शनिवार, दिसंबर 17, 2011

जातिवाद के उलझे सवाल

      कुलदीप कुमार का लेख “जात ही पूछो साधु की” (जनसता, 6 नवम्बर, 2011) कई चुनौतिपूर्ण सवालों, निष्कर्षों के अलावा बेहद भ्रामक और अतार्किक हैं। उन्होंने कई सवाल उठाये हैं जिनमें से कुछ सवाल यहां रखे जा रहे हैं। पहला, क्या नाम के साथ जातिसूचक पद इस्तेमाल से कोई जातिवादी हो जाता है? दूसरा, प्रेमचंद के लेखन या कहें लेखक की जाति और उसकी रचना के बीच कोई संबंध नहीं है। तीसरा, आजादी के बाद दलित – पिछङे नेताओं ने जाति की समस्या को सुलझाया नहीं। चौथा, जाति (वाद) के प्रश्न को सामाजिक न्याय से न जोङा जाए। पांचवा, दलित समस्या और स्वअर्जित संवेदना को वही समझते हैं इसलिए दलित नेता और बुद्धिजीवियों की जिम्मेदारी है कि वही इसे सुलझाएं या आक्रोश को दिशा दें।
कुलदीप कुमार द्वारा उठाये गये तमाम सवालों का यहां जबाब देना मुश्किल है लेकिन जिन अनिवार्य प्रश्नों को उन्होंने उलझा छोङा है उस पर विचार करना जरूरी है, क्योंकि आये दिन दलित – आदिवासी और पिछङी जातियां न सिर्फ उस अपमान को जीते और बर्दाशत करते हैं - जो लोकतांत्रिक और सामाजिक पद्धितियों - संस्थाओं में घटित होते हैं बल्कि उन अवसरों से भी वंचित हो जाते हैं जिन्हें वे श्रम और मेधा से हासिल कर सकते थे। दूसरे, वे आरक्षण के सवाल पर बिल्कुल खामोश हैं, जिसे सामाजिक न्याय के रूप में सामने रखा गया है। और पिछले कुछ वर्षों में हमारी सामाजिक – राजनीतिक और न्यायायिक व्यवस्था इससे टकराती रही है। कुलदीप कुमार के लिए सामाजिक न्याय का अर्थ सिर्फ ‘जाति तोङो’ से है, और जाति के आधार पर सामाजिक - राजनीतिक - आर्थिक फैसले न लेने से है। निश्चय ही यह आदर्शवादी – नैतिक सुझाव है। लेकिन उनके इस ‘आदर्शवादी – नैतिक’ सुझाव की धज्जियां उनके ही उदाहरण उङाते हैं। मद्रास हाईकोर्ट के न्यायाधीश सीएस करणन ने एस सी / एस टी आयोग को शिकायत की है कि दलित होने के कारण उनके और उन जैसे अन्य न्यायाधीश के साथ सवर्ण न्यायाधीश अपमानजनक व्यवहार करते हैं। अब कुलदीप कुमार से पूछा जा सकता है कि क्या इसका समाधान सिर्फ कानूनी होगा या सामाजिक – राजनीतिक भी? यूं तो संवैधानिक – कानूनी संस्थाओं का निर्माण भी सामाजिक - राजनीतिक फैसलों के आधार पर हुए हैं। कानूनविदों की कमी देश में तब भी कम नहीं थी लेकिन आम्बेडकर को संविधान निर्माण का जिम्मा इसलिए दिया गया था क्योंकि वे दलितों – वंचितों के साथ ज्यादा न्याय कर सकते थे, उनकी तुलना में जिसने जातिगत अपमान को न सहा हो।
फर्ज करें अपमान करने वाले उच्च जाति से संबंधित वे न्यायाधीश सर्वोच्चय न्यायालय में नियुक्ति के लिए साक्षात्कार लें रहे हों। क्या उस स्थिति में सीएस करणन या उन जैसे दलित जाति से आने वाले न्यायाधीश का चुनाव होगा? क्या साक्षात्कार निष्पक्ष तरीके से लिया जायेगा? क्या दलित जाति से आने वाले प्रत्याशियों को साक्षात्कार में अपमान किया जायेगा या नहीं? योग्यता के पैमाने जातियां बनेंगी या नहीं? ऐसी अन्यायपूर्ण सामाजिक व्यवस्था में आरक्षण को सामाजिक न्याय क्यों नहीं माना जाए। क्या जाति व्यवस्था को तोङना इतना आसान है? जैसा कि कुलदीप कुमार परिभाषित कर रहे हैं अगर यह नहीं टूटा तो हमारे समाज और देश में सामाजिक न्याय आयेगा ही नहीं? हजारों वर्षों में यह नहीं टूटा, इसका यह मतलब तो नहीं कि लोकतांत्रिक व्यवस्था ने दलितों – पिछ्ङों को सामाजिक न्याय के नाम पर कुछ दिया ही नहीं? या जो कुछ उन्हें मिला या सुविधाएं दी गई उसे जातिवादी कहना कहां तक उचित है? आरक्षण सामाजिक न्याय नहीं है तो भला क्या है?
दूसरी बात, जातिवादी मानसिकता से ग्रस्त वे न्यायाधीश जो अपने सहयोगियों को अपमानित करते हैं - न्यायायिक फैसले में जातिवादी पूर्वाग्रह से काम नहीं चलाते होंगे इसकी क्या गारंटी है? आखिर इसकी जांच पङताल कैसे संभव होगी? क्या उन न्यायाधीशों के संदर्भ में कहा जा सकता है – ‘जाति न पूछो साधु की’? क्या यह मसला सिर्फ एस.सी. / एस.टी आयोग का है या भारतीय सामाजिक व्यवस्था के भीतर निरंतरता में जीवित जातिवादी अत्याचार और दुर्दांत दमनकारी हॉररकी की? क्या यह ट्रीटमेंट न्यायाधीश करणन या उन जैसों के आत्मसम्मान और स्वाभिमान को ठेस पहुंचाना नहीं है? मानवीय गरिमा और मनुष्यता के अपहरण का नहीं है? उनके समूचे सामाजिक – सांस्कृतिक – शैक्षणिक अस्तित्व को नकारना नहीं है? क्या इसे सामाजिक - राजनीतिक – कानूनी दबाब के बगैर ठीक किया जा सकता है? ऐसा नहीं है कि यह एकमात्र उदाहरण है, बल्कि पूरी भारतीय लोकतांत्रिक व्यवस्था एवं सामाजिक संरचना में पसरी पङी है। इतनी गंभीर और जटिल समस्यामूलक स्थिति में कुलदीप कुमार का यह सुझाव कि दलित नेताओं को अपने आक्रोश सही दिशा में लगाना हास्यास्पद और अतार्किक नहीं तो क्या हैं? हमें यह ध्यान रखना चाहिए कि अधिनायकवादी - वर्चस्वकारी शक्ति – समुच्चयों के द्वारा लिए लिये गये सामाजिक – आर्थिक – राजनीतिक वर्णगत / जातिगत फैसले जातिवादी और अन्यायकारी हो सकते हैं लेकिन दबे – कुचले, अपमानित और हाशिये पर फेंक दिये गये लोगों के लिए जाति के आधार पर लिये गये फैसले न्यायसंगत, मंगलकारी, अवसरौचित्यता को ठहराने वाले हो सकते हैं।
जातिसूचक संज्ञाओं के हटाने से जातिवाद समाप्त नहीं होगा। यह तर्क बहुत पुराना और बासी हो चुका है। इन तर्कों के सहारे वे कोई नई बात भी नहीं कह रहे। प्रेमचंद से लेकर लोहिया तक ने इस बारे में सुझाव दिया था। यहां तक कि लोहिया – जेपी से प्रभावित दर्जनों लेखकों – चिंतकों - पत्रकारों – समाजसेवियों ने अपने नाम के साथ जातिसूचक संज्ञाओं को हटाया। लेकिन इससे न तो जातिवाद मिटा, न ही उस आंदोलन का कोई व्यापक असर समाज पर पङा। आजादी पूर्व (और बाद में भी) यह प्रयोग दूसरे रूप में अपनाया गया। दलित और पिछङी जाति के लोगों ने सवर्ण जाति के साथ लगने वाले जातिसूचक संज्ञाओं को अपने नाम के साथ जोङ लिया। ताकि वे रोजमर्रा के जातिगत अपमान से बच सकें। लेकिन क्या इससे उनके जीवन और समाज पर फर्क क्या पङा? कंफूजन क्रिएट करना जातिवाद को तोङना नहीं है। न ही यह प्रगतिशीलता की निशानी है। उससे उस स्वाभिमान को भी हासिल नहीं किया जा सकता जो उच्च वर्ग को सुलभ है। मस्तराम कपूर ने भी इस आलेख के प्रतिउत्तर में (8 नवम्बर, 2011 जनसत्ता) चौपाल में लिखा है – ‘नाम के साथ जातिवाचक शब्द न जोङना महत्वहीन है। बल्कि सवर्णों के नाम के साथ जातिवाचक शब्द न जोङना पाखंड ही बन जाता है, क्योंकि यह समाज में सवर्णों के वर्चस्व के सच पर परदा डालने की कोशिश होता है’।
जातिप्रथा के विनाश पर पहले ही बहुत लिखा जा चुका है। कुलदीप कुमार का यह कहना कि जाति के आधार पर किसी को श्रेष्ठतर और हीनतर न मानना जातिवाद तोङना है। बहुत ही उचित है। लेकिन क्या यह एक सिद्धांत कथन से ज्यादा है? जब कभी भी हम जातिवाद पर बहस करते हैं ऐसी बातों को दोहराते हैं, लेकिन व्यवहारिक स्तर पर यह छोटा साबित हो जाता है। गांधी, आम्बेडकर, लोहिया आदि ने कई रास्ते सुझाए हैं जिनमें अंतर्जातीय भोज, अंतर्जातीय विवाह, जमीन का उचित बंटवारा, समाज का वर्गीय आधार तय करना, जातिवार जनगणना आदि हैं। गांधी का कहना था कि उच्च जाति के लोगों को दलित बस्तियों में जाकर जीवनयापन करना चाहिए ताकि उनके दुख, दर्द, पीङा, अपमान और अभाव को अनुभूत कर सकें और सच्चे मन से उसे सुलझा सकें। यही रास्ता उन्हें संवेदनशील और करुणा संपन्न बनाता और यही जातिविनाशक रास्ता बनता। यूं तो ‘आदर्शवादी कायांतरण’ के इस सिद्धांत पर आम्बेडकर को भी संदेह था लेकिन आजादी के बाद तत्कालीन सरकार और उसकी नीतियों ने इसे आदर्शवादी सिद्धांत कथन साबित कर दिया। आंकङे और सामाजिक अनुभव बताते हैं कि जितने भी सामूहिक अंतर्जातीय भोज संपन्न कराये गए वे उच्च जातियों की तरफ से आयोजित थे और दलित उसमें शामिल थे। आदर्श स्थिति तब मानी जाती जब दलितों के द्वारा आयोजित भोज में उच्च जाति के लोग शामिल होते। या मलिन बस्ती में उनके साथ रात गुजारते। लेकिन यह व्यवहारिक स्तर पर घटित नहीं हुआ। और तो और आये दिन दिखाई – सुनाई पङता है कि स्कूलों में दलितों के द्वारा खाना बनाने पर उसे उत्पीङित किया गया या सामूहिक बहिष्कार। ऐसी तमाम तरह की सामाजिक समस्या को सुलझाने की जबाबदेही सिर्फ दलित नेताओं और बुद्धिजीवियों की ही नहीं बल्कि समाज के सभी तबकों का है। चाहे वह किसी वर्ग या जाति से आता हो।
रेणु ने मैला आंचल में बहुत ही यथार्थ कथन किया है – “जात - पात नहीं मानने वालों की भी जाति होती है”। जातिसूचक संज्ञा पांडे, चतुर्वेदी, सिंह, शर्मा, अग्रवाल, गुप्ता, यादव, पटेल आदि लगायें या हटायें यह उतना महत्वपूर्ण नहीं है जितना व्यवहारिक स्तर पर जातिवादी मानसिकता, दुर्भावना आदि से काम न करना और लोहिया की तर्ज पर कहें तो दलितों के साथ ‘रोटी – बेटी’ का संबंध जोङना। कुछ अपवादों को छोङ व्यापक समाजिक दायरे में ऐसा घटित होता नहीं है। बुद्धिजीवियों के भीतर व्याप्त इस छदम को रघुवीर सहाय ने पकङ लिया था - “...बनिया बनिया रहे / बाम्हन बाम्हन और कायथ कायथ रहे / पर जब कविता लिखे तो आधुनिक / हो जाए...”। हमें और हमारे समाज को इन्हीं दुचित्तापन से बचने और बचाने की जरुरत है। अन्यथा हम जातिवाद के सवाल से लङ नहीं सकेंगें। 

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