शनिवार, दिसंबर 17, 2011

प्रागैतिहासिक उपनिवेशीकरण की दास्तां के बहाने

           
आधुनिक सभ्यता के विकास की गाथा लिखना एक तरह से साभ्यतिक इतिहास की बर्बर कथाओं को दोहराना है। सर्वशक्तिमान सत्तामूलक सांस्कृतिक हमलों के भीतर पैठ कर उसे उकेरना है। उन अनुभवों में लौटना है जो रक्तरंजित हैं। बर्बर हिंसा और खून के छींटें से भरे हैं। लैटिन अमेरिकी लेखकों में शुमार जानेमाने लेखक और नोबेल पुरस्कार से सम्मानित मारियो वार्गास ल्योसा ने इस किस्म का साहस किया है। उनने एल आब्लादोर / (द स्टोरीटेलर) / (किस्सागो) नामक अपने उपन्यास में न सिर्फ सिविलाइजेशन से संबंधित बहसों को नये ढंग से जन्म दिया है बल्कि पेरू के मूल और प्राचीन रहवासी माचीग्वेंगा आदिवासियों के बहाने वैश्विक सभ्यता की समीक्षा कर दी है।
आर्यों और अनार्यों की बहसें हमारे प्राचीन इतिहास के केंद्र में काफी जगहें घेरती है। जैसे आर्यों ने यहां के मूल निवासियों को बर्बर तरीके से कुचल कर एक  एक नयी सभ्यता की नींव रखी और आदिवासियों को हाशिए पर ढकेल दिया वैसे ही पेरू में सबकुछ घटित हुआ। मूल निवासियों की भाषा, संस्कृति, जीवन शैली, गीत – संगीत, धार्मिक और आस्थामूलक मान्यताओं, पुरातन तौर – तरीकों, प्रकृति के साथ सहकार जीवन आदि को कूचल कर नयी सभ्यता विकसित की गई।
मारियो वार्गास ल्योसा इस उपन्यास के बहाने परंपरा और आधुनिकता के द्वंद्व, सभ्य और असभ्य की वर्चस्वकारी सत्तामूलक संस्कृति, विकास बनाम पिछङापन का ज्वलंत वैश्विक सवाल उठाते हैं। सामाजिक गैर – बराबरी का प्रश्न भी। उनके जेहन में यह सवाल जिंदा हो उठी कि संस्कृति क्या है? क्या सभ्य बनाने के लिए परंपरागत संस्कृति को नष्ट कर देना जरुरी है? बर्बर कौन है? उपवनिवेशिकरण ने हमारे अस्तित्व के वजूद को कैसे निगल लिया है? क्या पिछङापन का सवाल गुलाम बनाने की रणनीति है? क्या मनुष्य को अधिकार है कि वे अपनी जरुरतों को के लिए प्रकृति का मनमाने तरीके से दोहन करें? आदिम सभ्यताओं को नष्ट करने में मिशनरियों, भाषाविदों, नृविज्ञानियों, नृतत्त्वशास्त्रियों, बुद्धिजीवियों आदि की भूमिका भी उतनी ही महत्वपूर्ण रही है जितनी सौदागरों और पूंजीपतियों की?
लैटिन अमेरिका ही नहीं अफ्रीका और एशियाई समाजों में भी जंगलों और प्रकृति की गोद में बसने वाले आदिवासियों को शताब्दियों से उजाङा जा रहा है। आज इसकी गति तेज हो गयी है। आधुनिक विकास, पश्चिम आधारित उत्तेजक जीवन शैली और अबाध गति से बहता विनाशाकारी चक्रवर्ती पूंजीवाद ने उनके अस्तित्व को ही खतरे में डाल दिया है। आदिम, बर्बर, असभ्य, जंगली, पिछङा कह कर इनकी आलोचना की जा रही है। भारत में उन्हें लगभग माओवादी करार दिया गया है। बंगाल, उङीसा, झारखंड, छतीसगढ़, मध्यप्रदेश एवं दक्षिण के राज्यों में इनसे जंगल और जमीन का हक विकास और प्रगति के नाम पर छीना जा रहा है। तथाकथित मुख्यधारा में जोङने के छलावे के नाम पर उन्हें अपनी संस्कृति और भाषा से अलग कर देने की साजिश रची जा रही है। शिक्षा और विकास के नाम पर उन्हें अपने जैसा बनने के लिए बाध्य किया जा रहा है। दुनिया के बङे – बङे कारपोरेट घराने, बहुराष्ट्रीय कंपनियों और सत्ता की दलाली करने वाले अंतर्राष्ट्रीय नेताओं और सौदागरों की मिलीभगत और लूटखसोट की वजह से विकास के बहाने जंगल और भूमि अधिग्रहण को अंजाम दिया जा रहा है। यह सब बेशकीमती उपजाऊ जमीनों को हङपने, इमारती लकङियों और प्राकृतिक खनिज पदार्थों को लूटने का उपक्रम है। आज भारत में टाटा के सिंगुर से लेकर पास्को, वेदांत आदि के विवाद को इस संदर्भ में देखा जा सकता है।
पिछले तीन दशकों में जब से आर्थिक उदारीकरण और मुक्त व्यापार का दौर शुरू हुआ, अफ्रीका और लैटिन अमेरिकी समाजों को तो लगभग नींबू की तरह निचोङ दिया गया। 80 का दशक तो अफ्रीका के इतिहास में बर्बादी के दशक के रूप में याद किया जाएगा। इसकी छवि तो ‘भूख से मरते लोगों के महाद्वीप’ के रूप में बन गयी है। व्यापारियों और कंपनियों को प्रोटेक्ट करनेवाली सरकारें (जो इस मुनाफाखोरी के हिस्सेदार है) यह सब इस दलील देकर कर रही है कि भूख और कुपोषण से मरने वाले बच्चों की संख्या सबसे ज्यादा आदिवासी और  पिछङे समाजों में है। शिक्षा न्यून स्तर पर है। स्वास्थ्य और प्रति व्यक्ति आय की स्थिति दयनीय है। लैटिन अमेरिकी समाजों में बेरोजगारी के आंकङे निर्रथक हो चुके हैं। उसे तो लगभग ‘चौथी दुनिया’ में तब्दील कर दिया गया है। यह सब एक साजिश के तहत उनके द्वारा हुआ, जो आरामदेह लक्जरी कारों और जहाजों में सैर करते हैं, टेनिस और रग्बी खेलते हैं, इंटरनेट इस्तेमाल करते हैं, मंहगी शराब और कोक पीते, हैमबर्गर और पिज्जा खाते हुए थ्री डी स्क्रीन पर कुपोषित बच्चे और जवान आदिवासी स्त्रियों के खुले वक्षस्थल देख खिलखिलाते हैं। पेरूवासियों की नजर में आदिवासी सामाजिक विद्रूप थे।
मारियो वार्गास ल्योसा ने लैटिन अमेरिकी देश पेरु के एक आदिवासी समूह माचीग्वेंगा को प्रातिनिधिकता देकर जो सवाल उठाये हैं वे बेहद महत्वपूर्ण हैं। ऐसा नहीं है कि आदिवासी समाज के भीतर मौजूद अंधविश्वास, टोने टोटके आदि को न्यायसंगत ही ठहराते हैं, दोषपूर्ण और विकलांग बच्चों को मार देने को जायज। लेकिन वे इस बात के पक्ष में नहीं हैं कि विकास और औद्योगिकरण के नाम पर उन्हें विस्थापित कर दिया जाए, उससे उसकी भाषा और संस्कृति छीन ली जाए। प्रकृति, पहाङ, जंगल और जमीन से उन्हें खदेङ दिया जाए। लेकिन ये सब पूरी दुनिया में हो रहा है। ल्योसा का यह उपन्यास बर्बाद हो चुके इन आदिवासी समाजों या कहें मिटने की दहलीज पर खङे लोगों के आर्त्तनाद को आवाज देने की कोशिश है। हाशिए पर खङे लोगों को सहानुभूति प्रदान करने की एक कोशिश है।
ल्योसा ने पूरा उपन्यास माचीग्वेंगा आदिवासियों के किस्सागो या कथावाचक (आब्लादोर) के माध्यम से कही है, जो लेखक की कल्पनाशीलता का जबरदस्त नमूना है। यह और बात है कि उपन्यास में शोध और अनुसंधान की महत्वपूर्ण भूमिका है। मिथक और प्रागैतिहासिकता आपस में घुले मिले हैं लेकिन 1950 के बाद के पेरू का यथार्थ ज्यादा भयावह रूप में उभरे हुए हैं। समसामयिक पूंजीवाद का विकृत चेहरा ही माचीग्वेंगा या कहें आदिवासियों की त्रासदी को ज्यादा गाढ़ा रंग देते हैं। यह उपन्यास कई स्तरों पर चलता है। लेखक खुद भी बतौर पात्र मौजूद है। वह अपने मित्र साउल सूयतास आब्लादोर से यूनिवर्सिटी में माचीग्वेंगा के अदभुत किस्से – कहानियां सुनाता है। ये कहानियां कई बार मार्केस की जादुई यथार्थ की याद दिला देते हैं। चांद - सूरज, जीवन - मरण, आस्था- विश्वास, रीति – रिवाज, प्रकृति – उत्पत्ति आदि की रहस्यात्मक – रोमांचकारी, अप्राकृतिक, अवास्तविक और अविश्वसनीय कथाओं की लयबद्ध शृंखलाएं भरी पङी है। कई बार ये कथाएं सहज और सरल लगती हैं हैं तो कई बार हॉरर क्रिएट करती चलती हैं।
पर्यावरण के साथ छेङछाङ का मुद्दा भी ल्योसा ने बहुत ही गंभीरता से उठाया है और वे कहीं भी फील नहीं होने देते की समसामयिक समस्याओं की तरफ सचेत कर रहे हैं। सबकुछ मिथकीय अंदाज में घटित होता है लेकिन प्रकृति की प्रतिक्रिया की भयावता और उसका कहर इशारे में सब कह जाता है। आदिम समाज के लोगों ने प्रकृति को उपनिवेश नहीं बनाया था। वे प्रकृति का दोहन नहीं करते थे। उसकी अनिवार्यता को समझते थे। उनमें सहजीवन का भाव था। जो लोग ऐसा करते थे उन्हें सजा दी जाती थी या जब कभी प्रकृति अपना रौद्र रूप धारण करती थी तो वे उससे सीख लेते थे और जीवन फिर संतुलन की राह पर दौङता था। लेकिन आज प्रकृति और पर्यावरण की बगैर परवाह किए उसका दोहन किया जा रहा है। उसे उपनिवेश बना लिया गया है जिससे उत्पन्न होने वाले खतरे और परिणाम बीच – बीच में कथावाचक और लेखक के संवाद में झांकता है।  
मारिया वार्गास ल्योसा का यह उपन्यास आदिवासी समाज के बहाने हाशिए के लोगों के साथ किए जाने वाले सामाजिक गैर बराबरी, शोषण, उत्पीङन के साथ – साथ भूमि अधिग्रहण, पर्यावरण के संकट को उठा वर्त्तमान दौर में अपनी प्रासंगिकता एवं महत्व को सिद्ध करता है। खासकर वर्त्तमान हिन्दुस्तान में।        
पुस्तक – किस्सागो
लेखक – मारियो वार्गास ल्योसा
अनुवाद – शंपा शाह
प्रकाशक – राजकमल प्रकाशन, दिल्ली
मूल्य – 195 रुपये

  



जातिवाद के उलझे सवाल

      कुलदीप कुमार का लेख “जात ही पूछो साधु की” (जनसता, 6 नवम्बर, 2011) कई चुनौतिपूर्ण सवालों, निष्कर्षों के अलावा बेहद भ्रामक और अतार्किक हैं। उन्होंने कई सवाल उठाये हैं जिनमें से कुछ सवाल यहां रखे जा रहे हैं। पहला, क्या नाम के साथ जातिसूचक पद इस्तेमाल से कोई जातिवादी हो जाता है? दूसरा, प्रेमचंद के लेखन या कहें लेखक की जाति और उसकी रचना के बीच कोई संबंध नहीं है। तीसरा, आजादी के बाद दलित – पिछङे नेताओं ने जाति की समस्या को सुलझाया नहीं। चौथा, जाति (वाद) के प्रश्न को सामाजिक न्याय से न जोङा जाए। पांचवा, दलित समस्या और स्वअर्जित संवेदना को वही समझते हैं इसलिए दलित नेता और बुद्धिजीवियों की जिम्मेदारी है कि वही इसे सुलझाएं या आक्रोश को दिशा दें।
कुलदीप कुमार द्वारा उठाये गये तमाम सवालों का यहां जबाब देना मुश्किल है लेकिन जिन अनिवार्य प्रश्नों को उन्होंने उलझा छोङा है उस पर विचार करना जरूरी है, क्योंकि आये दिन दलित – आदिवासी और पिछङी जातियां न सिर्फ उस अपमान को जीते और बर्दाशत करते हैं - जो लोकतांत्रिक और सामाजिक पद्धितियों - संस्थाओं में घटित होते हैं बल्कि उन अवसरों से भी वंचित हो जाते हैं जिन्हें वे श्रम और मेधा से हासिल कर सकते थे। दूसरे, वे आरक्षण के सवाल पर बिल्कुल खामोश हैं, जिसे सामाजिक न्याय के रूप में सामने रखा गया है। और पिछले कुछ वर्षों में हमारी सामाजिक – राजनीतिक और न्यायायिक व्यवस्था इससे टकराती रही है। कुलदीप कुमार के लिए सामाजिक न्याय का अर्थ सिर्फ ‘जाति तोङो’ से है, और जाति के आधार पर सामाजिक - राजनीतिक - आर्थिक फैसले न लेने से है। निश्चय ही यह आदर्शवादी – नैतिक सुझाव है। लेकिन उनके इस ‘आदर्शवादी – नैतिक’ सुझाव की धज्जियां उनके ही उदाहरण उङाते हैं। मद्रास हाईकोर्ट के न्यायाधीश सीएस करणन ने एस सी / एस टी आयोग को शिकायत की है कि दलित होने के कारण उनके और उन जैसे अन्य न्यायाधीश के साथ सवर्ण न्यायाधीश अपमानजनक व्यवहार करते हैं। अब कुलदीप कुमार से पूछा जा सकता है कि क्या इसका समाधान सिर्फ कानूनी होगा या सामाजिक – राजनीतिक भी? यूं तो संवैधानिक – कानूनी संस्थाओं का निर्माण भी सामाजिक - राजनीतिक फैसलों के आधार पर हुए हैं। कानूनविदों की कमी देश में तब भी कम नहीं थी लेकिन आम्बेडकर को संविधान निर्माण का जिम्मा इसलिए दिया गया था क्योंकि वे दलितों – वंचितों के साथ ज्यादा न्याय कर सकते थे, उनकी तुलना में जिसने जातिगत अपमान को न सहा हो।
फर्ज करें अपमान करने वाले उच्च जाति से संबंधित वे न्यायाधीश सर्वोच्चय न्यायालय में नियुक्ति के लिए साक्षात्कार लें रहे हों। क्या उस स्थिति में सीएस करणन या उन जैसे दलित जाति से आने वाले न्यायाधीश का चुनाव होगा? क्या साक्षात्कार निष्पक्ष तरीके से लिया जायेगा? क्या दलित जाति से आने वाले प्रत्याशियों को साक्षात्कार में अपमान किया जायेगा या नहीं? योग्यता के पैमाने जातियां बनेंगी या नहीं? ऐसी अन्यायपूर्ण सामाजिक व्यवस्था में आरक्षण को सामाजिक न्याय क्यों नहीं माना जाए। क्या जाति व्यवस्था को तोङना इतना आसान है? जैसा कि कुलदीप कुमार परिभाषित कर रहे हैं अगर यह नहीं टूटा तो हमारे समाज और देश में सामाजिक न्याय आयेगा ही नहीं? हजारों वर्षों में यह नहीं टूटा, इसका यह मतलब तो नहीं कि लोकतांत्रिक व्यवस्था ने दलितों – पिछ्ङों को सामाजिक न्याय के नाम पर कुछ दिया ही नहीं? या जो कुछ उन्हें मिला या सुविधाएं दी गई उसे जातिवादी कहना कहां तक उचित है? आरक्षण सामाजिक न्याय नहीं है तो भला क्या है?
दूसरी बात, जातिवादी मानसिकता से ग्रस्त वे न्यायाधीश जो अपने सहयोगियों को अपमानित करते हैं - न्यायायिक फैसले में जातिवादी पूर्वाग्रह से काम नहीं चलाते होंगे इसकी क्या गारंटी है? आखिर इसकी जांच पङताल कैसे संभव होगी? क्या उन न्यायाधीशों के संदर्भ में कहा जा सकता है – ‘जाति न पूछो साधु की’? क्या यह मसला सिर्फ एस.सी. / एस.टी आयोग का है या भारतीय सामाजिक व्यवस्था के भीतर निरंतरता में जीवित जातिवादी अत्याचार और दुर्दांत दमनकारी हॉररकी की? क्या यह ट्रीटमेंट न्यायाधीश करणन या उन जैसों के आत्मसम्मान और स्वाभिमान को ठेस पहुंचाना नहीं है? मानवीय गरिमा और मनुष्यता के अपहरण का नहीं है? उनके समूचे सामाजिक – सांस्कृतिक – शैक्षणिक अस्तित्व को नकारना नहीं है? क्या इसे सामाजिक - राजनीतिक – कानूनी दबाब के बगैर ठीक किया जा सकता है? ऐसा नहीं है कि यह एकमात्र उदाहरण है, बल्कि पूरी भारतीय लोकतांत्रिक व्यवस्था एवं सामाजिक संरचना में पसरी पङी है। इतनी गंभीर और जटिल समस्यामूलक स्थिति में कुलदीप कुमार का यह सुझाव कि दलित नेताओं को अपने आक्रोश सही दिशा में लगाना हास्यास्पद और अतार्किक नहीं तो क्या हैं? हमें यह ध्यान रखना चाहिए कि अधिनायकवादी - वर्चस्वकारी शक्ति – समुच्चयों के द्वारा लिए लिये गये सामाजिक – आर्थिक – राजनीतिक वर्णगत / जातिगत फैसले जातिवादी और अन्यायकारी हो सकते हैं लेकिन दबे – कुचले, अपमानित और हाशिये पर फेंक दिये गये लोगों के लिए जाति के आधार पर लिये गये फैसले न्यायसंगत, मंगलकारी, अवसरौचित्यता को ठहराने वाले हो सकते हैं।
जातिसूचक संज्ञाओं के हटाने से जातिवाद समाप्त नहीं होगा। यह तर्क बहुत पुराना और बासी हो चुका है। इन तर्कों के सहारे वे कोई नई बात भी नहीं कह रहे। प्रेमचंद से लेकर लोहिया तक ने इस बारे में सुझाव दिया था। यहां तक कि लोहिया – जेपी से प्रभावित दर्जनों लेखकों – चिंतकों - पत्रकारों – समाजसेवियों ने अपने नाम के साथ जातिसूचक संज्ञाओं को हटाया। लेकिन इससे न तो जातिवाद मिटा, न ही उस आंदोलन का कोई व्यापक असर समाज पर पङा। आजादी पूर्व (और बाद में भी) यह प्रयोग दूसरे रूप में अपनाया गया। दलित और पिछङी जाति के लोगों ने सवर्ण जाति के साथ लगने वाले जातिसूचक संज्ञाओं को अपने नाम के साथ जोङ लिया। ताकि वे रोजमर्रा के जातिगत अपमान से बच सकें। लेकिन क्या इससे उनके जीवन और समाज पर फर्क क्या पङा? कंफूजन क्रिएट करना जातिवाद को तोङना नहीं है। न ही यह प्रगतिशीलता की निशानी है। उससे उस स्वाभिमान को भी हासिल नहीं किया जा सकता जो उच्च वर्ग को सुलभ है। मस्तराम कपूर ने भी इस आलेख के प्रतिउत्तर में (8 नवम्बर, 2011 जनसत्ता) चौपाल में लिखा है – ‘नाम के साथ जातिवाचक शब्द न जोङना महत्वहीन है। बल्कि सवर्णों के नाम के साथ जातिवाचक शब्द न जोङना पाखंड ही बन जाता है, क्योंकि यह समाज में सवर्णों के वर्चस्व के सच पर परदा डालने की कोशिश होता है’।
जातिप्रथा के विनाश पर पहले ही बहुत लिखा जा चुका है। कुलदीप कुमार का यह कहना कि जाति के आधार पर किसी को श्रेष्ठतर और हीनतर न मानना जातिवाद तोङना है। बहुत ही उचित है। लेकिन क्या यह एक सिद्धांत कथन से ज्यादा है? जब कभी भी हम जातिवाद पर बहस करते हैं ऐसी बातों को दोहराते हैं, लेकिन व्यवहारिक स्तर पर यह छोटा साबित हो जाता है। गांधी, आम्बेडकर, लोहिया आदि ने कई रास्ते सुझाए हैं जिनमें अंतर्जातीय भोज, अंतर्जातीय विवाह, जमीन का उचित बंटवारा, समाज का वर्गीय आधार तय करना, जातिवार जनगणना आदि हैं। गांधी का कहना था कि उच्च जाति के लोगों को दलित बस्तियों में जाकर जीवनयापन करना चाहिए ताकि उनके दुख, दर्द, पीङा, अपमान और अभाव को अनुभूत कर सकें और सच्चे मन से उसे सुलझा सकें। यही रास्ता उन्हें संवेदनशील और करुणा संपन्न बनाता और यही जातिविनाशक रास्ता बनता। यूं तो ‘आदर्शवादी कायांतरण’ के इस सिद्धांत पर आम्बेडकर को भी संदेह था लेकिन आजादी के बाद तत्कालीन सरकार और उसकी नीतियों ने इसे आदर्शवादी सिद्धांत कथन साबित कर दिया। आंकङे और सामाजिक अनुभव बताते हैं कि जितने भी सामूहिक अंतर्जातीय भोज संपन्न कराये गए वे उच्च जातियों की तरफ से आयोजित थे और दलित उसमें शामिल थे। आदर्श स्थिति तब मानी जाती जब दलितों के द्वारा आयोजित भोज में उच्च जाति के लोग शामिल होते। या मलिन बस्ती में उनके साथ रात गुजारते। लेकिन यह व्यवहारिक स्तर पर घटित नहीं हुआ। और तो और आये दिन दिखाई – सुनाई पङता है कि स्कूलों में दलितों के द्वारा खाना बनाने पर उसे उत्पीङित किया गया या सामूहिक बहिष्कार। ऐसी तमाम तरह की सामाजिक समस्या को सुलझाने की जबाबदेही सिर्फ दलित नेताओं और बुद्धिजीवियों की ही नहीं बल्कि समाज के सभी तबकों का है। चाहे वह किसी वर्ग या जाति से आता हो।
रेणु ने मैला आंचल में बहुत ही यथार्थ कथन किया है – “जात - पात नहीं मानने वालों की भी जाति होती है”। जातिसूचक संज्ञा पांडे, चतुर्वेदी, सिंह, शर्मा, अग्रवाल, गुप्ता, यादव, पटेल आदि लगायें या हटायें यह उतना महत्वपूर्ण नहीं है जितना व्यवहारिक स्तर पर जातिवादी मानसिकता, दुर्भावना आदि से काम न करना और लोहिया की तर्ज पर कहें तो दलितों के साथ ‘रोटी – बेटी’ का संबंध जोङना। कुछ अपवादों को छोङ व्यापक समाजिक दायरे में ऐसा घटित होता नहीं है। बुद्धिजीवियों के भीतर व्याप्त इस छदम को रघुवीर सहाय ने पकङ लिया था - “...बनिया बनिया रहे / बाम्हन बाम्हन और कायथ कायथ रहे / पर जब कविता लिखे तो आधुनिक / हो जाए...”। हमें और हमारे समाज को इन्हीं दुचित्तापन से बचने और बचाने की जरुरत है। अन्यथा हम जातिवाद के सवाल से लङ नहीं सकेंगें। 

भारतीयता को समृद्ध करते शोध

                
भारतीय समाज कई विदेशी हमलों से लहूलुहान हुआ। राजनीतिक और सैनिक हमलों के अलावा इसने सांस्कृतिक हमले को भी सहा। प्रतिरोध और सांस्कृतिक समन्वय का क्रम भी हमेशा चलता रहा है। उसमें मुस्लिम आक्रांताओं के हमले भी शामिल रहे हैं। लेकिन हजार वर्ष बाद अब भी भारत में मुसलमानों के आगमन और स्थायित्व को लेकर जब – तब कुछ राजनीतिक पार्टियां या ग्रूप की दृष्टि संदेहास्पद बनी रही है। क्षेत्र विशेष में तनाव, सांप्रदायिक दंगे, धार्मिक अलगाव और सामाजिक जीवन में उनसे दूरी के इतिहास भी इस बात की पुष्टि करते हैं। ऐसे राजनीतिक वक्तव्य भी सार्वजनिक जीवन में जब – तब सुनाई पङते रहते हैं कि ये विदेशी हमलावर हैं। राष्ट्रदोही हैं। हजार वर्ष पूर्व की इन घटनाओं और सच्चाईयों को इतिहास अनदेखा नहीं करता है, लेकिन समस्या तब उत्पन्न होती है जब उनकी राष्ट्रीयता, मातृभक्ति और सामाजिक – धार्मिक जीवनशैली को संदेह की दृष्टि से देखा जाता है। उनकी ‘भारतीयता’ पर प्रश्नचिह्न लगाये जाते हैं। भिन्नता प्रदर्शित करते हुए उन्हें दूसरे दर्जे का नागरिक साबित करने की छलपूर्ण रणनीतिक प्रयास किये जाते हैं। उनके अवदानों को विस्मृत करने और धूंधलके में ढकेलने के लिए ढ़ोंगपूर्ण नटशैली अपनायी जाती है तथा भारतीयता को ऐसे परिभाषित किया जाता है जैसे उसकी एकरेखिय अविच्छिन्न परंपरा रही हो। उसमें कभी टूट पैदा नहीं हुई। टूट की जबाबदेही तो मुसलमानों के मथ्थे मढ़ा जाता है लेकिन उनके अवदानों, सांस्कृतिक बहुलता, बहुवचनता को हाशिए पर ढकेल दिया जाता है।
ऐसे में इन बिन्दुओं पर विचार – पुनर्विचार की जरुरत पङती रहती है। जाफ़र रज़ा की शोधात्मक पुस्तक “भारतीय साहित्य में मुसलमानों का अवदान” एक किस्म से सांस्कृतिक पहलुओं पर पुनर्विचार ही हैं। यहां इतिहासकार ताराचंद को याद करना बेहद जरुरी लगता है जिनका ‘इंफ्लूएंस ऑफ इस्लाम ऑन इंडियन कल्चर’ इतिहास ग्रंथ अब भी मील का पत्थर माना जाता है। हालांकि इस दिशा में और भी गंभीर और उल्लेखनीय काम हुए हैं। लेकिन इससे रज़ा की इस पुस्तक का मह्त्व कम नहीं हो जाता। इन्होंने यह काम अपने हाथ में तब लिया जब बाबरी ध्वंस के बाद अवाम सांप्रदायिक दंगों की चपेट में झुलस रहा था।
यह पुस्तक भारतीयता – राष्ट्रीयता की संकीर्ण सोच के खिलाफ एक सांस्कृतिक प्रतिरोध की तरह है। छह अध्यायों में विभक्त शोध ग्रंथ हिन्दुस्तान की तमाम क्लासिकल और प्रांतीय भाषाओं में मुसलमानों के उल्लेखनीय अवदानों की चर्चा करता है। भाषा और लिपि की समस्याओं एवं ऐतिहासिक चरणों व विवादों से भी रु-ब-रु होने की कोशिश करता है। लेकिन विषय की जटिलता और व्यापकता ही पुस्तक की कमजोरी बनती है। अंतत: पुस्तक सूचनाओं और नामोल्लेख का मलबा साबित होता है। विवेचन, विश्लेषण एवं ठोस आलोचनात्मक स्थितियों का सामना लेखक नहीं करता है, लेकिन बिल्कुल अभाव भी नहीं कहा जा सकता है।
जाफ़र रज़ा संकेत करते हैं कि भारतीय मुसलमान इस्लामी कानून और शरीअत के मुताबिक ही जीवन नहीं जीता है। वह मुस्लिम शासकों और आक्रांताओं का अनुयायी नहीं है। इस्लामी साम्राज्यवाद के आधार पर न तो इसे समझा जा सकता है न परिभाषित किया जा सकता है। आम भारतीय मुसलमानों के व्यक्तित्व और व्यवहार को उसके साथ जोङकर देखना असंगत है। उन्हें लगता है कि जब कभी भी उनकी उपलब्धियों की चर्चा की जाती है सूफ़ियों और शियों को अलगा दिया जाता है। सब सुन्नियों के खाते में डाल दिया जाता है। बेहतर होता कि इनके साथ वहाबियों, देवबंदियों, बरौलियों, मुक़ल्लिदों आदि समूहों की चर्चा भी की जाती। उसके भीतर – बाहर आये परिवर्त्तनों से बनने वाले मानस का उल्लेख किया जाना जरुरी है। वे मानते हैं कि भारतीय जनमानस का शिक्षा, वातावरण, संस्कार सब एक है। अशोक से लेकर अकबर तक के साम्राज्य टूटते – बनते रहे हैं इसलिए भारतीयता की कोई एक निश्चित परिभाषा नहीं गढ़ी जा सकती। “विभिन्न धार्मिक विश्वास, विभिन्न सांस्कृतिक कार्य – कलाप को मिलाकर जो वस्तु बनी है, उसको भारतीयता माननी चाहिए”।
हिन्दी – उर्दू भाषा के उदगम एवं विकास की चर्चा करते हुए कहते हैं कि भारत में मुसलमान मात्र शासक के रूप में नहीं थे। वह भारतीय जीवन में इस प्रकार रच बस गये थे कि भारतीय जीवन – पद्धति, परंपरा एवं विश्वास, रस्म रिवाज सभी में भागीदार थे। इसलिए जब आक्रमणों एवं युद्धों की धूल छंटी, तो ह्रदय में स्नेह – स्त्रोत बह निकला, जिसका प्रभाव ललित कलाओं के विभिन्न क्षेत्रों में स्पष्ट दिखाई देता था। दिलबर बेसुवा भारतीय चौसर खेलती है। ‘मजहबे इश्क’ में ब्राह्मण तथा सिंह की कथा पंचतंत्र से उद्धृत है। ‘गुलबकावली’ में शिखंडी का जिक्र है। वे अरबी- फारसी शब्दों से निर्मित होने वाले हिन्दी व्याकरण की चर्चा ही नहीं करते बल्कि उदाहरणों से दिखाते हैं कि हिन्दू – मुस्लिम भाषा और संस्कृति मिलकर एक नया व्याकरण ही खङा कर देते हैं। शब्द संपदा को समृद्ध कर देते हैं। ध्वनियों में परिवर्त्तन उपस्थित कर देते हैं। शब्दों और विन्यासों की एक रोचक दुनिया रच देते हैं। क्या यह सांस्कृतिक समन्वय और आपसी मेलजोल के बगैर संभव था? भाषिक आधार पर तो बिल्कुल ही भेदभाव नहीं था। यह और बात है कि शुद्धता के आग्रही तो हर दौर में रहे हैं। हालांकि हिन्दी में सर्वाधिक शब्द अरबी – फारसी के हैं।
रज़ा हिन्दी, उर्दू, कश्मीरी, बलती, शीना, ब्रोशस्की, खोवार, डोगरी, नेपाली, तमिल, तेलुगू, कन्नङ, मलयालम, बंगला, उङिया, असमिया, मणिपुरी, पंजाबी, सिन्धी, हिन्दको, बलूची, सरायकी, पश्तो, कोंकणी, मराठी, गुजराती के अलावा क्लासिकी भाषाएं संस्कृत, अरबी, फारसी में मुसलमान कवियों, लेखकों आदि की महत्वपूर्ण और उल्लेखनीय रचनाओं का जिक्र करते हैं। हिन्दी कवियों - संतों में हमीउद्दीन नगौरी, अब्दूल रहमान, अमीर खुसरो, कबीर, जायसी से लेकर आज के लेखक असगर वजाहत, अब्दुल बिस्मिल्लाह, मंजूर एहतेशाम, नासिरा शर्मा आदि का भी जिक्र करते हैं। बंगला में नजरुल को पुनर्जागरण के प्रणेता पुरुष के तौर पर याद करते हैं। उर्दू साहित्य का पूरा भंडार ही मुस्लिम कवियों से भरा है।
भारतीय भाषाओं में मुसलमान कवियों – लेखकों के अपार योगदान ने देश की न सिर्फ भौगोलिक सीमाओं को मिटा दिया है बल्कि सांस्कृतिक विविधता, एकता और बहुरंगिनियों की छटाओं से समृद्ध किया है। रज़ा की पुस्तक इन विशेषताओं के उदघाटन के अलावा आगामी शोध के लिए संदर्भ ग्रंथ के रूप में भी स्थान पाएगी।       
पुस्तक – भारतीय साहित्य में मुसलमानों का अवदान
लेखक – जाफ़र रज़ा
प्रकाशक – लोकभारती प्रकाशन, इलाहाबाद
मूल्य – 375 रुपये