शनिवार, दिसंबर 17, 2011

प्रागैतिहासिक उपनिवेशीकरण की दास्तां के बहाने

           
आधुनिक सभ्यता के विकास की गाथा लिखना एक तरह से साभ्यतिक इतिहास की बर्बर कथाओं को दोहराना है। सर्वशक्तिमान सत्तामूलक सांस्कृतिक हमलों के भीतर पैठ कर उसे उकेरना है। उन अनुभवों में लौटना है जो रक्तरंजित हैं। बर्बर हिंसा और खून के छींटें से भरे हैं। लैटिन अमेरिकी लेखकों में शुमार जानेमाने लेखक और नोबेल पुरस्कार से सम्मानित मारियो वार्गास ल्योसा ने इस किस्म का साहस किया है। उनने एल आब्लादोर / (द स्टोरीटेलर) / (किस्सागो) नामक अपने उपन्यास में न सिर्फ सिविलाइजेशन से संबंधित बहसों को नये ढंग से जन्म दिया है बल्कि पेरू के मूल और प्राचीन रहवासी माचीग्वेंगा आदिवासियों के बहाने वैश्विक सभ्यता की समीक्षा कर दी है।
आर्यों और अनार्यों की बहसें हमारे प्राचीन इतिहास के केंद्र में काफी जगहें घेरती है। जैसे आर्यों ने यहां के मूल निवासियों को बर्बर तरीके से कुचल कर एक  एक नयी सभ्यता की नींव रखी और आदिवासियों को हाशिए पर ढकेल दिया वैसे ही पेरू में सबकुछ घटित हुआ। मूल निवासियों की भाषा, संस्कृति, जीवन शैली, गीत – संगीत, धार्मिक और आस्थामूलक मान्यताओं, पुरातन तौर – तरीकों, प्रकृति के साथ सहकार जीवन आदि को कूचल कर नयी सभ्यता विकसित की गई।
मारियो वार्गास ल्योसा इस उपन्यास के बहाने परंपरा और आधुनिकता के द्वंद्व, सभ्य और असभ्य की वर्चस्वकारी सत्तामूलक संस्कृति, विकास बनाम पिछङापन का ज्वलंत वैश्विक सवाल उठाते हैं। सामाजिक गैर – बराबरी का प्रश्न भी। उनके जेहन में यह सवाल जिंदा हो उठी कि संस्कृति क्या है? क्या सभ्य बनाने के लिए परंपरागत संस्कृति को नष्ट कर देना जरुरी है? बर्बर कौन है? उपवनिवेशिकरण ने हमारे अस्तित्व के वजूद को कैसे निगल लिया है? क्या पिछङापन का सवाल गुलाम बनाने की रणनीति है? क्या मनुष्य को अधिकार है कि वे अपनी जरुरतों को के लिए प्रकृति का मनमाने तरीके से दोहन करें? आदिम सभ्यताओं को नष्ट करने में मिशनरियों, भाषाविदों, नृविज्ञानियों, नृतत्त्वशास्त्रियों, बुद्धिजीवियों आदि की भूमिका भी उतनी ही महत्वपूर्ण रही है जितनी सौदागरों और पूंजीपतियों की?
लैटिन अमेरिका ही नहीं अफ्रीका और एशियाई समाजों में भी जंगलों और प्रकृति की गोद में बसने वाले आदिवासियों को शताब्दियों से उजाङा जा रहा है। आज इसकी गति तेज हो गयी है। आधुनिक विकास, पश्चिम आधारित उत्तेजक जीवन शैली और अबाध गति से बहता विनाशाकारी चक्रवर्ती पूंजीवाद ने उनके अस्तित्व को ही खतरे में डाल दिया है। आदिम, बर्बर, असभ्य, जंगली, पिछङा कह कर इनकी आलोचना की जा रही है। भारत में उन्हें लगभग माओवादी करार दिया गया है। बंगाल, उङीसा, झारखंड, छतीसगढ़, मध्यप्रदेश एवं दक्षिण के राज्यों में इनसे जंगल और जमीन का हक विकास और प्रगति के नाम पर छीना जा रहा है। तथाकथित मुख्यधारा में जोङने के छलावे के नाम पर उन्हें अपनी संस्कृति और भाषा से अलग कर देने की साजिश रची जा रही है। शिक्षा और विकास के नाम पर उन्हें अपने जैसा बनने के लिए बाध्य किया जा रहा है। दुनिया के बङे – बङे कारपोरेट घराने, बहुराष्ट्रीय कंपनियों और सत्ता की दलाली करने वाले अंतर्राष्ट्रीय नेताओं और सौदागरों की मिलीभगत और लूटखसोट की वजह से विकास के बहाने जंगल और भूमि अधिग्रहण को अंजाम दिया जा रहा है। यह सब बेशकीमती उपजाऊ जमीनों को हङपने, इमारती लकङियों और प्राकृतिक खनिज पदार्थों को लूटने का उपक्रम है। आज भारत में टाटा के सिंगुर से लेकर पास्को, वेदांत आदि के विवाद को इस संदर्भ में देखा जा सकता है।
पिछले तीन दशकों में जब से आर्थिक उदारीकरण और मुक्त व्यापार का दौर शुरू हुआ, अफ्रीका और लैटिन अमेरिकी समाजों को तो लगभग नींबू की तरह निचोङ दिया गया। 80 का दशक तो अफ्रीका के इतिहास में बर्बादी के दशक के रूप में याद किया जाएगा। इसकी छवि तो ‘भूख से मरते लोगों के महाद्वीप’ के रूप में बन गयी है। व्यापारियों और कंपनियों को प्रोटेक्ट करनेवाली सरकारें (जो इस मुनाफाखोरी के हिस्सेदार है) यह सब इस दलील देकर कर रही है कि भूख और कुपोषण से मरने वाले बच्चों की संख्या सबसे ज्यादा आदिवासी और  पिछङे समाजों में है। शिक्षा न्यून स्तर पर है। स्वास्थ्य और प्रति व्यक्ति आय की स्थिति दयनीय है। लैटिन अमेरिकी समाजों में बेरोजगारी के आंकङे निर्रथक हो चुके हैं। उसे तो लगभग ‘चौथी दुनिया’ में तब्दील कर दिया गया है। यह सब एक साजिश के तहत उनके द्वारा हुआ, जो आरामदेह लक्जरी कारों और जहाजों में सैर करते हैं, टेनिस और रग्बी खेलते हैं, इंटरनेट इस्तेमाल करते हैं, मंहगी शराब और कोक पीते, हैमबर्गर और पिज्जा खाते हुए थ्री डी स्क्रीन पर कुपोषित बच्चे और जवान आदिवासी स्त्रियों के खुले वक्षस्थल देख खिलखिलाते हैं। पेरूवासियों की नजर में आदिवासी सामाजिक विद्रूप थे।
मारियो वार्गास ल्योसा ने लैटिन अमेरिकी देश पेरु के एक आदिवासी समूह माचीग्वेंगा को प्रातिनिधिकता देकर जो सवाल उठाये हैं वे बेहद महत्वपूर्ण हैं। ऐसा नहीं है कि आदिवासी समाज के भीतर मौजूद अंधविश्वास, टोने टोटके आदि को न्यायसंगत ही ठहराते हैं, दोषपूर्ण और विकलांग बच्चों को मार देने को जायज। लेकिन वे इस बात के पक्ष में नहीं हैं कि विकास और औद्योगिकरण के नाम पर उन्हें विस्थापित कर दिया जाए, उससे उसकी भाषा और संस्कृति छीन ली जाए। प्रकृति, पहाङ, जंगल और जमीन से उन्हें खदेङ दिया जाए। लेकिन ये सब पूरी दुनिया में हो रहा है। ल्योसा का यह उपन्यास बर्बाद हो चुके इन आदिवासी समाजों या कहें मिटने की दहलीज पर खङे लोगों के आर्त्तनाद को आवाज देने की कोशिश है। हाशिए पर खङे लोगों को सहानुभूति प्रदान करने की एक कोशिश है।
ल्योसा ने पूरा उपन्यास माचीग्वेंगा आदिवासियों के किस्सागो या कथावाचक (आब्लादोर) के माध्यम से कही है, जो लेखक की कल्पनाशीलता का जबरदस्त नमूना है। यह और बात है कि उपन्यास में शोध और अनुसंधान की महत्वपूर्ण भूमिका है। मिथक और प्रागैतिहासिकता आपस में घुले मिले हैं लेकिन 1950 के बाद के पेरू का यथार्थ ज्यादा भयावह रूप में उभरे हुए हैं। समसामयिक पूंजीवाद का विकृत चेहरा ही माचीग्वेंगा या कहें आदिवासियों की त्रासदी को ज्यादा गाढ़ा रंग देते हैं। यह उपन्यास कई स्तरों पर चलता है। लेखक खुद भी बतौर पात्र मौजूद है। वह अपने मित्र साउल सूयतास आब्लादोर से यूनिवर्सिटी में माचीग्वेंगा के अदभुत किस्से – कहानियां सुनाता है। ये कहानियां कई बार मार्केस की जादुई यथार्थ की याद दिला देते हैं। चांद - सूरज, जीवन - मरण, आस्था- विश्वास, रीति – रिवाज, प्रकृति – उत्पत्ति आदि की रहस्यात्मक – रोमांचकारी, अप्राकृतिक, अवास्तविक और अविश्वसनीय कथाओं की लयबद्ध शृंखलाएं भरी पङी है। कई बार ये कथाएं सहज और सरल लगती हैं हैं तो कई बार हॉरर क्रिएट करती चलती हैं।
पर्यावरण के साथ छेङछाङ का मुद्दा भी ल्योसा ने बहुत ही गंभीरता से उठाया है और वे कहीं भी फील नहीं होने देते की समसामयिक समस्याओं की तरफ सचेत कर रहे हैं। सबकुछ मिथकीय अंदाज में घटित होता है लेकिन प्रकृति की प्रतिक्रिया की भयावता और उसका कहर इशारे में सब कह जाता है। आदिम समाज के लोगों ने प्रकृति को उपनिवेश नहीं बनाया था। वे प्रकृति का दोहन नहीं करते थे। उसकी अनिवार्यता को समझते थे। उनमें सहजीवन का भाव था। जो लोग ऐसा करते थे उन्हें सजा दी जाती थी या जब कभी प्रकृति अपना रौद्र रूप धारण करती थी तो वे उससे सीख लेते थे और जीवन फिर संतुलन की राह पर दौङता था। लेकिन आज प्रकृति और पर्यावरण की बगैर परवाह किए उसका दोहन किया जा रहा है। उसे उपनिवेश बना लिया गया है जिससे उत्पन्न होने वाले खतरे और परिणाम बीच – बीच में कथावाचक और लेखक के संवाद में झांकता है।  
मारिया वार्गास ल्योसा का यह उपन्यास आदिवासी समाज के बहाने हाशिए के लोगों के साथ किए जाने वाले सामाजिक गैर बराबरी, शोषण, उत्पीङन के साथ – साथ भूमि अधिग्रहण, पर्यावरण के संकट को उठा वर्त्तमान दौर में अपनी प्रासंगिकता एवं महत्व को सिद्ध करता है। खासकर वर्त्तमान हिन्दुस्तान में।        
पुस्तक – किस्सागो
लेखक – मारियो वार्गास ल्योसा
अनुवाद – शंपा शाह
प्रकाशक – राजकमल प्रकाशन, दिल्ली
मूल्य – 195 रुपये

  



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