शनिवार, दिसंबर 17, 2011

भारतीयता को समृद्ध करते शोध

                
भारतीय समाज कई विदेशी हमलों से लहूलुहान हुआ। राजनीतिक और सैनिक हमलों के अलावा इसने सांस्कृतिक हमले को भी सहा। प्रतिरोध और सांस्कृतिक समन्वय का क्रम भी हमेशा चलता रहा है। उसमें मुस्लिम आक्रांताओं के हमले भी शामिल रहे हैं। लेकिन हजार वर्ष बाद अब भी भारत में मुसलमानों के आगमन और स्थायित्व को लेकर जब – तब कुछ राजनीतिक पार्टियां या ग्रूप की दृष्टि संदेहास्पद बनी रही है। क्षेत्र विशेष में तनाव, सांप्रदायिक दंगे, धार्मिक अलगाव और सामाजिक जीवन में उनसे दूरी के इतिहास भी इस बात की पुष्टि करते हैं। ऐसे राजनीतिक वक्तव्य भी सार्वजनिक जीवन में जब – तब सुनाई पङते रहते हैं कि ये विदेशी हमलावर हैं। राष्ट्रदोही हैं। हजार वर्ष पूर्व की इन घटनाओं और सच्चाईयों को इतिहास अनदेखा नहीं करता है, लेकिन समस्या तब उत्पन्न होती है जब उनकी राष्ट्रीयता, मातृभक्ति और सामाजिक – धार्मिक जीवनशैली को संदेह की दृष्टि से देखा जाता है। उनकी ‘भारतीयता’ पर प्रश्नचिह्न लगाये जाते हैं। भिन्नता प्रदर्शित करते हुए उन्हें दूसरे दर्जे का नागरिक साबित करने की छलपूर्ण रणनीतिक प्रयास किये जाते हैं। उनके अवदानों को विस्मृत करने और धूंधलके में ढकेलने के लिए ढ़ोंगपूर्ण नटशैली अपनायी जाती है तथा भारतीयता को ऐसे परिभाषित किया जाता है जैसे उसकी एकरेखिय अविच्छिन्न परंपरा रही हो। उसमें कभी टूट पैदा नहीं हुई। टूट की जबाबदेही तो मुसलमानों के मथ्थे मढ़ा जाता है लेकिन उनके अवदानों, सांस्कृतिक बहुलता, बहुवचनता को हाशिए पर ढकेल दिया जाता है।
ऐसे में इन बिन्दुओं पर विचार – पुनर्विचार की जरुरत पङती रहती है। जाफ़र रज़ा की शोधात्मक पुस्तक “भारतीय साहित्य में मुसलमानों का अवदान” एक किस्म से सांस्कृतिक पहलुओं पर पुनर्विचार ही हैं। यहां इतिहासकार ताराचंद को याद करना बेहद जरुरी लगता है जिनका ‘इंफ्लूएंस ऑफ इस्लाम ऑन इंडियन कल्चर’ इतिहास ग्रंथ अब भी मील का पत्थर माना जाता है। हालांकि इस दिशा में और भी गंभीर और उल्लेखनीय काम हुए हैं। लेकिन इससे रज़ा की इस पुस्तक का मह्त्व कम नहीं हो जाता। इन्होंने यह काम अपने हाथ में तब लिया जब बाबरी ध्वंस के बाद अवाम सांप्रदायिक दंगों की चपेट में झुलस रहा था।
यह पुस्तक भारतीयता – राष्ट्रीयता की संकीर्ण सोच के खिलाफ एक सांस्कृतिक प्रतिरोध की तरह है। छह अध्यायों में विभक्त शोध ग्रंथ हिन्दुस्तान की तमाम क्लासिकल और प्रांतीय भाषाओं में मुसलमानों के उल्लेखनीय अवदानों की चर्चा करता है। भाषा और लिपि की समस्याओं एवं ऐतिहासिक चरणों व विवादों से भी रु-ब-रु होने की कोशिश करता है। लेकिन विषय की जटिलता और व्यापकता ही पुस्तक की कमजोरी बनती है। अंतत: पुस्तक सूचनाओं और नामोल्लेख का मलबा साबित होता है। विवेचन, विश्लेषण एवं ठोस आलोचनात्मक स्थितियों का सामना लेखक नहीं करता है, लेकिन बिल्कुल अभाव भी नहीं कहा जा सकता है।
जाफ़र रज़ा संकेत करते हैं कि भारतीय मुसलमान इस्लामी कानून और शरीअत के मुताबिक ही जीवन नहीं जीता है। वह मुस्लिम शासकों और आक्रांताओं का अनुयायी नहीं है। इस्लामी साम्राज्यवाद के आधार पर न तो इसे समझा जा सकता है न परिभाषित किया जा सकता है। आम भारतीय मुसलमानों के व्यक्तित्व और व्यवहार को उसके साथ जोङकर देखना असंगत है। उन्हें लगता है कि जब कभी भी उनकी उपलब्धियों की चर्चा की जाती है सूफ़ियों और शियों को अलगा दिया जाता है। सब सुन्नियों के खाते में डाल दिया जाता है। बेहतर होता कि इनके साथ वहाबियों, देवबंदियों, बरौलियों, मुक़ल्लिदों आदि समूहों की चर्चा भी की जाती। उसके भीतर – बाहर आये परिवर्त्तनों से बनने वाले मानस का उल्लेख किया जाना जरुरी है। वे मानते हैं कि भारतीय जनमानस का शिक्षा, वातावरण, संस्कार सब एक है। अशोक से लेकर अकबर तक के साम्राज्य टूटते – बनते रहे हैं इसलिए भारतीयता की कोई एक निश्चित परिभाषा नहीं गढ़ी जा सकती। “विभिन्न धार्मिक विश्वास, विभिन्न सांस्कृतिक कार्य – कलाप को मिलाकर जो वस्तु बनी है, उसको भारतीयता माननी चाहिए”।
हिन्दी – उर्दू भाषा के उदगम एवं विकास की चर्चा करते हुए कहते हैं कि भारत में मुसलमान मात्र शासक के रूप में नहीं थे। वह भारतीय जीवन में इस प्रकार रच बस गये थे कि भारतीय जीवन – पद्धति, परंपरा एवं विश्वास, रस्म रिवाज सभी में भागीदार थे। इसलिए जब आक्रमणों एवं युद्धों की धूल छंटी, तो ह्रदय में स्नेह – स्त्रोत बह निकला, जिसका प्रभाव ललित कलाओं के विभिन्न क्षेत्रों में स्पष्ट दिखाई देता था। दिलबर बेसुवा भारतीय चौसर खेलती है। ‘मजहबे इश्क’ में ब्राह्मण तथा सिंह की कथा पंचतंत्र से उद्धृत है। ‘गुलबकावली’ में शिखंडी का जिक्र है। वे अरबी- फारसी शब्दों से निर्मित होने वाले हिन्दी व्याकरण की चर्चा ही नहीं करते बल्कि उदाहरणों से दिखाते हैं कि हिन्दू – मुस्लिम भाषा और संस्कृति मिलकर एक नया व्याकरण ही खङा कर देते हैं। शब्द संपदा को समृद्ध कर देते हैं। ध्वनियों में परिवर्त्तन उपस्थित कर देते हैं। शब्दों और विन्यासों की एक रोचक दुनिया रच देते हैं। क्या यह सांस्कृतिक समन्वय और आपसी मेलजोल के बगैर संभव था? भाषिक आधार पर तो बिल्कुल ही भेदभाव नहीं था। यह और बात है कि शुद्धता के आग्रही तो हर दौर में रहे हैं। हालांकि हिन्दी में सर्वाधिक शब्द अरबी – फारसी के हैं।
रज़ा हिन्दी, उर्दू, कश्मीरी, बलती, शीना, ब्रोशस्की, खोवार, डोगरी, नेपाली, तमिल, तेलुगू, कन्नङ, मलयालम, बंगला, उङिया, असमिया, मणिपुरी, पंजाबी, सिन्धी, हिन्दको, बलूची, सरायकी, पश्तो, कोंकणी, मराठी, गुजराती के अलावा क्लासिकी भाषाएं संस्कृत, अरबी, फारसी में मुसलमान कवियों, लेखकों आदि की महत्वपूर्ण और उल्लेखनीय रचनाओं का जिक्र करते हैं। हिन्दी कवियों - संतों में हमीउद्दीन नगौरी, अब्दूल रहमान, अमीर खुसरो, कबीर, जायसी से लेकर आज के लेखक असगर वजाहत, अब्दुल बिस्मिल्लाह, मंजूर एहतेशाम, नासिरा शर्मा आदि का भी जिक्र करते हैं। बंगला में नजरुल को पुनर्जागरण के प्रणेता पुरुष के तौर पर याद करते हैं। उर्दू साहित्य का पूरा भंडार ही मुस्लिम कवियों से भरा है।
भारतीय भाषाओं में मुसलमान कवियों – लेखकों के अपार योगदान ने देश की न सिर्फ भौगोलिक सीमाओं को मिटा दिया है बल्कि सांस्कृतिक विविधता, एकता और बहुरंगिनियों की छटाओं से समृद्ध किया है। रज़ा की पुस्तक इन विशेषताओं के उदघाटन के अलावा आगामी शोध के लिए संदर्भ ग्रंथ के रूप में भी स्थान पाएगी।       
पुस्तक – भारतीय साहित्य में मुसलमानों का अवदान
लेखक – जाफ़र रज़ा
प्रकाशक – लोकभारती प्रकाशन, इलाहाबाद
मूल्य – 375 रुपये

    

1 टिप्पणी:

बेनामी ने कहा…

achcha likhte ho tum R.K.