उसी के अंदर बंधकर जीने को विवश किया। पढ़ी – लिखी और आर्थिक रूप से संपन्न स्त्रियां भी पितृसत्तात्मक जकङबंदी से मुक्त नहीं हो पायी। उत्तर – औपनिवेशिक दौर में जब स्त्री विमर्श पर बहसें शुरू हुई लिंगगत समानता की बहसें सामने आयी लेकिन उनके स्त्रीत्व को महत्व नहीं दिया गया। अत: आज समस्त क्षेत्रों में लिंग स्तर की पुनर्व्याख्या, स्त्रीत्व का सम्मान और लिंग संवेदना का प्रसार जरूरी है। प्रमिला स्थापित करती हैं कि स्त्रीपक्षीय मान्यताओं की स्वीकृति से ही स्त्री सशक्तीकरण संभव है। प्रमीला अर्ज करती हैं कि जैसे “स्त्रियां पैदा नहीं होती बनायी जाती है वैसे ही पुरुष भी बनाए जाते हैं”। वह ‘पुरुष विनिर्माण’ की सख्त आलोचना करती हैं। आज के समय की जरूरत ऐसी बनायी जाने सामाजिक व सत्तागत संरचना को तोङना है, ताकि लिंग संवेदना पैदा की जा सके।
प्रमीला स्त्री विमर्श की बहुस्तरीयता को स्वीकारती हैं। उसी रूप में स्वीकार करने पर बल देती हैं। स्त्रीत्व की परंपरागत परिभाषा के अनुसार ‘पतिव्रता’ का भी खंडन करती हैं और वर्किंग बोल्ड वूमेन मतलब ‘पुरुष की तरह समान व्यवहार’ करने वाली का भी। घरेलू महिलाओं की भूमिका को बेहद महत्वपूर्ण मानते हुए दुनिया के विकास में उसके योगदान की सराहना करती हैं। देहवादी विमर्श का खिलाफत न करते हुए मानसिक व संवेदनात्मक पहलू को जोङने की बात करती हैं। होमोसेक्सुअलिटी को प्रकृति विरूद्ध साबित करने एवं उन्हें पहचान विहीन “अन्य” कर देने की साजिश का भी विरोध करती हैं। समलिंगी, वेश्या, पुरुष वेश्या, हिजङा आदि के प्रति सत्ता व समाज की उपेक्षा और असंवेदनात्मक स्थितियों का खंडन करते हुए मांग करती हैं कि वे मानसिक व संवेदनात्मक सुरक्षा के हकदार हैं। लिखती हैं - ‘सामाजिक समवाय में इनका जीवन भी महत्वपूर्ण है’।
पहले प्रकाशित अन्य शोध ग्रंथ व पुस्तकें भी इस बात को रेखांकित करती रही है कि पितृसत्तात्मक समाज हमेशा से स्त्री सेक्सुअलिटी / यौनिकता से खतरा महसूस करती रही है इसलिए उसे हमेशा नियंत्रित करने का प्रयास करती रही है। स्त्री देह को शैतानी चीज साबित करने की कोशिश की जाती रही है। स्त्रियों की यौनिकता को ‘अश्लील’ / पाप बताया गया जबकि पुरुषों को उसके पुरुषार्थ से जोङ दिया गया। स्त्रियों के देह दमन को कुलशीलता से नत्थी किया गया जबकि पुरुषों को ऋषिसत्व से नवाजा गया। पुरुषस्वत्व संपूर्ण है जबकि स्त्रीस्वत्व पुरुष के बगैर अधूरी। स्त्रियों को अशुद्ध साबित किया गया जबकि पुरुषों को मोक्ष का अधिकारी। यह अशुद्धता स्त्रियों को आध्यात्मिक स्वतंत्रता से वंचित रखने की कोशिश थी। प्रमीला देह की अभिव्यक्ति और यौनिकता को मानव की मूलभूत जरूरत मानती हैं।  
प्रमीला स्त्री – पुरुष यौनिक संबंधों में सहज आनंद की अवस्था को आध्यात्मिक मानती हैं। यह तभी संभव है जबकि दोनों के बीच सहज समभाव संबंध बनते हैं। देह के साथ आत्मा का भी स्पन्दन शामिल होता है। दोनों की अनुभूतियां समान होती हैं। जब से देहकार्य या काम के अर्थ सिमटे हैं प्रेम के अर्थ पलट गए हैं। जहां यौनिकता आक्रमकता रुख अपनाती है, युग्मों के लिए खतरनाक होती है। वे आध्यात्मिकता की तरह ही यौनिकता को व्यक्ति की निजी रुची और स्वचयन मानती हैं।
दिनकर की ‘उर्वशी’ में देह – विमर्श के पुनर्पाठ को खोलती हुई स्थापना देती हैं कि उर्वशी परंपरा विरोधी है। वह देह को शक्ति मानने वाली है। यौनिकता की अपनी परिभाषा गढ़ने वाली है। पुंसत्व की विनिर्मिति को नकारने वाली है। वह स्त्री की भावशुद्धि, यौनशुद्धि, क्षमा, सहनशीलता आदि मान्यताओं को ध्वस्त करने वाली है। प्रशिक्षित व विनिर्मित यौनिकता की विरोधी है।
प्रमीला ‘लेस्बियन नेशन’ को स्वनियंत्रित राष्ट्र मानते हुए भारत जैसे राष्ट्र में इसकी अनुपयोगिता को दर्शाती हैं। हालांकि वे उसके प्रति पूर्ण सहानुभूति से विचार करती हैं और पाठकों से भी ऐसी उम्मीद जताती हैं। स्त्री समलिंगियों पर हिन्दी में कम लिखा गया है। प्रमिला इस कमी को पूरा करती हैं। वे यौन अधिकार को मानव अधिकार से जोङकर देखने की हिमायती हैं। वे हिन्दी सिनेमा में उभरे सौंदर्य और यौन विनिर्मिति की भी सख्ती से आलोचना करती हैं। स्त्रियों को पण्य बना देने और शारीरिक आनंद को उभार देने की कोशिश की चीरफाङ भी करती हैं। प्रमीला की यह पुस्तक स्त्री विमर्श पर सुचिंतित बहस को आगे बढ़ाने में मददगार होंगी, इसमें संदेह की गुंजाइश नहीं है।
पुस्तक – स्त्री : यौनिकता बनाम आध्यात्मिकता
लेखक – प्रमीला के.पी.
प्रकाशक – राजकमल प्रकाशन , दिल्ली
मूल्य – 200 रुपये