शनिवार, जनवरी 28, 2012

प्रतिमान पुरुष की सीमाएं

      आचार्य रामचंद्र शुक्ल हिन्दी के संस्था पुरुष हैं। वे हिन्दी के सबसे शक्तिशाली नैरेटर हैं। इतिहास, आलोचना, निबंध, लेख आदि हर जगह इसकी बानगी देखी जा सकती है। उनके विचारों की तार्किकता का समुच्चय इतनी शक्ति और आवेग के साथ प्रवाहित होती है कि पाठकों को अपने साथ बहा ले जाती है। उनके उदाहरण अकाट्य तर्क के साथ अपनी जगह बनाते चलते हैं। जो भाव, विचार, भाषा, लेखन, रचनाकार, धर्म आदि चीजें उन्हें पसंद नहीं उसकी धज्जियां उङा देते हैं। उनकी स्थापनाएं, निष्कर्ष, मूल्यांकन और असहमतियां उनकी सामाजिक – सांस्कृतिक – धार्मिक और साहित्यिक रूचियों का प्रतिनिधित्व करती हैं। तमाम विवादों, उलझनों और वर्णवादी श्रेष्ठता बोध को झलकाने के बाद भी रामचंद्र शुक्ल का ऐतिहासिक महत्व और साहित्यिक अवदान काफी जगह घेरता है। उनसे असहमति जता कर ही परवर्ती साहित्येतिहास, आलोचना एवं उसकी विभिन्न धाराओं को विकसित किया जा सका है। 
पिछले वर्षों में जब से दलितों - पिछङों का उभार और हिन्दूवादी धार्मिक कट्टरता एवं सांप्रदायिकता सामने आयी है रामचंद्र शुक्ल का लेखन पुन: विवादों के घेरे में आ गया है। एक तरफ उनमें उभरे वर्णवादी – जातिवादी संरचनाओं पर सवाल उठाये जा रहे हैं दूसरी तरफ उनमें मौजूद हिन्दूवादी चिन्हों के मायने तलाशे जा रहे हैं। रामजी यादव द्वारा संपादित ‘आचार्य रामचंद्र शुक्ल संचयन’ को इसी नजरिये से देखा जाना चाहिए। रामचंद्र शुक्ल ‘नेशनलिस्ट’ विमर्शकार थे। श्रेष्ठ निबंधकार, अनुवादक भी। जिसकी झलक यहां नहीं दिखाई पङती है। रामचंद्र शुक्ल के रचनात्मक वैविध्य का यहां अभाव है। कहना न होगा, इसे बेहतर संचयन और संपादन नहीं कहा जा सकता है। यह आचार्य शुक्ल के साहित्यिक अवदानों का श्रेष्ठ चुनाव नहीं है।
रामजी यादव द्वारा लिखी गई भूमिका भी हङबङी की शिकार है। उन्होंने रामचंद्र शुक्ल की एकतरफा आलोचना की है। यह आलोचना तात्कालिक सामाजिक – धार्मिक संरचनाओं और संस्थाओं के उभार के प्रतिफलन स्वरुप सामने आयी है। संचयनकर्त्ता से यह उम्मीद की जाती है कि वे संबंधित लेखक का मूल्यांकन समग्रता में करें। उनसे नये ‘पाठ’ की तस्दीक रहती है। संचयन या संपादन के उद्देश्य और निहितार्थ भी स्पष्ट हों। तब, जबकि उस लेखक की रचनावली और कई संचयन पहले ही प्रकाशित हो चुके हों।
रामजी यादव भूमिका में रामचंद्र शुक्ल के साहित्यिक – सांस्कृतिक प्रतिमान ‘लोकमंगल’ की आलोचना करते हुए उसे कुछ जातियों के कल्याण तक केंद्रित मानते हैं। फिर उसे हिन्दी विभाग के संकीर्ण और सङांध भरे परिवेश से जोङते हैं। फिर हिन्दी विभागों में दलितों - पिछङों – आदिवासियों, अल्पसंख्यकों की कम तादाद से। यानी वे शुरुआत ही कहां का रोङा, कहां का पत्थर, भानुमती का कुनबा जोङा वाले स्टाइल में करते हैं। फिर वे रामचंद्र शुक्ल और शुक्लोत्तर हिन्दी आलोचना में पाठ की मनमानी पर बहस करने लगते हैं। साथ ही यह निष्कर्ष भी चस्पां देते हैं कि शुक्ल ‘हिन्दी के पहले रूपवादी आलोचक’ लगते हैं। यहां हम देख सकते हैं कि रामजी यादव की भूमिका बेहद बेतरतीब, लचर और अनावश्यक रूप से ध्वंसात्मक है। बेहतर होता रामजी यादव ने शुक्लजी के व्यक्तित्व में जिन विरोधी छोरों को पहचानने की कोशिश की है, जिन विशेषताओं और नकारात्मक पहलुओं को देखने की कोशिश की है - दोनों पर संतुलन बनाकर आगे बढ़ते।   
संपादक इस बात पर बल देते हैं, जो उचित ही है कि शुक्लजी, हिन्दू गौरव को चुनते हैं – मनुष्य जाति के नहीं। वह भी तब, जब वे इस्लामिक कट्टरता, कठमुल्लापन और धर्मांतरण के विरुद्ध खङे हैं। ‘तुलसी के सौंदर्य और लोकमंगल पर पूरी पोथी लिखते हैं, वहीं कबीर को सस्ते में निपटाते हैं। मध्यकाल की सामाजिक क्रांति के बरक्स पतनशील सामंती मूल्यों को बङे फलक पर व्याख्यायित करते हैं’। वे शुक्लजी के भीतर फैले फांक पर से पर्दा उठा दिखाते हैं कि ‘हिन्दुत्ववाद और वर्णव्यवस्था जैसी नारकीय समाज व्यवस्था का समर्थन करने के साथ ही वे करुणा, संवेदना और लोकमंगल जैसे लोकतांत्रिक मूल्यों की भी व्याख्या करते हैं। मीर और गालिब को हिन्दी से निकाल बाहर करने को सुनियोजित चाल बताते हैं। अंत में यह सवाल उठा छोङ जाते हैं कि एक परजीवी समाज की मूल्य व्यवस्था के प्रवक्ता होने के बाबजूद वे क्योंकर इतनी मजबूती से जमे हुए हैं !
संचयनकर्त्ता ने पुस्तक को आठ खंडों में विभाजित किया है। पहला खंड कविताओं का है। यह सर्वविदित है कि शुक्लजी का हाथ कविताओं में तंग है। उनकी कविताएं उनके तीव्र विचारों की पच्चीकारी है। उसमें छायावादी तत्समता का पूरजोर आग्रह है। छंद और तुक को साधने की भरपूर कोशिश। राष्ट्रीय चेतना, हिन्दी की गौरवगाथा के अलावा तुलसी के बहाने वर्णवादी श्रेष्ठता को सामने रखना उनकी कविताओं में शामिल है। वे एक तरफ देवकीनंदन खत्री के शोक में कविताएं लिखते हैं तो दूसरी तरफ छायावाद और निराला के विरोध में भी। यानी वे कविता और आलोचना में एक ही तरह के काम को अंजाम दे रहे थे।
दूसरा खंड कहानियों का और तीसरा पत्रों का है। पत्रों के चुनाव में संपादक ने सिर्फ इस बात का ध्यान रखा है कि हिन्दी के लेखकों के विवाद, पाठ्यपुस्तकों की राजनीति और जोङ –तोङ दिखे। हालांकि इससे उस समय के सत्य का पूरा उदघाटन नहीं होता, आंशिक झलक भर मिलती है। ‘सौंदर्य, भाषा और साहित्य शास्त्रीय विवेचन’ खंड में कविता क्या है, उपन्यास, साहित्य, अपनी भाषा पर विचार, उर्दू राष्ट्रभाषा, भाषा की उन्नति, भारतेंदु हरिशचंद्र और हिन्दी, हिन्दी और मुसलमान शामिल हैं। यह चयन अतार्किक है। इसे किसी दृष्टि से विवेकसम्मत नहीं कहा जा सकता। बेहतर होता भाषा विवाद के अलग खंड होते। शुक्ल जी संस्कृतनिष्ठ हिन्दी के पक्ष में थे न कि उर्दू, अरबी, फारसी के विरोध में थे। हालांकि वे हिन्दी में संस्कृत और उर्दू की उतनी ही जरुरत महसूस करते थे जितनी से भाषा बोझिल और लद्दङ न हो। शुक्लजी के एजेंडे में भारतेंदु थे न कि शिवप्रसाद सिंह सितारेहिंद। मूल्यांकन खंड में सूरदास, तुलसीदास और जायसी तथा जीवनी खंड में मोहनलाल विष्णुलाल पंड्या, प्रेमघन, राधाकृष्णदास को शामिल किया है। इतिहास खंड में ‘गद्य साहित्य का प्रसार’ तक का हिस्सा है। यह खंड भी आधे – अधूरे ही शामिल है। बेहतर तो यह होता कि इस खंड में सिर्फ रीतिकाल या आधुनिक काल को शामिल किया जाता। सूर, तुलसी, जायसी को मूल्यांकन खंड में रखने के बाद भक्तिकाव्य को शामिल करने की जरुरत खत्म हो जाती है। भूमिका में जिस हिन्दूवादी बातों पर रामजी ने बल दिया है वह उसके शामिल होने से स्वत: स्पष्ट था। फिर वह निबंधों में भी व्याप्त है।    
         

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